ईश्वर का युवराज-ज्येष्ठ पुत्र-मनुष्य

August 2003

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मनुष्य परम सत्ता का साकार रूप है। वह परमात्मा का अंशावतार है। मनुष्य सृष्टि की सर्वोत्कृष्ट एवं महान् कृति है। परब्रह्म का समस्त रहस्य एक उसी में समाहित है। क्योंकि नर ही नारायण के समीप एवं निकट है, मानव ही देवत्व का सच्चा प्रतीक प्रतिनिधि है। वह ‘स्व’ की गहराई में उतरकर ही आत्मदर्शन कर सकता है तथा ‘स्व’ का विस्तार कर गूढ़-गहन सृष्टि के रहस्य को अनावरण भी कर सकता है। ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का भी वही एक मात्र अधिकारी है। अतः मानव का लक्ष्य भी महान् है। उसका चरम लक्ष्य है आत्मकल्याण एवं जगत् सेवा का उदार भाव।

मानव सर्वश्रेष्ठ है एवं उसका लक्ष्य भी परम है। मानव श्रेष्ठता का अनुभव करते हुए ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में ईश्वर के पुरुष संज्ञा का प्रयोग किया गया है। तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री के अनुसार मानव की दिव्यता को अभिव्यक्त करने के लिए वेदों को ‘मनुष्य या पुरुष’ शब्द से अधिक उपर्युक्त अन्य कोई शब्द नहीं मिला। श्रीमद्भागवद् में ‘दुर्लभो मानुषो देहा’ कहकर मानव का महिमागान किया गया है। जैन दर्शन में मानव जीवन को शुभ लक्षण बताया गया है। बौद्ध धर्म में भी मानव को देवोपम मानकर मानव शरीर को अति उत्तम कहा गया है। इसके अनुसार मानव रूप प्राप्त होने पर ही सत्य ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है। बाइबिल की मान्यता है कि मनुष्य ईश्वर की सबसे प्यारी संतान है। कुरान के अनुसार इंसान अल्लाह का बंदा है तथा उसने इंसान को सर्वश्रेष्ठ ढंग से गढ़ा एवं निर्माण किया है।

आचार्य शंकर ने माना है कि ‘मनुष्यत्वः, मुमुक्षत्वं तथा महापुरुष संश्रय’ इन तीनों में मनुष्यत्व प्रधान एवं प्रमुख है क्योंकि मनुष्य देह की प्राप्ति हुए बिना मुक्ति की अभीप्सा नहीं जागती एवं सद्गुरु का आश्रय नहीं मिलता है। युगद्रष्टा विश्वविश्रुत स्वामी विवेकानन्द के अनुसार मानव जीवन बड़ा श्रेष्ठ है। वह पशुता मानवता और देवत्व का संयोग है। वह कहते हैं कि मनुष्य एक ऐसा असीम वृत्त है जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है परन्तु जिसका केन्द्र एक स्थान है और परमेश्वर एक ऐसा असीमवृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है परन्तु जिसका केन्द्र सर्वत्र है। वह आगे और भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं - यदि मनुष्य अपनी आत्मचेतना को अनन्तगुणी कर ले तो वह ईश्वर रूप बन सकता है और सम्पूर्ण विश्व पर अपना अधिकार चला सकता है। मनुष्य की श्रेष्ठता तभी तक है जब तक वह प्रकृति से ऊपर उठने के लिए संघर्ष करता है। यह प्रचण्ड पुरुषार्थ ही उसकी श्रेष्ठता का प्रतीक है।

महर्षि अरविन्द के अनुसार मनुष्य के अन्दर देवत्व एवं दिव्यत्व दोनों निहित हैं और उसकी अभिवृद्धि करना ही उसका दिव्य लक्ष्य है। इस भाव को शब्द देते हुए वह कहते हैं कि मानव सान्त और अनन्त के अचेतन समागम की पावन भूमि है और उसे इस भौतिक जीवन में ही, इस मानव देह में ही उस अनन्त ब्रह्म की ओर अधिकाधिक विकसित होने का विशेषाधिकार प्राप्त है। वह मानते हैं कि मनुष्य एक असामान्य जीव है। वह अपने वर्ग में भले ही सामान्य जान पड़ता हो परन्तु ऐसा है नहीं। उसकी यह सामान्य अवस्था एक तरह की अल्पकालीन एवं क्षणिक व्यवस्था मात्र है। मानव विकास क्रम की अन्तिम सीमा नहीं है। वह एक संक्रमणकालीन जीव है, जिसमें नये मानव का जन्म होने वाला है, अतिमानव का अवतरण होने वाला है। मनुष्य स्वयं एक विचारशील, सजीव प्रयोगशाला है, जिसके सचेतन सहयोग से प्रकृति देवता को, अतिमानव को, परमदेव को अभिव्यक्त करना चाहती है। मनुष्य को भगवद् प्रदत्त यह दिव्य उपहार एक विशेष कृपा है, भविष्य की अनन्त सम्भावनाओं से भरपूर एक उज्ज्वल आशा है।

अपनी इस दिव्य विशेषताओं एवं विभूतियों के कारण ही मानव को इस जगत् की क्रियाओं का केन्द्र बिन्दु एवं मूल स्रोत माना गया है। कन्फ्यूशियस कहते हैं कि चाहे हम किसी भी दृष्टि से विचार कर लें तो प्रतीत होगा कि मानव ही इस विश्व का मूल सूत्र एवं सार है। भारतीय स्वतंत्रता के महानायक महात्मा गाँधी के अनुसार मानव आत्मस्वरूप है। उसके अन्दर आत्म ज्योति ज्योतित होती रहती है। आवश्यकता तो बस इस दिव्य प्रकाश से प्रकाशित होने की है, लाभान्वित होने की है।

