मानवी काया की चेतन सत्ता का वैज्ञानिक विवेचन

February 1985

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पिण्ड रूप में समष्टि चेतन सत्ता के एक घटक मानवी काया के स्थूल दृश्यमान रूप को सभी जानते हैं। बहुरंगी बहुमुखी क्रियाकलाप नजर आने के कारण उसकी महत्ता भी सब को समझ में आती है। यही कारण है कि किसी अंग अवयव के व्याधिग्रस्त होने पर लोग−बाग दौड़−धूप करते व भाँति−भाँति के उपचारों में लगे देखे जाते हैं। आत्मिकी का सारा ढाँचा इस स्थूल दृश्यमान कायकलेवर पर नहीं, अपितु सूक्ष्म रूप से क्रियाशील चेतना की विभिन्न परतों पर अवलम्बित है, उन्हीं से विनिर्मित है। वे प्रत्यक्ष नजर तो नहीं आतीं पर स्फुट रूप से अपनी गतिविधियों की एक झलक झाँकी स्थूल काया के माध्यम से ही दर्शाती रहती हैं।

अस्तु अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करने वाले अथवा ब्राह्मी चेतना से संपर्क स्थापित कर उस विराट् की खोज हेतु उत्सुक जिज्ञासुओं के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि उस सूक्ष्म चेतन सत्ता की संरचना, विलक्षणता एवं क्रियाकलापों को भली भाँति समझें। इस संबंध में वीरभद्र प्रकरण में पंचकोशों की चर्चा गत दो अंकों से की जाती रही रही है। इस संदर्भ में यह भली प्रकार समझ लिया जाना चाहिए कि स्थूल से सूक्ष्म की संगति बिठाने का जो प्रयास किया जाता है, वह प्रत्यक्षवादी तथ्यान्वेषी बुद्धि के लिये समाधान परक संकेत मात्र है। आत्म सत्ता की प्रयोगशाला में कार्यरत योग साधकों को इन संकेतों के माध्यम से समझने की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे स्वयं पर प्रयोग कर इसे प्रत्यक्ष कर दिखाते हैं। प्रदर्शन से अधिक महत्वपूर्ण है−अनुभूति। जो इन सूक्ष्म चेतन परतों को एक−एक कर अनावृत्त करते हैं, वे क्रमशः उसी अनुपात में लाभान्वित होते, विराट् सत्ता से तादात्म्य स्थापित करते देखे जा सकते है।

जिन पाँच सूक्ष्म चेतन परतों की चर्चा की जा चुकी है, वे इस प्रकार हैं−हारमोन्स एवं एन्जाइम्स के रूप में क्रियाशील अन्नमय कोश, जैव विद्युत के रूप में क्रियाशील द्वितीय प्राणमय कोश, जैव चुम्बकत्व के रूप में क्रियाशील तृतीय मनोमय कोश, स्नायुरस स्रावों (न्यूरोह्यूमरल सिक्रीशन्स) के रूप में सक्रिय चतुर्थ विज्ञानमय कोश एवं रेटिकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम तथा कार्टिकल न्यूकलाई के रूप में विद्यमान आनन्दमय कोश। पंचकोश के संदर्भ में स्थूल दृष्टि से कार्य कर रहे, अपनी उपस्थिति का बोध कराते जिन एनाटामिकल संरचनाओं की चर्चा की गयी, वे उसी स्थान पर गतिशील हों, यह बात नहीं। इन्हें इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप इत्यादि के माध्यम से पिनप्वाइंट भी नहीं किया जा सकता। मात्र इनकी परिणतियों−स्थूल प्रतिक्रियाओं से जागरण की फलश्रुति को जाना−समझा जा सकता है।

