परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी-अध्यात्म साधना का मर्म-1

August 2003

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

माध्यम नहीं, लक्ष्य समझना जरूरी

देवियों, भाइयों!विद्यार्थी बी.ए. पास करते हैं, एम. ए. पास करते हैं, पी-एचडी. करते हैं। किससे लिखते हैं? पार्कर की कलम से लिखते हैं। क्या कलम आवश्यक है? हाँ बहुत आवश्यक है, लेकिन अगर आपका यह ख्याल है कि कलम के माध्यम से आप तुलसीदास बन सकते हैं, कबीरदास बन सकते हैं और एम. ए. पास कर सकते हैं, पी-एचडी. पास कर कसते हैं तो आपका यह ख्याल एकाँगी है और गलत है।जब दोनों का समन्वय होगा तो विश्वास रखिए कि जो लाभ आपको मिलना चाहिए वह जरूर मिलकर रहेगा। किसका समन्वय? कलम का समन्वय, हमारे ज्ञान और विद्या, अध्ययन का समन्वय। ज्ञान हमारे पास में हो, विद्या हमारे पास में हो, अध्ययन हमारे पास में हो और कलम हमारे पास में हो, अध्ययन हमारे पास में हो ओर कलम हमारे पास बढ़िया से-बढ़िया हो तो आप क्या ख्याल करते हैं कि उससे आप वह सब पूरा कर सकते हैं? नहीं, पूरा नहीं कर सकते हैं।

इसी तरह अच्छी साइकिल हमारे पास हो तो हम ज्यादा अच्छा सफर कर सकते हैं, लेकिन साइकिल के साथ-साथ हमारी टाँगों में कूबत भी होनी चाहिए। टांगों में बल नहीं है तो साइकिल चलेगी नहीं। सीढ़ी अच्छी होनी चाहिए, जीना अच्छा होना चाहिए ताकि उसके ऊपर चढ़कर हम छत तक जा पहुँचें, लेकिन जीना काफी नहीं है। टाँगों की ताकत भी आपके पास जीना अच्छा बना हुआ है, सीढ़ियाँ अच्छी बनी हुई हैं तो भी आप छत तक नहीं पहुँच सकते।

मित्रों! माध्यमों की अपने आप में एक बड़ी उपयोगिता है ओर उनकी बड़ी आवश्यकता है। मूर्तियाँ किससे बनती हैं? छैनी-हथौड़े से बनती हैं। अच्छा, एक पत्थर का टुकड़ा हम आपको देंगे ओर छैनी हथौड़ा भी देंगे। आप एक मूर्ति बनाकर लाइए। एक हनुमान जी की मूर्ति बनाकर लाइए। अरे साहब! हमने तो पत्थर में छैनी मारी और वह तो टुकड़े टुकड़े हो गया। हनुमान जी नहीं बने? नहीं साहब हनुमान जी नहीं बन सकते। तो आप छैनी की क्या करामात कह रहे थे? फिर आप हथौड़े की करामात क्या कह रहे थे? हथौड़े ओर छैनी की करामात है जरूर, हम इसे मानते हैं। जितनी भी मूर्तियाँ दुनिया में बनी हैं, वे सारी-की-सारी मूर्तियाँ छैनी और हथौड़े से ही बनी है, लेकिन छैनी और हथौड़े के साथ-साथ उस कलाकार ओर मूर्तिकार के मस्तिष्क ओर हाथों को भी सधा हुआ होना चाहिए। हाथ सधे हुए नहीं है, मस्तिष्क सधा हुआ नहीं है और छैनी हथौड़ी आपके पास है तो आप मूर्ति नहीं बना सकते ।

चित्रकारों ने बढ़िया से-बढ़िया चित्र किस माध्यम से बनाए हैं? ब्रुश के माध्यम से ब्रुश से कैसे बनता है? तस्वीरें बनती हैं, पेंटिंग बनती हैं। अच्छा चलिए, हम आपको एक ब्रुश जैसा भी आप चाहे, मँगा सकते हैं और आप एक पेंटिंग बनाकर दिखाइए, एक तस्वीर बनाकर दिखाइए। नहीं साहब, हमसे नहीं बन सकती। हमने आपको ब्रुश दिया था। ब्रुश तो आपने अच्छा दिया था। ब्रुश सही भी था। बिलकुल सही तस्वीरें बनतीं, यह बात भी सही है। चूँकि हमारे पास खाली ब्रुश था, चित्रकला के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, इसलिए हम उसमें सफल न हो सके और चित्र नहीं बन सका।