प्रायः सभी चिंतक इस विषय में एकमत हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया की विकास प्रक्रिया में मानव ही सर्वोत्तम एवं सर्वश्रेष्ठ है। इस तथ्य को स्वीकार करते हुए पाश्चात्य विद्वान एस. ई. फ्रास्ट ने अपने ग्रन्थ ‘आइडियास ऑफ द ग्रेट फिलासफर्स’ में मनुष्य को ईश्वर से तनिक ही नीचे माना है। एल्डुअस हक्सले ने भी मानव में ईश्वरीय गुण का निरूपण किया है और यही वह आधार है जहाँ अवतारवाद की भावना प्रादुर्भूत होती है। मानव देह ही भगवद् चेतना के अवतरण को नूतन आधार प्रदान करती है और जिससे मानव चेतना उर्ध्वगामी बनती है। ऐसे श्रेष्ठ पुरुषों के प्रति जन सामान्य की गहन आस्था और श्रद्धा होती है इसी भाव बोध के कारण ही राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर आदि को अवतार के रूप में अपनाया जाता है। इन अवतारी महामानवों ने समाज में अपने उत्कृष्ट चिंतन, दृढ़चरित्र एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार का लोकाचार प्रस्तुत किया है ताकि जन सामान्य ‘महाजनो येन गतः स पंथाः’ की उक्ति को सिद्ध कर सकें। उनके दिखाये हुए पथ का अनुसरण कर सकें और अपने आधार को, मानवीयता को उभार सकें।

मानव को उत्तम कर्मों के प्रति प्रेरित करना ही महामानव अवतारी चेतना का परम लक्ष्य होता है। ये निष्काम भाव से विश्व में सेवा, सहिष्णुता, सद्भाव का प्रचार-प्रसार करते हैं। ये मानव धर्म की स्थापना करते हैं और अनीति व अवाँछनीयता का उन्मूलन करते हैं। मानव धर्म यही है कि मानव मानवीय सत्य को पहचाने, समझे एवं आचरण में उतारें तथा प्राणीमात्र के प्रति सद्भाव बनाये रखे। पारस्परिकता की इस अनुभूति में ही विश्व चेतना का ईश्वरीय सत्य निहित है। आपसी स्नेह, सौहार्द्र, सहयोग एवं आचार-विचार की श्रेष्ठता द्वारा भौतिक मूल्यों के साथ-साथ आध्यात्मिक गुणों का परिवर्धन एवं विकास होता है। मानव का मूल्याँकन इन्हीं दिव्य गुणों तथा उत्कृष्ट कर्मों के आधार पर होता है। इन्हीं कारणों से केनेथे मोर्गन ने स्पष्ट किया है कि बाह्य रूप से रूपाकार की दृष्टि से इंसान एवं ईश्वर भिन्न होते हुए भी तत्त्वरूप में एक एवं ऐक्य ही हैं।

मनुष्य ईश्वर की सुन्दर एवं अनमोल रचना है। उसे बनाने-तराशने में ईश्वर ने अपनी कलाकारिता को चरम सीमा पर पहुँचा दिया है। शारीरिक और बौद्धिक क्षमता के अतिरिक्त एक भावना क्षेत्र भी ईश्वरीय कृति की विशेषता है, जो मानव अन्तःकरण में उत्कृष्टता के सार तत्त्व के रूप में विद्यमान है। इसी को बदौलत वह ईश्वर का ज्येष्ठ-श्रेष्ठ पुत्र युवराज कहलाता है। अर्थात् ईश्वर की अनन्त सीमाओं एवं सत्ताओं में वह विचरण करता है। अतः मनुष्य निःसंदेह इस सृष्टि की सबसे बड़ी विभूति है। विधाता की रचना का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। अव्यवस्थित धरती को सुव्यवस्थित रूप देने का श्रेय उसे ही प्राप्त है। ज्ञान-विज्ञान, भाषा, लिपि, स्वर आदि की जो विशेषताएँ उसे प्राप्त हैं उनसे निःसंदेह उसकी महत्ता ही प्रतिपादित होती है।

मनुष्य में विकास की अनन्त संभावनाएं सन्निहित हैं। उसमें विकास के समस्त स्तर, जड़, प्राण, मन, संवेदना, भावना आदि अत्युत्तम रीति से संजोये हैं। इतना ही नहीं वह अपने सचेतन प्रयास से आत्मा के शीर्ष स्तर तक पहुँच सकता है। परमात्मा से एकाकार-एकीभूत हो सकता है। परन्तु इस दिव्य विशेषता को साकार कर पाना तभी सम्भव है जब मनुष्य अपने आपको ईश्वर का राजकुमार मानकर तदनुरूप अपने क्रियाकलापों का निर्धारण करे। अपनी मानवीय गौरव-गरिमा के अनुकूल कर्म करे। ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उनके अनुशासन को अपने जीवन में उतारने तथा अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानते हुए सबके हित में अपना हित समझने का संकल्प करे। इसी संकल्प से ही मानव लक्ष्य की पूर्ति सम्भव है, जिसे हम सबको अपनाना चाहिए और अपनी श्रेष्ठता का प्रतिपादन करना चाहिए।


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