तंत्र साधना : एक सुव्यवस्थित विज्ञान

August 2003

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वैदिक ऋषियों ने अन्तःप्रकृति और बाह्य प्रकृति पर जो बहुमूल्य प्रयोग किये तथा प्रक्रियाएँ विकसित की; तंत्र को उन सब में बेशकीमती ठहराया जा सकता है। तंत्र का उद्गम हम वेदों में खोज सकते हैं। ऋग्वेद का देवी सूक्त, वैदिक ऋषि विश्वामित्र द्वारा किये गये बला-अतिबला सावित्री महा विद्या के प्रयोग इसी के परिचायक हैं। अथर्ववेद के प्रवर्तक महाअथर्वण की परम्परा तो इसका भरा-पूरा भण्डार है।

तंत्र तन् और त्र शब्द से मिलकर बना है। तन का अर्थ चेतना शक्ति से है और त्र का अर्थ स्वतंत्र करना, छोड़ना या बन्धन मुक्त करना। इस तरह मनुष्य के भीतर जो आन्तरिक, अतीन्द्रिय और सुषुप्त शक्ति छिपी हुई है। जिसे वह अपनी बहिर्मुखता के कारण उपयोग नहीं कर पाता है, इस शक्ति को स्वतंत्र या मुक्त करना, इसे जीवन में अनुभव करना तथा उसका उपयोग करना। यही तंत्र साधना का उद्देश्य है।

वेदान्त की तरह तंत्र भी जीव और शिव की एकात्मता का प्रतिपादन करता है। किन्तु वेदान्त की तरह यह जगत् को मिथ्या या माया कहकर नकारता नहीं है, बल्कि इसे शक्ति का क्रियारूप मानता है। यही विश्वव्यापी शक्ति मनुष्य में कुण्डलिनी शक्ति के रूप में सोई रहती है। साधना द्वारा जब इसका जागरण होता है तथा यह क्रमशः विभिन्न चक्रों (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञाचक्र) का भेदन करती हुई सहस्रार स्थित शिव तत्त्व से मिलती है शिव शक्ति का यह दिव्य मिलन ही जीवन को पूर्णता प्रदान करता है और जीव शिव तुल्य हो जाता है।

वस्तुतः तंत्र एक स्वतंत्र विज्ञान है। प्रकृति की शक्तियों पर काबू पाकर उन्हें अपनी इच्छानुकूल वशवर्ती बनाना इस विद्या का प्रधान कार्य है। तंत्र विज्ञान के द्वारा अपने अन्दर की विद्युत शक्ति को इतना विकसित कर लिया जाता है कि प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं को अपनी इच्छानुसार ढाल सकते हैं। इसी को सिद्धि कहते हैं।

अध्यात्म साहित्य में तंत्र की विशिष्ट स्थिति रही है। तंत्र का उद्देश्य साधक को निम्नगामी प्रवृत्तियों में उलझाना नहीं है, वरन् उसे एक ऐसा सुव्यवस्थित मार्ग सुझाना है जिससे कि वह जीवन में कुछ श्रेष्ठ एवं आदर्शवादी कार्य कर सके। यद्यपि यह सत्य है जिस प्रकार से प्रत्येक उच्च एवं उपयोगी सिद्धान्त और सम्प्रदायों में समय के साथ अनेकों विकार और दोष पैदा हो जाते हैं, उसी प्रकार तंत्र मार्ग भी कई रूपों में विकृत हो गया है तथा साधारण लोगों ने उसे मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन जैसे निकृष्ट एवं दूषित कार्यों का ही पर्याय समझ लिया है। जबकि तंत्र शास्त्रों में इसके मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ‘जहाँ भोग है वहाँ मोक्ष नहीं है और जहाँ मोक्ष है, वहाँ भोग नहीं है’ किन्तु जो मनुष्य भगवती महाशक्ति की सेवा में संलग्न है उनको भोग और मोक्ष दोनों ही सहज साध्य हैं। वस्तुतः ईश्वर की सृजनात्मक शक्ति का जागरण इन शक्तियों को खोजकर कार्य करना, अपने देवत्व को पहचानना और चारों ओर दृष्टि में विशालतर देवत्व का आलिंगन करना ही वह आदेश है जिसे समस्त आगम (तंत्र शास्त्र) घोषित करते हैँ। आत्मिक विज्ञान के सिद्धान्तों को क्रियारूप देना ही वस्तुतः तंत्र शास्त्र का कार्य है। विभिन्न प्रकार की साधनाओं के विधि-विधान का मार्गदर्शन ही इनका मुख्य कार्य है।