क्रियायोग एवं भावयोग

आध्यात्मिकता के दो भाग, दो हिस्से है। एक हिस्सा वह है, जिसको ‘क्रियायोग‘ कहते हैं और दूसरा हिस्सा वह है, जिसको हम ‘भावयोग‘ कहते हैं। क्रियायोग के माध्यम से हमको भावयोग जाग्रत करना पड़ता है। असल में शक्ति इस शरीर में नहीं है, वस्तुओं में नहीं है धूपबत्तियों में क्या ताकत हो सकती है? वह हवा को ठीक कर सकती है। दीपक में क्या ताकत हो सकती है? वह उजाला कर सकता है? नहीं, दीपक जीवात्मा में कोई बल नहीं दे सकता, क्योंकि वह वस्तु है, पदार्थ है, मैटर है, जड़ है। जड़ चीजें हमको फायदा दे सकती हैं, लेकिन चेतना को कोई लाभ नहीं दे सकती। सूर्य नारायण को जो पानी हम चढ़ाते हैं तो क्या वह हमारी आत्मा को बल दे सकता है? नहीं बेटे, सूर्य नारायण को चढ़ाया हुआ पानी उस जमीन को तो गीली कर सकता है, जहाँ पर आपने पानी फैला दिया था। हमारी आत्मा को बल नहीं दे सकता और क्या सूर्य नारायण तक वह जल पहुँच सकता है? नहीं पहुँच सकता। देख लीजिए आपका चढ़ाया हुआ जल जमीन पर पड़ा हुआ है, सूर्यनारायण तो लाखों मील दूर हैं। कैसे पहुँच सकता है।

फिर आप क्या कह रहे थे? बेकार की बातें बताते हैं आप हमको। नहीं बेटे, हम बेकार की बातें नहीं बताते। हम तो ये बताते हैं कि क्रियायोग के माध्यम से भावयोग का जागरण करने का उद्देश्य पूरा होता है। एक मीडियम होता है और एक लक्ष्य होगा है। एक ‘ऐम’ होता है। दोनों को अगर आप दोनों को मिलाकर नहीं चलेंगे तो वही होगा जो आज एकाँगी क्रियायोग से हो रहा है। एकाँगी ‘क्रियायोग‘ आज बादलों की तरह से, आसमान की तरह से, रावण के चेहरे की तरीके से बढ़ाता हुआ चला जा रहा है और प्राण उसमें से निकलता हुआ चला जा रहा है। इससे हर आदमी को शिकायत करनी पड़ती है कि हमारा अध्यात्म से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता और अध्यात्म से कोई लाभ नहीं होता और अध्यात्म से हमको भगवान नहीं मिलते और अध्यात्म से हमको शाँति नहीं मिलती। अध्यात्म से हमें अमुक नहीं मिलता। बेटे, कुछ नहीं मिलेगा, क्योंकि तेरे पास क्रियायोग है। क्रियायोग का उद्देश्य भावयोग का समर्पण है, अगर यह बात आपकी समझ में आ जाए तो आपके कम से-कम रास्ता जरूर मिल जाएगा।

वास्तविकता को समझें

आप भजन करें तो आपकी मरजी, न करें तो आपकी मरजी, लेकिन मैं यह जरूर चाहता हूँ कि आपको वास्तविकता की जानकारी होनी ही चाहिए। अगर आपको वास्तविकता की जानकारी नहीं है तो आप उसी तरीके से अज्ञान में भटकने वाले लोग है, जैसे कि दूसरे लोग और तीसरे लोग अज्ञान में भटकते हैं। आपकी पूजा-उपासना भी अज्ञान में भटकने के अलावा और कुछ नहीं हो सकती है। अगर आपने यह ख्याल करके रखा है कि इस कर्मकांड के माध्यम से, क्रियायोग के माध्यम से आप लक्ष्य को पूरा कर सकते हैं तो यह लक्ष्य पूर नहीं हो सकता। लक्ष्य कैसे पूरा हो सकता है? लक्ष्य को पूरा कौन करता है? आत्मा को भगवान की शक्तियां कहाँ से मिलती हैं? आत्मा क्या होती है? इस पर विचार करना चाहिए। हमारी चेतना ही परमपिता परमात्मा की चेतना के साथ में मिल सकती है। जड़ के साथ जड़ मिल सकता है, आप यह ध्यान रखिए।

