विधाता ने सृष्टि की रचना के दिनों मनुष्य को अनुदान के रूप में प्रतिभा बाँटी। प्रतिभा के बल पर मनुष्य ने अनेक दिशाओं में उन्नति की और सुख सुविधाओं से भरा पूरा जीवन बिताने लगा। समय ने पलटा खाया, प्रतिभा के पीछे स्वार्थांधता जुड़ गई। फलतः सभी लोभ, पराभव, पतन के गर्त में गिरते चले गए।
समाचार स्रष्टा तक पहुँचा, वे दुःख हुए। स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने देवदूत भेजे। उन्होंने विपत्तियों का कारण समझाया और फिर स्थिति को सुधारने के लिए मनःस्थिति का बदलने, मार्ग दर्शन करने में कुछ उठा न रखा। लोग आदतों के इतने अभ्यस्त हो चुके थे कि बदलना तो दूर, उल्टे देवदूतों का उपहास उड़ाने और त्रास देने पर उतारू हो गए। विवश होकर वे वापस चले गए। दुर्गतिग्रस्त मनुष्य की दुर्गति दिन दिन अधिक बढ़ती चली गई। अबकी बार मानवों ने स्वयं विधाता से प्रार्थना की और व्यथा का नया उपाय बताने का अनुरोध किया। विधाता ने इस बार और भी बलिष्ठ देवदूत भेजे, पर यह शर्त सुनाई कि जो अपना सहयोग स्वयं करेंगे, उनकी सहायता की जाएगी, उन्हीं के दुःख दारिद्रय दूर होंगे। वही क्रम अब तक चला आ रहा है, दैवी सहायता उन्हीं को उपलब्ध होती है, जो अपनी सहायता आप करते हैं।