यों पिचहत्तर हजार अरब जीवकोशों के समुच्चय से बनी मानवी काया में अनेकों स्वतन्त्र शक्तियाँ क्रियाशील रहती हैं। न्यूकलीय अम्लों, जीन्स एवं क्रोमोसोम के रूप में कार्यरत प्रजनन एवं आनुवाँशिकी रूपी सृजनात्मक शक्ति उन्हीं में से एक है। जैव विद्युत एवं जैव चुम्बकत्व से ही जुड़ी हुई एक और शक्ति पुँज है जीवनी शक्ति के रूप में। प्रतिरोधी संस्थान के रूप में विद्यमान यह संरचना शरीर की प्रतिकूलताओं से जूझने की सामर्थ्य−प्राणशक्ति का एक सम्बल है। ये सभी ऐसे हैं, जिन्हें स्थूल रूप से रक्त में, स्नायुरस स्रावों में, टीश्यू हिस्टोलाँजी के माध्यम से एवं इलेक्ट्रोमीटर इलेक्ट्रोएनसेफेलोग्राफ, मैग्नेटोग्राफ रेडियो इक्यूनोएसे इत्यादि माध्यम से जाँचा−मापा जा सकता है। यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि ये मात्र सूक्ष्म की स्थूल में दृश्यमान प्रतिक्रियाएँ हैं। अमुक व्यक्ति में उपरोक्त शक्तिपुंजों का होना यह प्रामाणित नहीं करता कि वह उच्चस्तरीय साधक है। परन्तु उनके परिमाण, प्रखरता समुच्चय में अभिवृद्धि यह संकेत देती है कि सूक्ष्म आध्यात्मिक काय संरचना में क्रमशः जागृति आ रही है व इसके परिणाम स्वरूप चमत्कारी फलश्रुतियाँ प्रकट होने की संभावनाएँ हैं।

कुण्डलिनी जागरण, षट्चक्र भेदन, योगत्रयी, पंचकोश जागरण, सूक्ष्मी करण इत्यादि सभी साधनाओं में अनेकों दृष्टि से साम्य है। इन सभी में स्थूल चेतना को सूक्ष्म बनाया एवं ध्यान योग के माध्यम से उसका सुनियोजन किया जाता है। माध्यम कुछ भी हो, लक्ष्य एक ही है− अन्तः की प्रसुप्त सामर्थ्य का उभार−जागरण−उन्नयन। यह कैसे सम्भव हो पाता है, इसे सूक्ष्म संरचना के परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए। यह विवरण गुह्य है, रहस्यमय है एवं रोचक भी। विशेषकर इस क्षेत्र में प्रवेश कर उत्कर्ष के मार्ग पर बढ़ने की इच्छा रखने वालों के लिए जानने समझने योग्य है।

स्थूल सत्ता पर सूक्ष्म के नियन्त्रण का प्रमाण अन्तःस्रावी ग्रन्थियों−हारमोन्स के अदृश्य क्रियाकलापों को माना जा सकता है। शरीर विज्ञानी तो उनके रोग परक असामान्य (पैथालाजीकल) पक्ष को ही अधिक जानते वह ऊहापोह करते दिखाई देते हैं। परन्तु शरीर का यह रसायन शास्त्र और भी विलक्षण है, एवं चेतना के स्तर को सामान्य से असामान्य की ओर ऊँचा उठा कर ले जाने वाली विद्या है। जब से भ्रूण का गर्भाशय में विकसित होना आरम्भ होता है, तब से ही ये हारमोन्स गतिशील हो जाते हैं। यहाँ तक कि गर्भाशय में शुक्राणु के निषेचन एवं स्थापन के लिये आवश्यक विद्युत रासायनिक एवं संरचनात्मक कार्यवाही भी माता के हारमोन्स द्वारा संचालित होती है। आनुवांशिकता के माध्यम से संस्कारों के स्थानान्तरण आदि की प्रक्रिया इसी समय सम्पन्न होती है। शरीर, मन, व्यक्तित्व, स्वभाव आदि का निर्धारण यहीं होता है।

जब सभी अंग अवयवों रूपी वैभव से अभिपूरित जीव सत्ता अपना भ्रूण काल पूरा कर कणों−प्रतिकणों एवं आयन मण्डल से लिपटी बहिरंग दुनिया में प्रवेश करती है, तो नवीन परिवर्तनों, प्रतिकूलताओं से निपटने में यही सूक्ष्म रसस्राव अपनी भूमिका निभाते हैं। शरीर की आकृति, अंगों का विकास इत्यादि तो इन पर निर्भर है ही, प्रकृति रुझाव−चिन्तन−क्रियाकलापों की डोर भी इन सूक्ष्म रसस्रावों के मजबूत हाथों में है। पीनियल, पीटुटरी, थायराइड, पैराथायराइड, थाइमस, एडरीनल्स एवं गोनेड्स नाम से ये सात ग्रन्थि समूह काया के शिखर स्थल से पेडू तक उत्तरी ध्रुव से लेकर दक्षिणी ध्रुव तक विद्यमान होते हैं एवं शरीर के सभी जैव रासायनिक क्रियाकलापों पर अपना कठोर नियन्त्रण रखते हैं। यौन-विकास, दृष्टिकोण का परिष्कार, पुंसकत्व एवं कामेच्छा पर नियन्त्रण इन ग्रन्थि समूहों के आधार पर ही बन पड़ता है। स्थूल स्तर की आहार−विहार की एवं बंध, मुद्रा, आसन जैसी सूक्ष्म काय संस्थान को प्रभावित करने वाली साधनाएं हारमोन्स को सीधे प्रभावित कर उच्चस्तरीय साधना हेतु अभीष्ट सक्षमता प्रदान करती है। बहिरंग की दृष्टि से कितना ही सुन्दर, आकर्षक कोई क्यों न हो, जब तक उसके अन्तरंग में सक्रिय−रक्त में घुले हारमोन्स का स्तर नहीं, बदला जाता, वह भावनात्मक एवं आत्मिक दृष्टि से अपरिपक्व ही रहेगा। शारीरिक अंगों की असामान्यता जो होगी, वह अलग से विद्यमान रहेगी।