मित्रों! चेतना हमारी जीवात्मा है और वह विचारपरक है, भावपरक है, संवेदनापरक है और भगवान? भगवान भी विचारपरक है, भावपरक है और संवेदनात्मक है। दोनों की भावना और विचारणा जिस दिन मिलेगी, उस दिन आपको भगवान के मिलने का आनंद मिल जाएगा। आपको साक्षात्कार का आनंद मिल जाएगा। युगनिर्माण का साक्षात्कार मिल जाएगा। जब तक आप मैटर को मैटर से पकड़ने की कोशिश करेंगे, उस दिन तक अज्ञान में भटकने वाले लोगों में आपका नाम भी लिखा जा सकता है। अज्ञान में भटकने वाले लोग वह हैं, जो आँखों के द्वारा मिट्टी से बने हुए शरीरों को देखने के बारे में ख्वाब देखते रहते हैं कि भगवान जी का साक्षात्कार होना चाहिए। अच्छा साहब! कैसा भगवान जी का साक्षात्कार चाहते हैं। हम तो ऐसे रामचंद्र जी का साक्षात्कार चाहते हैं, जो तीर-कमान लेकर घूमते रहते हों। अच्छा तो शरीर किस चीज का बना हुआ होगा, जो आप देखना चाहते हो? साहब, शरीर ही है, जो मिट्टी-पानी का बनता है, तो आप मिट्टी-पानी के रामचंद्र जी को देखना चाहते हो? हाँ साहब, मिट्टी-पानी के रामचंद्र जी को देखना चाहते है।

और किसको देखना चाहते हो? तीर-कमान वाले को देखना चाहते हो? तीर-कमान वाले को देखना चाहते हैं। तीर-कमान किसका बनता है? बाँस का तीर-कमान धारण करने वाले, मोर-मुकुट पहनने वाले और हाड़-माँस का शरीर धारण करने वाले भगवान को आप देखना चाहते हैं? आप उन्हें किससे देखना चाहते है? आँख से देखना चाहते है। आँखें किस चीज की बनी हुई है? चमड़े की बनी हुई हैं, माँस की बनी हुई हैं। तो आप माँस से माँस को देखना चाहते है? यही मतलब है न आपका? आप मैटेरियल से मैटेरियल को देखना चाहते हैं। प्रकृति से प्रकृति को देखना चाहते हैं। फिर तो आपको भौतिकवादी कहना चाहिए। यह अध्यात्मवाद नहीं हो सकता।

अध्यात्म का मर्म

अध्यात्मवाद क्या होता है? अध्यात्म उस चीज का नाम है, जिसमें वस्तुओं का प्रयोग तो करते हैं, समर्थ चीजों का प्रयोग तो करते हैं, मसलन पानी का प्रयोग, चावल का प्रयोग, अक्षत का प्रयोग, शक्कर का प्रयोग, घी का प्रयोग, धूप का प्रयोग, दीप का प्रयोग आदि वस्तुओं का प्रयोग करते हैं और साथ-ही-साथ कर्मकाँडों का प्रयोग, क्रिया-कलापों का प्रयोग करते हैं। इसमें शरीर को हिला-डुलाकर काम करते हैं, जैसे माला घुमाना आदि। माला किससे घुमाते है, हाथ से घुमाते है, माला किसकी होती है? लकड़ी की बनी होती है। क्या-क्या चीजें होती हैं, जो हाथ से घुमाई जाती हैं? बेटे, यह सब मैटेरियल है, जो मैटेरियल या भौतिक चीजें है, उनके उपयोग का क्या उद्देश्य होना चाहिए? साहब! भौतिक से तो भौतिक चीजें ही मिलेंगी। हाँ बेटे चरखा कातने से अठन्नी मिल सकती है। माला घुमाने से चवन्नी मिल सकती है। महाराज जी! भगवान की बात कहिए न। नहीं बेटे! भगवान से माला का क्या ताल्लुक हो सकता है? तो फिर आप किसलिए माला कराते हैं? माला इसलिए कराते हैं कि आपकी समझ में आ जाए कि किस तरीके से हम अपनी सारी अकल, सारी शक्ति इस बात में झोंकना चाहते हैं।

