लड़-भिड़कर समाप्त हुए थे (kahani)

August 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

एक भक्त भावविभोर होकर प्रार्थना कर रहे थे, मेरे प्रभु, द्वार खोलो, ताकि मैं तुम तक पहुँच सकूँ।

उधर से निकलने वाले दूसरे संत ने कहा, जरा गहरे उतरकर देखो तो, ईश्वर का द्वार क्या कभी किसी के लिए बंद रहा है। अपनी माँ की, परिवारीजनों की सेवा करके देखो। भगवान तुम्हें माँ के आँचल में बैठा मिलेगा।

भक्त को सही दिशा मिली। उपवन छोड़कर वह परिवार के तपोवन में चला गया।

भक्त को सही दिशा मिली। उपवन छोड़कर वह परिवार के तपोवन में चला गया।

गाँधारी राजा धृतराष्ट्र की पत्नी थी। धृतराष्ट्र अंधे थे। रानी ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर पति की तरह ही नेत्रहीन स्थिति में रहना स्वीकार किया।

उनकी यह संयम-साधना तपश्चर्या जैसी ही फलवती हुई। एक बार उन्होंने नेत्र उघारकर दुर्योधन को देखा तो उसका शरीर लौहवत् हो गया। अंत में उन्होंने श्रीकृष्ण को भी शाप दिया था कि “तुम चाहते तो महाभारत टल सकता था। तुम्हारी उपेक्षा से जिस प्रकार मेरा वंश नाश हुआ, उसी प्रकार तुम्हारा वंश भी परस्पर लड़-भिड़कर समाप्त होगा।” कालसत्य है कि यदुवंशी गाँधारी के शाप से लड़-भिड़कर समाप्त हुए थे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles