विशेष धारावाहिक लेखमाला-1 - जिज्ञासा, संदेह और उसका समाधान

February 1985

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गुरुदेव की कलम से लिखी जा रही उनके दृश्य जीवन की ये अनुभूतियाँ इन्हीं पृष्ठों पर अगले कुछ अंकों में प्रकाशित की जाती रहेंगी। उनका जीवन एक खुली पुस्तक के समान रहा है। परन्तु इन सिद्धियों के स्वरूप एवं मर्म को जिस परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत होना था, अब तक हुआ नहीं। अब उस रहस्य के पर्दे को हटाया जा रहा है।

पौन शताब्दी से काया और चेतना के ईंट-गारे से बनी इस प्रयोगशाला में हम दत्त-चित्त होकर एक ही प्रयत्न करते रहे हैं कि अध्यात्म तत्वज्ञान की यथार्थता और प्रतिक्रिया वस्तुतः है क्या? विकसित बुद्धिवाद की दृष्टि में वह भावुकों का अन्धविश्वास और धूर्तों का जादुई व्यवसाय है। इसे उनका स्वनिर्मित जाल−जंजाल और बता दिया जाता तो हमें इतनी पीड़ा न होती जितनी कि उन्हें ऋषि प्रणीत, शास्त्र सम्मत और आप्तजनों द्वारा परिक्षित, अनुमोदित कहा जाता रहा है और साथ ही परीक्षा की कसौटी पर अप्रामाणिक भी ठहराया जाता है तो असमंजस का ठिकाना नहीं रहता। एक ओर चरम सत्य, दूसरी और पाखण्ड कहकर उसे विलक्षण स्थिति में लटका दिया जाता है, तो मन की व्याकुलता यह कहती है कि इस संदर्भ में किसी निर्णायक निष्कर्ष पर पहुँचा जाना चाहिए।

आज नास्तिकवादी ही उसका मजाक नहीं उड़ाते। आस्तिकवादी भी यही कहते हैं कि बताये हुए क्रियाकृत्यों को लम्बे समय तक करते रहने पर भी उनके हाथ ऐसा कुछ नहीं लगा जिस पर वे सन्तोष एवं प्रसन्नता व्यक्त कर सकें। ऐसा दशा में सिद्धांतों एवं प्रयोगों में कहीं−न−कहीं त्रुटि होनी चाहिए। इस त्रुटि का निराकरण करने एवं अध्यात्म की यथार्थता प्रकाश में लाने के लिए कुछ कारगर प्रयत्न होने ही चाहिए। इसे कौन करे? सोचा कि जब अपने को इतना लगाव है तो यह कार्य खुद अपने ही कंधों पर ले लेना चाहिए। अध्यात्म यदि विज्ञान है तो उसका सिद्धांत यथार्थता से जुड़ा होना चाहिए और परिणाम ऐसा होना चाहिए जैसा कि वैज्ञानिक उपकरणों का तत्काल सामने आता है। प्रतिपादन और परिणाम की संगति न बैठने पर लोग आडम्बर का लाँछन लगाएँ तो उन्हें किस प्रकार रोका जाय? यदि वह सत्य है तो उसका जो बढ़ा−चढ़ा माहात्म्य बताया जाता है, उससे अन्य अनेकों को लाभ ले सकने की स्थिति तक क्यों न पहुँचाया जाय?

अब तक का प्रायः पौन शताब्दी का हमारा जीवनक्रम इसी प्रकार व्यतीत हुआ है। इसे एक जिज्ञासु साधक का प्रयोग परीक्षण कहा जाय तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी।

घटनाक्रम पन्द्रह वर्ष की आयु से आरम्भ होता है, जिसे अब 60 वर्ष से अधिक हो चले। इससे पूर्व की अपरिपक्व बुद्धि कुछ कठोर दृढता अपनाने की स्थिति में भी नहीं और न ही मन में उतनी तीव्र उत्कंठा थी। आरम्भिक दिनों में उठती जिज्ञासा ने तद्विषयक अनेकों पुस्तकों को पढ़ने एवं इस क्षेत्र के अनेकों प्रतिष्ठित व्यक्तियों से पूछताछ करना आरम्भ कर दिया। इसमें सिद्धि सिध्याने की लिप्सा नहीं, वरन् तथ्यों को अनुभव में उतारने के लिए कठिन से कठिन प्रक्रिया अपनाने की साहसिकता थी। पूछताछ से−अध्ययन से समाधान न हुआ तो वह उत्कंठा अन्तरिक्ष में भ्रमण करने लगी और एक पारंगत समाधानी को सहायता के लिए ढूंढ़ लाई।