एस्ट्रोकेमीस्ट्री एवं कास्मोबायोलाजी के विद्वानों ने ब्राह्मी चेतना का व्यष्टि चेतना से संबंध इन ग्रन्थि समूहों के माध्यम से होता बताया है। वे सूर्य की पीनियल से चन्द्र की पीटुटरी से, मंगल की पैराथायराइड से, बुध की थाइराइड से, बृहस्पति की एड्रीनल्स से तथा शुक्र की गोनेड्स से संगति बैठाते हैं। यह कहाँ तक सही है, कहना कठिन है। किन्तु यह स्पष्ट है कि व्यष्टि सत्ता समष्टिगत चेतना से निश्चित ही प्रभावित होती है। एवं अपनी सामर्थ्य का बहुत−सा अंश साधना−उपादानों के माध्यम से इस अविज्ञात शक्ति समुच्चय से खींचती है।

जैवविद्युत एवं प्राण संस्थान जिसे थियोसाफी में “इथरीक डबल” नाम दिया गया है, परस्पर गुँथे हुए हैं। हर जीवकोश, ऊतक एवं अंग अवयव विद्युत शक्ति से अभिपूरित हैं। बाह्यजगत में फोटॉन कणों की प्रकाश की गति से चलने वाले कणों के रूप में परिकल्पना को अब प्रामाणित किया जा चुका है। ऐसे ही प्रकाशाणुओं के आयन्स जीवकोशों में होते हैं। शरीर संस्थान की छोटी से छोटी इकाई न्यूकलीय अम्लों से बने जीन्स हैं। ये भी विद्युत आवेश से भरे होते हैं। सोडियम पम्प के माध्यम से जीव कोशों का धन−ऋण आवेश बदलता व क्रमशः विद्युत संचार होता चला जाता है। ए. डी. पी., ए. टी. पी. सिम्टम एवं साहक्लिक ए. एम. पी. आदि ऐसे ही सूक्ष्म स्तर पर क्रियाशील विद्युत रासायनिक प्रक्रियाएँ हैं जो शरीर के अंग प्रत्यंग में हो रही विभिन्न गतिविधियों के लिए उत्तरदायी हैं।

जैव विद्युत का उपपाचय (इलेक्ट्रीकल मेटाबॉलिज्म) किस प्रकार होता है, इसकी एक झलक आज से बीस वर्ष पूर्व डा. फ्रेड व्लेस द्वारा किये गये अध्ययन में दिखाई देती है। इस विश्लेषण के अनुसार हर जीवधारी वायुमण्डल से ऋण विद्युत आयन्स श्वास द्वारा अन्दर खींचता है। ये आयन्स सारे शरीर को विद्युतमय बना देते हैं। त्वचा के माध्यम से ये फिर सारे वातावरण में फैल जाते हैं। यह एक प्रकार का विद्युत चक्र है। ऋण विद्युत फेफड़ों द्वारा अवशोषित की जाती है एवं त्वचा द्वारा निष्कासित कर दी जाती है। आधुनिकतम उपकरणों ने अब इस जानकारी को और विशद बना दिया है। पीजो, पायरो एवं मेटाबॉलिक विद्युत के माध्यम से मनुष्य जैव विद्युत का एक पुँज, जीते जागते बिजलीघर के रूप में देखा जा सकता है। शरीर के अनेकों ऊतक ऐसे विशिष्ट क्रिस्टल्स के रूप में कार्य करते देखे जा सकते हैं जो “सॉलीड स्टेट फिजीक्स” में ट्रांसड्यूसर्स की भूमिका मानी जाती है। यह भी पाया गया है कि शरीर के हर कार्बोनिक अणु में विद्युत संधारण की क्षमता होती है। प्राण संस्थान की इस विशेषता को अपवाद रूप में किसी व्यक्ति में अनायास ही जागृत होते देखा जा सकता है। किन्तु साधना प्रक्रिया द्वारा शरीर स्थिति प्राण प्रवाह को जागृत एवं प्रचण्ड बना सकना संभव है। यह विद्युत ऊर्जा सामान्यतः चमक, ताजगी, उत्साह, स्फूर्ति के रूप में क्रियाशील देखी जा सकती है। प्रतिरोधी सामर्थ्य का मूल आधार यही जीवनी शक्ति है। एवं सोऽहम् की हंस योग साधना इत्यादि द्वारा इस सामर्थ्य में अभिवृद्धि की जा सकती है। साधक के रोम−रोम से इसे फूटते देखा जा सकता है। वाणी के माध्यम से यही जैव विद्युत सक्रिय होती एवं व्यक्तियों तथा वातावरण को प्रभावित करती है।

