सम्भव है मनुष्य देवताओं का वंशज रहा हो

February 1985

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डार्विन के विकास सिद्धांत में एक बड़ी खामी यह है कि उसमें मूल प्रकृति किसी की भी नहीं बदलती। आकृति में भी नाम मात्र का ही अन्तर हुआ माना जाता है। मनुष्य को जिन वानरों की सन्तान बताया जाता है, वे सामान्य वानरों से बहुत बातों में भिन्न हैं। लेकिन विकास अवधि का उन पर भी कुछ विशेष अन्तर नहीं हुआ है। विचार करने की शैली, भाषण, लेखन जैसी मानवी विशेषताओं का इतने दिन बाद भी कुछ शिक्षण नहीं हो पाया है। यहाँ तक कि घर बनाना, कल के लिए आवश्यक वस्तुओं का संकलन का विचार तक नहीं उठा है। दैनिक जीवन में काम आने वाले उपकरण तक उनके पास नहीं हैं। जबकि मनुष्य ने दो शताब्दियों में ही इतने वैज्ञानिक उपकरण उपलब्ध कर लिये हैं कि उसकी स्थिति कहाँ से कहाँ पहुँची। रेल, मोटर, जलयान, वायुयान, तार, रेडियो एवं बारूदी अस्त्र हाथ में आ जाने से उसकी शक्ति अनेक गुनी बढ़ गई है। भाषा लिपि के साथ विचार विज्ञान का भी असाधारण विकास हुआ है। जबकि जिन वानरों को मनुष्य का पूर्वज कहा जाता है तो अच्छी तरह दो पैरों के सहारे तक चलना न सीख पाये। यह कारण बताते हैं कि जीव विकास का वह क्रम ठीक नहीं है, जो डार्विन ने बताया है। मनुष्य का अपना इतिहास जितना लम्बा है उतनी अवधि में उसकी आकृति−प्रकृति में अन्तर हुआ होता। या फिर अब वह कुछ ऐसे प्रयत्न कर रहा होता जिससे उसकी अगली पीढ़ी कुछ से कुछ बन जाती।

मौसम और आहार की सुविधा के दैनिक दबाव से विवश होकर अन्य प्राणियों ने अपनी स्थिति के अनुरूप यत्किंचित् सुधार किये हैं या इन्हीं समस्याओं से टकराकर अपना अस्तित्व गँवा बैठें हैं। यदि वस्तुतः प्राणी प्रगतिशील रहे होते तो उनने प्रकृति को अनुकूल बनाने के लिए कुछ तो प्रयत्न किया ही होता। पर देखते हैं कि सब प्राणी यथावत् हैं।

मनुष्य अपने आप में सर्वांगपूर्ण है। उसकी पूँछ गायब नहीं हुई है वह सदा से बिना पूँछ का ही था। चार पैर से वह कभी नहीं चला। उसकी प्रकृति ही दो पैर से चलने की है। दो वर्ष का होते−होते अभिभावकों की भाषा बोलने लगते हैं और वैसे ही स्वभाव की प्रकृति बना लेता है। यह मौलिकता है विकास क्रम नहीं। जब अन्य किसी प्राणी में न पाई जाने वाली विचारणाएँ, भावनाएँ, आकाँक्षाएँ, मान्यताएँ, कुशलताएँ मनुष्य की मौलिक हैं तो फिर यही मानना पड़ेगा कि यह भी मौलिक ही है।

यह मौलिक विशेषताएँ इतनी तीव्रता से कैसे बढ़ीं। इसका उत्तर यह हो सकता है कि मनुष्य की सूक्ष्म संरचना एवं वंश परम्परा ऐसी है जो सम्भवतः अन्य किसी लोकसेवी परिजनों से उसे विरासत में मिली हों। मनुष्य के देव पुत्र होने की सम्भावना बहुत कुछ सही प्रतीत होती है।

सृष्टि की आदिम अवस्था में मनुष्य ने जो संरचनाएँ की हैं, वे उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए किसी प्रकार सम्भव दिखाई नहीं पड़ती। उदाहरण के लिए मिश्र के पिरामिडों को लिया जाय। जिस इलाके में दूर−दूर तक पत्थर नहीं हैं वहाँ इतने भारी पत्थर, इतनी ऊँचाई पर इतनी कुशलतापूर्वक परस्पर फिट किये जाना। असाधारण कठिनाई का काम है। आज का विकसित विज्ञान जिस वास्तु कला पर आश्चर्यचकित है वह उपकरणों के सर्वथा अभाव वाले समय में किस प्रकार बन पड़े होंगे। इसके उत्तर में हमें उन लोगों के अनुग्रह की ओर ताकना पड़ता है, जिनका वंशज मनुष्य रहा है।

पुरातन काल के निर्माणों में जो कुछ भी आश्चर्यजनक है, वह ऐसा है जो काल गणना ज्योतिर्विज्ञान से सम्बन्धित है अथवा अन्य लोकों के साथ आवागमन की रहस्यभरी कुँजियाँ खोलता है। यों तो देव पूर्वजों का पृथ्वी के हर भाग में आवागमन रहा है। पर अधिकता उस क्षेत्र में रही है जहाँ से आवागमन उनके लिए सुविधाजनक पड़ता रहा हो अथवा मार्ग न भटकने के संकेत सिगनल सुविधापूर्वक मिल जाते हों।