ब्राह्मण कुल में जन्म लेने और पौरोहित्य कर्मकाण्ड की परम्परा से सघन सम्बन्ध होने के कारण दस वर्ष की आयु में ही महामना मालवीय जी के हाथों पिताजी ने उपनयन करा दिया था और गायत्री मन्त्र की उपासना का सरल कर्मकाण्ड सिखा दिया है। इस गुह्य विद्या के अन्याय पक्ष तो हमें बाद के जीवन में विदित हुए। निर्धारित क्रम अपनी जगह ज्यों का त्यों करके चल रहा था और लक्ष्य तक पहुँचने का जिज्ञासा भाव क्रमशः अधिक प्रचण्ड हो रहा था। इसी उद्वेग में कितनी ही रातें बिना सोए निकल जातीं।

पूजा की कोठरी अलग एकान्त में थी। उस दिन ब्रह्म मुहूर्त में अपनी कोठरी दिव्य गन्ध और दिव्य प्रकाश से भर गई। माला छूट गई और मनःस्थिति तन्द्राग्रस्त जैसी हो गयी। लगा कि सामने पूर्व कल्पनाओं से मिलते−जुलते एक ऋषि खड़े हैं− प्रकाश पुंज के रूप में। इस दिव्य दर्शन ने घबराहट उत्पन्न नहीं की वरन् तन्द्रा सघन होती चली गईं और शरीराभ्यास लगभग छूटकर अपनी भी चेतना ही और चैतन्य होती चली गयी। प्रकट होने वाली सत्ता ने कुछ संक्षिप्त शब्द कहे− ‘‘तेरी पात्रता और इच्छा की हमें जानकारी है, सो सहायता के लिए अनायास ही दौड़ आना पड़ा। अपनी पात्रता को अधिक विकसित करने के लिए महाप्रज्ञा की एक समग्रता साधना कर डाल।’’ उनका तात्पर्य था, ‘‘गायत्री महामन्त्र का एक वर्ष में एक महापुरश्चरण करते हुए चौबीस वर्षों में चौबीस महापुरश्चरण सम्पन्न करना।’’ विधि−विधान उनने संक्षेप में बता दिया। यह अवधि जौ की रोटी और छाछ पर बिताने की आज्ञा दी ताकि इन्द्रिय संयम से लेकर अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम तक की समस्त मनोनिग्रह प्रक्रियाएँ सम्पन्न हो सकें और तत्वज्ञान धारण कर सकने की पात्रता परिपक्व हो सके। उनका संकेत था− ‘‘इतना कर सका तो आगे का मार्ग बताने हम स्वयं अबकी भाँति फिर आएंगे। इतना कहकर वे अन्तर्ध्यान हो गये।

जिज्ञासु का मस्तिष्क भगवान ने दिया है और उसमें तर्क बुद्धि की न्यूनता नहीं रखी है। आश्चर्य है कि इस स्तर की विचारणा के साथ−साथ उतनी ही प्रचण्ड श्रद्धा और संकल्प शक्ति का भण्डार कहाँ से और कैसे भर गया? दोनों दिशाएँ एक−दूसरे के विपरीत हैं, पर अपनी मानसिक बनावट में इन दोनों का ही परस्पर विरोधी समन्वय मिल गया। दूसरे दिन से वही चौबीस वर्ष की संकल्प साधना समग्र निष्ठा के साथ आरम्भ कर दी। कुटुम्बियों−सम्बन्धियों ने इसी प्रयोजन में 8 घण्टे नित्य बिताने की 24 वर्ष लम्बी प्रतिज्ञा की बात सुनी तो सभी खिन्न हुए। अपने−अपने ढंग से समझाते रहे। जौ पर निर्वाह इतने लम्बे समय तक शरीर को क्षति पहुँचाएगा। विद्या पढ़ना रुक गया तो भविष्य में क्या बनेगा। आदि आदि−। बहुत कुछ ऐसा सुनने को मिलता रहा। जिसका अर्थ होता था कि इतना लम्बा और कठोर साधन न किया जाय। पर अपनी जिज्ञासा इतनी प्रचण्ड थी कि अध्यात्म की तात्विकता को समझाने के लिए एक क्या ऐसे कई शरीर न्यौछावर कर देने का मनोबल उमंगता रहा और समझाने वालों को अपना निश्चय और अभिप्राय स्पष्ट शब्दों में कहता रहा है। घर में गुजारे के लायक बहुत कुछ था, सो उसकी चिंता करने की बात सामने नहीं आई।