जैव चुम्बकत्व एवं जैव विद्युत में अन्तर इतना ही है कि दोनों भिन्न−भिन्न अवस्थाओं में क्रियाशील शरीर की शक्तियाँ हैं जिनमें शरीर संचालन के अतिरिक्त बहिरंग को वातावरण को प्रभावित करने की सामर्थ्य होती है। प्रभा मण्डल, ओरा, सायकिक हीलिंग, प्राण प्रहार, वासिंग, गेजिंग हिप्नोटिज्म, शक्तिपात जैव चुम्बकत्व से संबंधित प्रक्रियाएँ हैं जिन्हें योगीजनों द्वारा सम्पन्न करते देखा जाता है। हृदय के आस-पास जो चुम्बकीय क्षेत्र बनता है उसे मैग्नेटोकार्डियोग्राम द्वारा वैज्ञानिकों ने नापा व इसे 5×10” टेस्ला इकाई के समकक्ष पाया है। एक स्क्वीड नामक यंत्र के माध्यम से हर पल प्राण प्रवाह द्वारा बदलती चुंबकीय धारा एवं क्षेत्र को अति सूक्ष्म मात्रा तक नापा जा सकता है। अब इसी यंत्र से मानवी काया के डायपोल मैग्नेट सुषुम्ना के दोनों ध्रुवों सहस्रार−ब्रह्मरंध्र एवं मूलाधार के आस−पास चुम्बकीय क्षेत्र को भी मापा जा सकना सम्भव हो सका है। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि उत्तरी ध्रुव पृथ्वी के दो ध्रुवों की तरह अवशोषण की एवं दक्षिणी ध्रुव निष्कासन की भूमिका निभाता है। अब एम. ई. जी. (मैग्नेटोएनसेफेलोग्राम) के द्वारा यह भी देखा जा सकता है कि डी. सी. पोटेन्शियल्स के कारण कितना चुम्बकत्व शिखा स्थान के आस−पास एवं मूलाधार केन्द्र के आस−पास विद्यमान है। जैव-चुम्बकत्व ध्यान योग के विभिन्न उपादानों के द्वारा बढ़ाया जा सकता है एवं यही मनोमय कोश की जागृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ऐसी स्थिति तक पहुँचे साधक भावयोग की उच्च कक्षा में प्रवेश करते हैं, साथ ही अपनी सम्मोहक सामर्थ्य से अन्यान्यों को प्रभावित करते, अपनी शक्ति का अंश सुपात्रों को देते हैं। एकाग्रता सम्पादन द्वारा वे उन कार्यों को अल्पायु में ही कुशलतापूर्वक कर लेते हैं, जो प्रतिभा, स्मरण शक्ति, संकल्पशक्ति से संबंधित हैं।