पिरामिडों के मात्र फराहो के मकबरे नहीं माना जाना चाहिए। उनमें ऐसे रहस्य भरे तथ्य भरे पड़े हैं जो अन्य लोकों से आवागमन की कड़ी जोड़ते हैं। दक्षिण अफ्रीका में कुछ समय पूर्व मय सभ्यता का वर्चस्व रहा है। उस क्षेत्र में उपलब्ध ध्वंसावशेषों का सीधा सम्बन्ध ज्योतिर्विज्ञान से जुड़ता है। कहना न होगा कि अंतर्ग्रही आवागमन के लिए आवश्यकता सही काल गणना की पड़ती है। दक्षिण अमेरिका का सूर्य मन्दिर आदि से अन्त तक तत्कालीन पंचांग है, जिसमें 10 महीने 24 दिन के और दो महीने साठ−साठ दिन के हैं। उस हिसाब से भी सूर्यग्रहण चन्द्रग्रहण आदि का हिसाब ठीक बैठ जाता है। आकाश पर चढ़कर देखी जा सकने वाली चमकीली रेखाएँ इस तरह सही बनाई गई हैं जिससे उच्चस्तरीय कौशल भली प्रकार प्रकट होता है।

पिरामिडों के बारे में अब तक मात्र वास्तुकला पर ही आश्चर्य किया जाता था। पर पृथ्वी के सही अक्षांशों पर उनका निर्माण हुआ। ऐसी वस्तुओं का प्रयोग होना जो धरती के वातावरण का दबाव सहन कर लेती हैं, एक नयी बात है। पिरामिडों की छत में पाये जाने वाले छिद्र मात्र सूराख नहीं ग्रह तारकों की नाप−तौल करने के लिए सोद्देश्य विनिर्मित खिड़कियाँ हैं।

कुतुब मीनार का लोहा इस प्रकार बनाया गया है जिस पर धरती के मौसम का प्रभाव नहीं पड़ता। इस लोहे की लाट का टुकड़ा ऐसी ही धातु का बना हुआ है जो लाखों वर्ष पुराना हो जाने पर भी धरती के मौसम से प्रभावित नहीं हुआ है।

नील नदी के तटवर्ती क्षेत्र में इस तरह की आकृतियाँ पाई गई हैं जिनमें अन्तरिक्ष यानों और उनमें बैठकर आने जाने वालों के स्तर, डिजाइनों का पता चलता है। रूस में भी एक शिलाखण्ड पर ऐसी ही प्रतिमाओं का अंकन पाया गया है, जिससे अनुमान लगता है कि पृथ्वी और आकाश के बीच आवागमन में किस प्रकार वाहन, वस्त्र, उपकरण आदि का प्रयोग होता रहा होगा।

ईस्टर द्वीप में बनी हुई विशाल काय प्रतिमाएँ−उस वीरान जगह में कैसे बनी होंगी?, किस उद्देश्य के लिए बनाई गई होंगी?, इसकी संगतियाँ बिठाने से इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि इसके पीछे अंतर्ग्रही रहस्य हैं। कुछ समय पहले अमेरिका के सुविस्तृत क्षेत्र पर मोटी चिनगारियों की वर्षा हुई थी पर वे जमीन तक पहुँचने से पहले ही बुझ गईं। किसी का किसी प्रकार का नुकसान नहीं हुआ। इसे भी लोकोत्तर जीवधारियों का क्रियाकलाप माना गया था।

साइबेरिया के ऊपरी क्षेत्र में लगभग 3000 फूट ऊँचा एक विस्फोट हुआ था। जिसका प्रकाश तीन दिन हजारों मील के दायरे में छाया रहा। किन्तु उस गिरी हुई वस्तु का जमीन पर कोई अता−पता न लगा। उसकी झुलसन से पेड़-पौधे तथा प्राणी अवश्य नष्ट हो गए। अनुमान लगाया जाता है कि यह किसी अन्तरिक्ष यान की रास्ते में खराबी होकर गिरने का चिन्ह है।

ऐसी−ऐसी और भी कितनी ही कृतियां इस पृथ्वी पर पाई जाती हैं, जिससे प्रतीत होता है कि अब तक की विकसित सभ्यता के बलबूते ऐसे निर्माण कार्य बन नहीं सकते।

पौराणिक कथा गाथाओं में अन्तरिक्षीय आवागमन में अगणित प्रसंग हैं। नारद इस विद्या में प्रवीण माने जाते हैं। अन्य लोकवासियों पर मुसीबत आने पर अर्जुन, दशरथ आदि उनके आमन्त्रणों के सहारे पहुँचे हैं और अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के उपरान्त लौटकर वापस आये थे।

कुन्ती ने पाँच पुत्र देवता पाँच प्रमुख देवताओं के अनुग्रह से प्राप्त किये थे। सुर और असुर दो वर्ग के अतिमानव पृथ्वी पर अथवा उसके निकटवर्ती क्षेत्र में निवास करते रहे हैं। उनकी आकृति, प्रकृति, क्षमताएँ तथा विभूतियाँ−पृथ्वीवासियों की तुलना में कहीं अधिक थीं। इन कथनोपकथनों को यदि तथ्यपूर्ण माना जाय तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ेगा कि धरती के साथ−देवलोक वासियों के कुछ समय तक घनिष्ठ सम्बन्ध रहे हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि ब्रह्माण्डों में अरबों−खरबों लोकों में से कुछ हजार ऐसे अवश्य हो सकते हैं, जिनमें मनुष्य से तालमेल खाती हुई सभ्यताएँ रह रही हों और वे लोग पृथ्वी निवासियों को प्रगतिशील बनाने में समय−समय पर किसी न किसी प्रकार की सहायता करते रहें हों। सम्भव है, मनुष्य देवताओं का वंशज रहा हो।


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