एक−एक करके वर्ष बीतते गए। पूछने वालों को एक ही उत्तर दिया− ‘‘एक जुआ खेला है। इसको अन्त तक ही सम्भाला जाएगा। चौबीस वर्ष एक−एक करके इस प्रकार पूरे हो गए। सात घण्टे की नित्य प्रक्रिया से मन ऊबा नहीं। जौ की रोटी और छाछ का आहार स्वास्थ्य की दृष्टि से अपूर्ण और हानिकारक कहा जाता रहा, पर वैसा कुछ घटित नहीं हुआ। लम्बे समय तक लम्बी प्रक्रिया के साथ सम्पन्न करने का क्रम यथावत् चलता गया। उसमें ऊब नहीं आई। रुचि यथावत् बनी रही। इस अवधि में मनोबल घटा नहीं, बढ़ा ही। चौबीस वर्ष पूरे होने के दिन निकट आने लगे तो मन आया कि एक और ऐसा ही क्रम बता दिया जाएगा तो उसे भी इतनी ही प्रसन्नतापूर्वक किया जायेगा। परिणाम की कुछ और जन्मों तक प्रतीक्षा की जा सकती है।’’

यह पंक्तियाँ आत्म कक्षा के रूप में लिखी नहीं जा रही हैं और न उसके साथ अप्रासंगिक विषयों का समावेश किया जा रहा है। अध्यात्म भी विज्ञान है क्या? इस प्रयोग परीक्षण के संदर्भ में जो कुछ भी बन बड़ा है, उसी की चर्चा की जा रही है। ताकि अन्यान्य जिज्ञासुओं को भी कुछ प्रकाश और समाधान मिल सके।

इन 24 वर्षों में कुछ भी शास्त्राध्ययन नहीं किया और न समीप आने वाले विद्वान−विज्ञजनों से कोई चर्चा की। कारण कि इसमें निर्धारित दिशा और श्रद्धा में व्यतिरेक हो सकता था। जबकि अध्यात्म का मूलभूत आधार प्रचण्ड इच्छा और गहन श्रद्धा पर टिका हुआ था। दिशा विभ्रम से अन्तराल डगमगाने न लगे, इसलिए प्रयोग का एकनिष्ठ भाव से चलना ही उपयुक्त था और वही किया भी गया। मन दिन में ही नहीं, रात की स्वप्नावस्था में भी उसी राह पर चलता रहा।

नियत अवधि भारी नहीं पड़ी, वरन् क्रमशः अधिक सरस होती गई। समय पूरा हो गया। प्रकाश पुनः मार्ग−दर्शक का पहले जैसी स्थिति में फिर दर्शन हुआ। इसी प्रभात बेला में। देखते ही तन्द्रा आरम्भ हुई और क्रमशः अधिक गहरी होती गई। मूक भाषा में पूछा गया− ‘‘इन 24 वर्षों में कोई चित्र−विचित्र अनुभव हुआ हो तो बता?’’ मेरा एक ही उत्तर था− निष्ठा बढ़ती ही गयी है और इच्छा उठती रही है कि अगला आदेश हो और उसकी पूर्ति इससे भी अधिक तत्परता तथा तन्मयता को संजोकर किया जाय। आकाँक्षा तो एक ही है कि अध्यात्म आडम्बर है या विज्ञान?, इसकी अनुभूति स्वयं कर सकें। ताकि किसी से बलपूर्वक कह सकना सम्भव हो सके।

अपनी बात समाप्त हो गयी। मार्गदर्शक ने कहा− ‘‘विश्वास में एक पुट और लगाना बाकी है ताकि वह समुचित रूप से परिपक्व हो सके। इसके लिए 24 लाख आहुतियों का गायत्री यज्ञ करना अभीष्ट है।’’ मैंने इतना ही कहा कि ‘‘शरीरगत क्रियाएँ करना मेरे लिये शक्य है। पर इतने बड़े आयोजन के लिए जो राशि जुटाई जाएगी और प्रबन्ध में असाधारण उतार−चढ़ाव आयेंगे, उन्हें कर सकना कैसे बन पड़ेगा? निजी अनुभव और धन इस स्तर को है नहीं। तब आपका नया आदेश कैसे निभेगा?’’