स्नायु रसायन मस्तिष्क एवं सुषुम्ना के नाड़ी संस्थान में क्रियाशील वे रसस्राव हैं जो सक्रिय होने पर इन्द्रियों में सीमाबद्ध मानसिक चेतना को अतीन्द्रिय स्तर तक पहुँचा देते हैं ‘‘न्यूरोह्यूमरल सिक्रीशन्स” नाम से जाने जाने वाले ये रसस्राव वैज्ञानिकों द्वारा अभी−अभी जाने पहचाने गये हैं किन्तु इनकी प्रतिक्रियाओं का अतीन्द्रिय क्षमता के रूप में उभार शास्त्र वचनों एवं प्रतिपादनों में देखने को मिलता है। साधना का स्तर जैसे−जैसे सूक्ष्म प्रखर होता जाता है, सीढ़ियाँ उतनी ही ऊँची साधक चढ़ता चला जाता है। विज्ञानमय कोश जागरण की साधना ऐसी ही है जो इन रसस्रावों से संबंधित है। डोपामीन, एसिटील कोलीन, गाबा, सिरोटोनिन, एन्डार्फिन्सएनकेफेलीन्स के रूप में विद्यमान ये स्नायु रसायन एकाग्रता, प्रसन्नता, भावप्रवणता, आनंदानुभूति, जागृति, स्फूर्ति, स्मरण शक्ति, मेधा इत्यादि विशेषताओं से संबंधित हैं। ध्यान योग की उच्चस्तरीय साधनाएं सीधे इनके रसस्राव को प्रभावित करती व साधक में उपरोक्त विशेषताओं को उभारती हैं। विभिन्न मुद्रा, बंध, आहार−विहार के नियमों व नियम ध्यानयोग की साधना में सहायक भूमिका निभाते हैं। अतीन्द्रिय सामर्थ्यों में विचार संप्रेषण, दूर श्रवण, दूर−दर्शन, पदार्थ हस्तान्तरण आदि अनेकों आती हैं पर इनका सुनियोजित उपयोग अध्यात्म क्षेत्र के जो साधक करते हैं वे चमत्कारी प्रदर्शनों में स्वयं को उलझाते नहीं। वे इनको लौकिक प्रयोजनों में नष्ट भी नहीं करते। स्नायुकोशों की जागृति के फलस्वरूप जो भी प्रतिक्रियाएं होती हैं वे उससे भली−भाँति अवगत होते हैं एवं इस उपलब्धि का प्रयोग लोकोपयोगी प्रयोजन हेतु ही होने देते हैं। चेतना के चतुर्थ आयाम की यह वह स्थिति है जिसमें विभूतियाँ अनायास ही हस्तगत हो जाती हैं। वैज्ञानिकों मनीषियों के आविष्कारों−रचनाओं को इस संदर्भ में देखा जा सकता है।

चेतना का पांचवां व अंतिम महत्वपूर्ण आयाम है− रेटिकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम एवं थेलिमिल−कार्टिकल न्यूकलाई के रूप में विद्यमान मस्तिष्क के ऊर्ध्व केन्द्र पर अवस्थित आनन्दमय कोश। इसके विषय में पहले भी बहुत कुछ कहा जा चुका है परन्तु जैसे−जैसे मेडिकल इलेक्ट्रॉनिक्स ने प्रगति की है, मस्तिष्क के इस संस्थान के संबंध में जो चेतनता बनाए रखने के लिए उत्तरदायी माना जाता है, जानकारी और बढ़ी है। प्रायोगिक रूप से इलेक्ट्रोडों के माध्यम से सुषुम्ना के ऊर्ध्व भाग में स्थित इस विद्युत्स्फुल्लिंग के फव्वारे के विषय में जितना भी कुछ पता चला है, वह विलक्षण है। मस्तिष्क के विभिन्न कार्टीकल न्यूकलाई प्रसुप्त अचेतन को सचेतन एवं सुपरचेतन में परिवर्धित करने की क्षमता रखते हैं, बशर्ते उन्हें थेलेमीक प्रोजेक्शन के माध्यम से तन्तुजाल से विनिर्मित “रेटिकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम” से उत्तेजन मिलता रहे। यह कार्य उच्चस्तरीय ध्यान साधना से सम्भव हो पाता है। निदिध्यासन, ध्यान धारणा, प्रत्याहार, समाधि की अवस्था में ये केन्द्र जाग्रत होते एवं सूक्ष्म “माइजेन” कणों एवं न्यूट्रीनो कणों के माध्यम से व्यष्टि चेतना का समष्टि चेतना से संपर्क स्थापित कर देते हैं। चेतना की सर्वोच्च स्थिति आनन्दमय कोश के जागरण की स्थिति में आती है। मस्तिष्क नहीं, मन में संव्याप्त चेतना के ऊर्ध्वीकरण का यह सोपान जब पूरा हो जाता है, पंचकोशी साधना समग्र हुई मानी जाती है।

यह सब कुछ जितने विज्ञान सम्मत ढंग से प्रतिपादित करने का प्रयास किया गया है, तथ्यतः प्रक्रिया उससे भी अधिक जटिल है। ब्रह्मरंध्र−सहस्रार की स्थिति तक पहुँचने पर “अयमात्मा ब्रह्म”, सच्चिदानंदोऽहम् की जिस परिणति तक साधक पहुँच पाता है, उसका वर्णन शब्दों में व्यक्त कर पाना सम्भव नहीं। (क्रमशः)


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