मित्रो! आप एक बात समझ लें कि जो भी क्रियायोग है, उसका मकसद केवल मनुष्य की भावना का विकास करना है, भावना का परिष्कार करना है। भावना का विकास और परिष्कार करने में, भावना का शोधन करने में, आपकी संवेदनाओं को जागने में अगर हमारी क्रिया सफल होती है तो हमारी साधना भी सफल होती है। अगर हमारी भावना से वे दूर रहते है, भावना को छू नहीं पाते, केवल भौतिक क्रियाकलाप से भौतिक चीजों की कामना में हम डूबे रहते हैं तो यह खाली भौतिकवाद है। भौतिकवाद के लिए हम अलग हैं और अध्यात्मवाद के लिए अलग। भौतिकवाद कीमत के बदले में कीमत चुकाना चाहता है। आप आठ घंटे काम कीजिए, हम आपको छह रुपये चुका सकते है, आप चार घंटे काम कीजिए, हम आपको तीन रुपये दे सकते है। पदार्थ की कीमत पदार्थ है। आपने कितनी माला जपी, उसके बदले में हम आपको उतने पैसे दे सकते हैं। आप चार रुपये रोज कमाते हैं तो फिर एक घंटा और भजन कीजिए हम आपको अठन्नी देंगे। आप अठन्नी ले जाइए। नहीं साहब! हम शाँति चाहते है, सिद्धि चाहते हैं, मुक्ति चाहते हैं और भगवान का अनुग्रह चाहते हैं बेटे, इसका ताल्लुक भावना से है।

कर्मकाँड नहीं, भावना प्रधान

मित्रों! कर्मकाँड, क्रियाकृत्य आवश्यक हैं और वाँछनीय भी, लेकिन आफत तब आ जाती है जब आप कर्मकाँडों को ही सब कुछ मान बैठते हैं और भावना के संशोधन और परिष्कार की जरूरत नहीं समझते। आपको भावना के संशोधन की जरूरत समझनी चाहिए और कर्मकाँडों के माध्यम समझना चाहिए और उसी के अनुरूप उनका उपयोग करना चाहिए। इसके कितने ही उदाहरण मैंने आपको दिए हैं। उदाहरण के लिए, अच्छी चिट्ठी लिखने के लिए, अच्छा लेख लिखने के लिए आपको कलम की जरूरत है। मैंने किससे कहा कि कलम की जरूरत नहीं है। बिना कलम के हम चिट्ठी नहीं लिख सकते। हमारी कलम जब खराब हो जाएगी तो हम चिट्ठी नहीं लिख सकते। इसी तरह जब हमारी जबान में छाले हो जाएंगे तो हम व्याख्यान नहीं कर सकते। इन मीडियमों की, माध्यमों की हमको बेहद जरूरत है।

आपकी जीभ तो है, लेकिन उसके द्वारा आप ज्ञान का आनंद नहीं बता सकते, जो कि एक विकसित एवं परिष्कृत व्यक्तित्व के द्वारा होना चाहिए। तो गुरुजी, हमें भी व्याख्यान सिखा दीजिए जैसा कि आप देते हैं। बेटे, याद कर ले और तू भी वैसा ही व्याख्यान किया कर। महीने पंद्रह दिन में तुझे अभ्यास हो जाएगा। अगर किसी ने पकड़ लिया और कहा कि अमुक विषय पर बोलिए, तब? तब बेटे कह देना कि मैंने इतनी ही नकल की है। अब मैं कहाँ से बोल सकता हूँ। अरे महाराज, आप अपने जैसा विद्वान बना दीजिए। अरे बेटा, यह ज्ञान की साधना है, अक्षरों की नकल करने से नहीं हो सकता।

इसलिए कर्मकाँडों को बावत आपको एक बात साफ−तौर से समझ लेनी चाहिए। कर्मकाँड बेहद जरूरी और बेहद आवश्यक हैं। कर्मकाँड की जमीन-आसमान जैसी आवश्यकता है, लेकिन कर्मकाँड अधूरा और अपंग है। वह कब अधूरा और अपंग है? जब तक उसका हमारे भावना क्षेत्र पर प्रभाव न पड़े और उसका संशोधन न हो। भाव संवेदनाओं की जाग्रति न हो, भावनाओं में कोई हेर-फेर नहीं हुआ हो। भावना और चिंतन हमारा जहाँ का तहाँ बना रहा तो आप विश्वास रखना, आपको हमेशा शिकायत करनी पड़ेगी कि हमारी पूजा बेकार जा रही है। हमारा भजन बेकार जा रहा है। हमारी उपासना बेकार चली गई, हमारा अनुष्ठान बेकार चला गया। यही एक भूल है, जिसकी चट्टान से टक्कर खाकर बहुत सारे जहाज डूब गए। और संन्यास डूब गए। उपासनाएँ डूब गई और सब कुछ डूब गया। लेकिन जिन्होंने टक्कर खाकर यह समझ लिया कि कर्मकाँड काफी नहीं है, वे भवसागर से पार हो गए। कर्मकाँड आवश्यक तो हैं महत्वपूर्ण तो तो हैं, पर काफी नहीं है। वे एकाँगी और अपूर्ण हैं।