मन्द मुस्कान के बीच उस प्रकाश पुनः ने फिर कहा कि− ‘‘विश्वास की कमी रही न? हमारे कथन और गायत्री के प्रतिफल से क्या नहीं हो सकता? इसमें सन्देह करने की बात कैसे उठ पड़ी? यही कच्चाई है, जिसे निकालना है। शत−प्रतिशत श्रद्धा के बल पर ही परिपक्वता आती है।’’

मैं झुक गया और कहा− ‘‘रूपरेखा बता जाइये। मैं ऐसे कामों के लिए अनाड़ी हूँ।’’ उन्होंने संक्षेप में, किन्तु समग्र रूप में बता दिया कि ‘‘एक हजार कुण्डों में 24 लाख आहुतियों का गायत्री यज्ञ कैसा हो? इन दिनों जो प्रमुख गायत्री उपासक हैं, उन्हें एक लाख की संख्या में कैसे निमन्त्रित किया जाय? मार्ग में आने वाली कठिनाइयाँ अनायास ही हल होती चलेंगी।’’

दूसरे दिन से वह कार्य आरम्भ हो गया। कार्तिक सुदी पूर्णिमा सम्वत् 2015 का मुहूर्त था। चार दिन पहले आयोजन आरम्भ होना था। एक लाख आगन्तुक और इससे दूने−तीन गुने दर्शकों के लिए बैठने, निवास करने, भोजन, राशन, लकड़ी, सफाई, रोशनी, पानी आदि के अनेकानेक कार्य एक दूसरे के साथ जुड़े हुए थे। जैसे मन में आया, वैसा ढर्रा चलता रहा। आगन्तुकों के पते कलम अपने आप लिखती गई। आयोजन के लिए छह सात मील का एरिया आवश्यक था। वह कहीं खाली मिल गया, कहीं माँगने पर किसानों ने दे दिया। जिनके पास डेरे, तम्बू, राशन, लकड़ी, कुओं में लगाने के पम्प−जनरेटर आदि थे, उन सभी ने देना स्वीकार कर लिया। एडवाँस माँगने का ऐसे कामों में रिवाज है, पर न जाने कैसे लोगों का विश्वास जमा रहा कि हमारा पैसा मिल जायेगा। न किसी न देने के लिये कहा और न ही दिया गया। पूरी तैयारी होने में एक महीने में भी कम समय लगा। सहायता के लिए स्वयंसेवकों का अनुरोध छापा गया तो देखते देखते वे भी 500 की संख्या में आ गए। सभी ने मिल-जुलकर काम हाथों में ले लिया।

नियम समय पर निमन्त्रित गायत्री उपासकों की एक लाख की भीड़ आ गई। उनके साथ ही दर्शकों के हुजूम थे। अनुमान दस लाख आगन्तुकों का किया जाता है। स्टेशनों पर अन्धाधुन्ध भीड़ देखी गयी और बस स्टैण्डों पर भी वही हाल। भले अफसरों ने स्पेशल ट्रेनें और बसें छोड़ना आरम्भ किया। मथुरा शहर से चार मील दूर यज्ञ स्थल था। अपने−अपने बिस्तर सिर पर लादे सभी आते चले जाते थे। एक लाख के ठहरने का प्रबन्ध किया गया था पर उसी में चार लाख समा गए। भोजन के लंगर चौबीस घण्टे चलते रहे। किसी को भूखे रहने की, छाया न मिलने की शिकायत न करनी पड़ी। कुओं में पम्प वालों ने अपने पम्प लगा दिए। बिजली कम पड़ी तो दूर−दूर कस्बों तक से गैस बत्तियाँ आ गईं। टट्टी−पेशाब और स्नान की समस्या सबसे अधिक पेचीदा थी। वह इतनी सुव्यवस्था से सम्पन्न हो गयी, कि देखने वाले चकित रह गए।

जंगल में पैसा पास न रखने एवं अमानत रूप में दफ्तर में रखने का ऐलान किया गया। फलतः अमानतें जमा होती चली गयीं। सब कुछ व्यवस्था से था। किसी का एक पैसा न खोया। देखने वाले इस आयोजन की तुलना इलाहाबाद के कुम्भ मेले से करते थे। पर पुलिस या सरकार का एक आदमी न था। लोगों ने अपनी ओर से डिस्पेन्सरियाँ, प्याऊ व स्वल्पाहार केन्द्र खोल रखे थे। सात मील का एरिया खचाखच भरा हुआ था। यज्ञ नियत समय पर विधिवत् होता रहा। यज्ञशाला की परिक्रमा करने तीन−पचास मील दूर से अनेकों बसें आई थीं। पूर्णाहुति के दिन हम और हमारी धर्मपत्नी हाथ जोड़कर तख्त पर खड़े रहे। सभी से प्रसाद लेकर (भोजन करके) जाने की प्रार्थना की। न जाने कहाँ से राशन आता गया। न जाने कौन उसका मूल्य चुकाता गया। न जाने किसने इतने बड़े राशन के पर्वत को खा−पीकर समाप्त कर दिया।

सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह कि न किसी का एक पैसा खोया न किसी को चोट लगी, न किसी को ढूढँना−खोजना पड़ा। पैसा कहीं से आता व कहीं से जाता रहा। अन्त में खेरीज की कुछ बोरियाँ शेष रह गयी थीं, जिससे क्षेत्र की सफाई की व्यवस्था कर दी गयी। स्वयं सेवकों को टिकट दिला दिये गये। बचना तो क्या था, पर घटा कुछ नहीं। लोग कहते थे− रेत के बोरे आटा बन जाते हैं, पानी का घी बन जाता है, यह किंवदंती यहाँ सही होती देखी गयी। कुम्भ मेलों जैसी संरक्षकों, बजट, टैक्स आदि की यहाँ कोई व्यवस्था न थी। फिर भी सारी व्यवस्था वहाँ सुचारु रूप से ऐसे चल रही थी, मानों किसी यन्त्र पर सारा ढर्रा घूम रहा है।

मथुरा के इर्द−गिर्द सौ−सौ मील तक यह चर्चा फैल गयी कि महाभारत के बाद इतना बड़ा यज्ञायोजन इसी बार हो रहा है। जो उसे देख न सकेंगे, जीवन में दुबारा ऐसा अवसर न मिल सकेगा। इस जन श्रुति कारण आदि से अन्त तक प्रायः दस लाख व्यक्ति उसे देखने आए। आयोजन समाप्त होने के बाद भी तीन दिन तक परिक्रमा चलती रही। कुण्डों की भस्म लोग प्रसाद स्वरूप झाड़−झाड़ कर लेकर गए।

वस्तुतः आयोजन हर दृष्टि से अलौकिक दर्शनीय था। हजार कुण्ड की भव्य यज्ञशाला। एक लाख प्रतिनिधियों के बैठने लायक पण्डाल, 24 घण्टे चलने वाली भोजन व्यवस्था, रोशनी, पानी, बिछावट−जिधर भी दृष्टि डाली जाय, आश्चर्य लगता था। सात मील का पूरा क्षेत्र ठसाठस भरा था। लोकसभा अध्यक्ष अनन्त शयनम आयंगर उसका उद्घाटन करने आये थे। पूर्णाहुति के बाद भी तीन दिन तक आगन्तुक भोजन करते रहे। अक्षय भण्डार कभी चुका नहीं। जो आरम्भ में आए थे, उनने जाते ही अपने क्षेत्रों में चर्चा की और बसों−बैलगाड़ियों की भीड़ बढ़ती चली गयी। भीड़ और भव्यता देखकर हर आगन्तुक अवाक् रह जाता था। ऐसा दृश्य वस्तुतः इन लाखों में से किसी ने भी इससे पूर्व देखा न था।

यह गायत्री महा−पुरश्चरण के जप-तप, साधन एवं पूर्णाहुति यज्ञ की चर्चा हुई। सबसे बड़ी उपलब्धि इस आयोजन की यह थी कि आमन्त्रित किन्तु अपरिचित गायत्री उपासकों में से प्रायः एक लाख हमारे मित्र सहयोगी एवं घनिष्ठ बन गए। कंधे से कन्धा और कदम से कदम मिलकर चलने लगे। गायत्री परिवार का इतना व्यापक गठन देखते−देखते बन गया और नवयुग के सूत्रपात का क्रिया−कलाप इस प्रकार चल पड़ा मानों उसकी सुनिश्चित रूपरेखा किसी ने पहले से ही बनाकर रख दी हो। (क्रमशः)


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