इस युग के महासंताप की महौषधि

August 2003

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इक्कीसवीं सदी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के नित नए आयामों एवं वरदानों को प्रकट कर रही है। लेकिन इसी के साथ मानवीय चेतना में हो रहे विखण्डन के नए रूप भी अभिशाप बन कर बरस रहे हैं। बढ़ती वैज्ञानिक समृद्धि ने सघन मानसिक सन्ताप का रूप ले लिया है। जिन मनोरोगों के नाम एक दशक पहले किन्हीं विशिष्ट चिकित्साशास्त्र के ग्रन्थों में पढ़े-सुने जाते थे, आज उनकी जकड़ से सामान्य ग्रामीण भी भासित है। इन्सान की इस आन्तरिक टूटन से बाहरी जीवन में भी दरारें पड़ रही हैं। टूटते-बिखरते परिवार, अलगाव, आतंक से सहमा समाज इसी का प्रतिफल है। मानवीय अन्तःप्रकृति के विक्षोभ से बाह्य प्रकृति भी विक्षुब्ध है। भयावह पर्यावरण संकट के पीछे विशेषज्ञ मानवीय चिन्तन को ही दोषी ठहराते हैं।

एक ही बिन्दु से उपजी इन समस्याओं की सृष्टि का विलय भी किसी एक ही बिन्दु पर सम्भव है। ‘बिन्दु से सृष्टि, बिन्दु में विलय’ की यह दार्शनिक उक्ति यहाँ भी खरी और सही है। विश्व के महान् चिन्तकों के अनुसार यह समाधान सूत्र एक ही है, ‘चिन्तन सुधरे तो जीवन संवरे’। जीवन की प्रायः सभी समस्याएँ चिन्तन की विकृति से ही पनपी है। चिन्तन शैली के विकास और सुधार से इस विकृति की परिष्कृति की जा सकती है। दर्शन की दृष्टि मिले तो ही इन्सानी जिन्दगी का अन्धापन दूर हो सकता है। और मनुष्य-व्यक्ति व समाज के रूप में अपनी समस्याओं के सार्थक समाधान पा सकता है।

सृष्टि में मानव उन्मेष काल से दर्शन सार्थक जीवन दृष्टि के रूप में सक्रिय रहा है। वेद से लेकर महर्षि अरविन्द तक, सुकरात से लेकर सार्त्र तक पूर्वी एवं पश्चिमी क्षितिज में युगानुरूप जीवन दृष्टि की खोज और चिन्तन शैली को परिष्कृत करने की यह दार्शनिक साधना होती रही है। हर युग एवं प्रत्येक काल खण्ड में दर्शन के मूल्य और महत्त्व को स्वीकारा गया है। हाँ इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी की चकाचौंध से चुँधियाई आँखों ने दर्शन के मूल्य और महत्त्व की अवमानना की है। वैज्ञानिक क्रियात्मकता के प्रसार में दार्शनिक चिन्तन की गति काफी मन्द हुई है। परिष्कृत चिन्तन विहीन मानवीय क्रिया ने जीवन की दशा और दिशा को संकटों व कंटकों से भर दिया है।

दृष्टि के अभाव में लड़खड़ाते कदम न केवल भटक जाते हैं बल्कि चोटिल भी होते हैं। चिन्तन के अभाव में क्रिया कितना ही विस्तार क्यों न ले ले, पर वह अपना अर्थ और औचित्य सिद्ध नहीं कर पाती। वैज्ञानिक प्रगति की तीव्रता के युग में हो रही दार्शनिक उपेक्षा को देखकर ही विश्व मनीषी बट्रेण्ड रसेल से यह कहे बिना न रहा गया कि हम आज ऐसे युग में जीवन जी रहे हैं, जिसका साधन है मानवीय दक्षता किन्तु साध्य है मानवीय मूर्खता। रसेल के इस कथन का अन्तर्भाव यही है कि मानवीय क्रियात्मकता का विस्तार जितना बढ़ता जाता है- परिष्कृत चिन्तन शैली एवं प्रकाशपूर्ण जीवन दृष्टि की आवश्यकता उतनी ही तीव्र हो जाती है।

यह कथन केवल सामान्य दार्शनिक तर्क भर नहीं है, बल्कि अपने युग का सर्वजन अनुभूत सत्य है। युग की कसौटी पर पूर्णतया खरे इस जीवन सत्य का सार यही है कि इक्कीसवीं सदी में दर्शन का मूल्य और महत्त्व अतीत से असंख्य गुना अधिक है। आज विज्ञान व प्रौद्योगिकी के नित नए आयामों एवं वरदानों की ही भाँति दार्शनिक चिन्तन के भी नए-नए आयामों व नूतन वरदानों को प्रकट होना चाहिए। वैज्ञानिक प्रगति के साथ दार्शनिक प्रगति के कदम मिला कर चलने से ही मानवीय जीवन में समाधान का स्वर संगीत प्रकट होगा। इक्कीसवीं सदी में दर्शन के मूल्य एवं महत्त्व के बल पर ही समस्याओं की सृष्टि, समाधान की सृष्टि में रूपांतरित होगी। परिष्कृत दार्शनिक चिन्तन ही मानवीय क्रिया-कौशल का परिशोधन करने में समर्थ है। एकमात्र दार्शनिक मूल्य ही, वैज्ञानिक समृद्धि से उपजे मानवीय सन्ताप की महाऔषधि है। इसे ग्रहण करके ही इन्सानी जिन्दगी सम्पूर्ण स्वास्थ्य एवं सार्थक समाधान का वरदान पा सकती है।


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