साधना : एक समग्र उपचार

मित्रो! आप यह ध्यान रखें कि दोनों का उसी प्रकार घनिष्ठ संबंध है, जिस प्रकार शरीर और प्राण का है। शरीर और प्राण को मिला देने से ही व्यक्ति जीवंत कहलाते हैं। उसी तरीके से भाव संवेदनाओं के परिष्कार एवं विचारणाओं के परिष्कार के साथ-साथ में जप के, पूजा के और उपासना के क्रियाकृत्य, कर्मकाँड जब मिल जाते हैं तो एक समूची बात बन जाती है। मित्रो! हम एक समूचे आदमी हैं। बोलते हैं, चलते हैं, लेकिन अगर प्राण शरीर में से निकल जाए तो हवा में घूमने वाला प्राण आपके किसी काम का नहीं हो सकता। फिर आप कहें कि गुरुजी! जरा व्याख्यान दीजिए। अरे बेटे, हम तो भूत हैं और भूत कैसे व्याख्यान दे सकते हैं? गुरुजी! हम तो आपके पैर छूना चाहते हैं। बेटे, हम तो हवा में घूम रहे हैं, हमारे पैर कैसे छू सकते है? अच्छा साहब! तो गुरुदीक्षा ही दे दीजिए। अरे भाई! हम मरने के लिए बैठे हैं, अब गुरुदीक्षा का समय चला गया। अब तू कैसे गुरुदीक्षा ले सकता है?

मित्रो! मरा हुआ शरीर बेकार है और मरा हुआ प्राण बेकार है। उसी तरह भाव संवेदना के बिना कर्मकाँड-क्रियाकृत्य बेकार हैं। कर्मकाँडों को जीवंत बनाने के लिए भाव संवेदनाओं को जगाने की बेहद आवश्यकता है। हम किसी भूखे-प्यासे, गरीब, दुखियारे के काम आएँ और उसकी सेवा-सहायता करें तो उससे हमारी भाव-संवेदना जाग्रत हो सकती है, परंतु भाव-संवेदना जगाने के लिए कर्मकाँडों की आवश्यकता को भी समझें। नहीं साहब! हम तो बड़े दयालु हैं। अच्छा! आपके अंदर बहुत दया है तो क्या आप किसी के काम आ सकते है? नहीं साहब! हम किसी के काम नहीं आ सकते। हम किसी की सेवा-सहायता नहीं कर सकते। तब फिर आप दयालु कैसे? किस बात के? भाव-संवेदनाएँ भी अपूर्ण है, अगर वे क्रिया कांडों के साथ समन्वित नहीं है। दोनों का समन्वय जरूरी है।

भावनाओं को परिष्कृत करें

मित्रों! अगर हमको दयालु बनना है तो हमें लोगों की सेवा करनी चाहिए,सहायता करनी चाहिए। दुखी आदमी के काम आना चाहिए। उसके प्रति हमारी आँखों में आँसू होने चाहिए। हमारे हृदय में भावनाओं का विकास होना चाहिए। अगर हम अपने भीतर विशालता विकसित करना चाहते हैं। जब हमको ज्ञान इकट्ठा करना है तो किताबों की जरूरत पड़ेगी। ज्ञानवृद्धि के लिए पुस्तकों को पढ़ना आवश्यकता है, लेकिन अगर हमको ज्ञान, बुद्धिं नहीं पढ़ना है हमको नहीं पढ़ना है तो बहुत-सी पुस्तकें लाकर जमा कर लें, उससे कोई लाभ नहीं। देखिए गुरुजी! यह रामायण की किताब, यह भागवत् की किताब, ये वेदों की किताब, चारों वेद हमने आपके यहाँ से मँगाए थे। ये सब रखे हुए हैं। बेटे, बड़ी अच्छी बात है। कोई आएगा तो कह नहीं सकता कि तू वेदपाठी नहीं हो। अच्छा बता, तूने इन्हें पढ़ा है क्या? अरे महाराज जी! पढ़ा-पढ़ा तो क्या, मँगाकर रख लिया है। इससे मेरे घर में बड़ा पुण्य हो जाएगा। नहीं बेटे, इससे क्या पुण्य हो सकता है? ठीक है, तूने हमारी किताब खरीदी। इससे आठ आने हमें मिल गए, तेरी प्रशंसा हो गई। तूने वेदों की पुस्तक मँगा ली, दोनों का उद्देश्य पूरा हो गया। तू अपने घर, हम अपने घर। महाराज जी! तो क्या वेदों का ज्ञान हमें नहीं मिलेगा? नहीं बेटे, कोई ज्ञान नहीं मिलेगा, क्योंकि वेदों को तूने पढ़ा तो है नहीं। (क्रमशः)


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