तंत्र मार्ग में साधना का निर्धारण शिष्य या साधक की प्रकृति एवं पात्रता के अनुरूप ही होता है। यहाँ साधकों के तीन स्तर हैं-1. पशु शिष्य, 2. वीर शिष्य, 3.दिव्य शिष्य। पशु शिष्य निम्नतम कोटि का साधक होता है। ऐसा शिष्य स्वयं को तथा स्वयं की वासना, इच्छा और आकाँक्षा को जान नहीं पाता, समझ नहीं पाता और अपने आपको समर्पित नहीं कर पाता है। ऐसे शिष्यों के लिए तंत्र मार्ग में भक्ति मार्ग, कर्म मार्ग और उपासना मार्ग बतलाये गये हैं। भक्ति भावना के प्रबल होने से शिष्य के अन्दर पशुत्व विकार शनैः-शनैः हटते हैं। भक्ति मार्ग की नौ अवस्थाओं से गुजरने के बाद पशु शिष्य में आत्मनिवेदन की स्थिति आती है और तब वह वीर भाव को प्राप्त होता है। पशु शिष्य के लिए कर्म मार्ग या सेवा का मार्ग भी है। कठोर श्रम एवं परमार्थ भाव से किये कर्म उसके आलस-प्रमाद एवं संकीर्णता के भाव को कम करने में सहायक होते हैँ। वस्तुतः पशु शिष्य में श्रद्धा, विश्वास और आस्था की कमी होती है तथा वह अपने मन का, अपनी इच्छाओं और वासनाओं का दास होता है। कर्म एवं भक्ति योग के मार्ग द्वारा वह क्रमशः इनसे उबरने लगता है और वीर साधक की श्रेणी में प्रवेश करता है।

वीर शिष्य अपने स्वभाव में घुसे विकार, कामना, वासना और अहंकार की स्थिति को समझकर उनके नकारात्मक तत्त्वों को हटाकर स्वयं में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है। वस्तुतः जो साधक स्वयं में परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है, वही वीर शिष्य कहलाता है। उसमें आलस-प्रमाद अति अल्प मात्रा में रहते हैँ। उसमें आगे बढ़ने की इच्छा प्रबल रहती है तथा यह इच्छा और उत्साह ही उसे प्रगति पथ पर आगे बढ़ाती है। उसमें जीवन की हर परिस्थिति को मुस्कराते हुए झेलने की क्षमता रहती है। वीर शिष्य ही अपने चरम विकास की अवस्था में दिव्य भाव को प्राप्त होता है।

दिव्य शिष्य तथा गुरु के बीच तादात्म्य भाव रहता है। वह स्वयं को गुरु से भिन्न नहीं मानता, उसमें पूर्ण एकत्व का, अभिन्नता का भाव रहता है। केवल गुरु के प्रति ही नहीं वरन् सम्पूर्ण ब्रह्मांड के समस्त चराचर पदार्थ व प्राणियों के प्रति समभाव रखता है। वह प्रत्येक स्त्री में शक्ति का तथा प्रत्येक पुरुष में शिव का स्वरूप देखता है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान उसके जीवन के अन्तरंग अंग बन जाते हैं। उसके जीवन में ये साधनाएँ अनवरत चलती रहती हैं। ऐसे शिष्य के विचार और व्यवहार, ज्ञान और कर्म में ज्यादा अन्तर नहीं रहता।

ताँत्रिक साधनाओं द्वारा व्यक्तित्व की चार प्रबल अवस्थाओं को नियंत्रित करने का प्रयत्न किया जाता है। चार विकारों के कारण ही साधक या मनुष्य अपने व्यक्तित्व का संतुलन खो बैठता है। ये विकार हैं- आहार, निद्रा, भय और मैथुन। तंत्र की मान्यता है कि मनुष्य कितनी ही साधना या कितना ही प्रयास क्यों न करें, यदि ये चार प्रवृत्तियाँ उसके अन्दर विद्यमान रहती हैं और उनका निराकरण यदि नहीं किया जाये तो उसका पतन कभी भी हो सकता है। तंत्र शास्त्र में इन प्रवृत्तियों को अनुशासित करने के लिए प्रयत्न किया जाता है। तंत्र की समस्त साधनाओं का एक ही उद्देश्य है-मन को वृत्ति रहित बनाना तथा सभी प्रवृत्तियों तथा उपप्रवृत्तियों को ठीक तरीके से, सही प्रकाश में समझने का प्रयास करना और उनका निदान करना। जब तक इन वृत्तियों, उपवृत्तियों या प्रवृत्तियों का निदान नहीं होता, चेतना का क्रमिक विकास और सभी प्रकार की आन्तरिक या आध्यात्मिक उपलब्धियाँ असम्भव हैं।

तंत्र साधना की दीक्षा गुरु अपने शिष्य को, शिष्य की अवस्था और उपलब्धि के स्तर को देखकर प्रदान करता है। जब साधक मन की चार मूल प्रवृत्तियों का सामना करते हुए मनःस्थिति की एक विकसित सीमा तक पहुँच जाता है तब अन्य गुप्त साधनाओं का प्रारम्भ होता है। कुपात्र के लिए इनका सर्वथा निषेध ही रहता है। क्योंकि इनके गुप्त रहस्यों को जन साधारण के लिए प्रकाशित कर देने का अर्थ बालकों के क्रीड़ा-स्थल में बारूद बिखेर देना होगा। जिनमें वे क्रीड़ा, कौतुक करने के उपलक्ष में सर्वनाश का उपहार प्राप्त करेंगे। अतः यह परम्परा अधिकार और अधिकारी के आधार पर एक-दूसरे को सिखाने की रही है।

इसी कारण तंत्र साधना के संदर्भ में भ्राँतियाँ का सघन कुहासा जन मानस के बीच छाया रहा है। जो तत्त्व अलंकारिक विवरण में किसी गुह्य उद्देश्य और रहस्य को छुपाये थे, उनके शब्दशः अर्थ लिए जाने लगे। सबसे अधिक भ्रम पंचमकारों के संदर्भ में हुआ। मद्य, माँस, मत्स्य, मुद्रा, मैथुन के रहस्य को न जानकर, इनके यथावत उपयोग में ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ ली गई। जबकि तंत्र शास्त्रों के अनुसार जिस मद्य के प्रयोग का आदेश है वह नशा उत्पन्न करने वाला पदार्थ नहीं है, बल्कि वह दिव्य ज्ञान है, जिससे साधक बाहरी जगत् से नाता तोड़कर आन्तरिक क्षेत्र में प्रवेश करता है। परमात्मा को सर्वस्व अर्पण ही माँस सेवन कहलाता है। मत्स्य का अर्थ, उस स्थिति से है, जब सब तरह के सुख-दुःख एक समान हो जाते हैं। दुर्गुणों के त्याग को मुद्रा कहते हैं। सहस्रार में शिव-शक्ति का कुण्डलिनी के साथ मिलन मैथुन कहलाता है।

पंचमकार की ही भाँति पशुबलि की प्रक्रिया भी रहस्यमयी है। महानिर्वाण तंत्र के अनुसार काम और क्रोध दो पशु हैं। इनकी बलि देकर जप में तन्मय हो जाये। अन्यत्र, इन्द्रिय रूपी पशु का वध करने का आदेश है। इन्हीं भावों को ग्रहण करके अपने देश में महान् तंत्र साधक होते आये हैं। निर्विशेष ब्रह्म के प्रतिपादक आचार्य शंकर शक्ति तत्त्व के रहस्यवेत्ता भी थे, उन्होंने तिब्बत के उरुंगमठ-त्वाँग मठ जाकर अनेकों तंत्र साधना सम्पन्न की थी। उनका ‘सौंदर्य लहरी’ नामक ग्रंथ तंत्र ग्रंथों में अद्वितीय स्थान रखता है। शंकर की ही भाँति नागार्जुन, गोरखनाथ, महेन्द्रनाथ, कीनाराम, वामार वेपा, कमलाकान्त, रामप्रसाद, रामकृष्ण परमहंस तंत्र की गुह्य प्रक्रियाओं में निष्णात थे। परम पूज्य गुरुदेव को श्रेष्ठतम तंत्र साधक माना जा सकता है। उनके द्वारा 1984-86 के दौरान सम्पन्न की गई सावित्री साधना (सूक्ष्मीकरण साधना) तंत्र का उत्कृष्टतम प्रयोग कहा जा सकता है, जिसकी परिणति विश्व राष्ट्र की कुण्डलिनी जागरण के रूप में हुई।

ताँत्रिक आचार्यों के अनुसार, तंत्र की उच्चतर सिद्धि उसे प्राप्त होती है, जिसका गुरुकृपा से सुषुम्ना में प्रवेश हो जाता है और जिसकी कुण्डलिनी शक्ति का जागरण हो जाता है। तंत्र का मत है कि जो साधक इन्द्रियों और प्राणों को रोककर कुल मार्ग में सक्रिय नहीं हो जाता, वह शक्ति की निकृष्ट (निम्न)उपासना का भी अधिकारी नहीं है। मेरुतंत्र के अनुसार, जो परद्रव्य के प्रति अंधा है, परस्त्री के प्रति नपुँसक है, परनिंदा के लिए मूक है और इन्द्रियों को सदा वश में रखता है, ऐसा ब्रह्मपरायण व्यक्ति ही वाममार्गी तंत्र साधना का अधिकारी होता है। यह अधिकार प्राप्त करने के लिए ताँत्रिक सिद्धान्तों का गम्भीर अनुशीलन और साधना मार्ग का निष्ठापूर्ण अनुगमन आवश्यक है।


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