ज्योति अवतरण की शक्तिदायी साधना

August 2003

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प्रारंभिक स्तर की साधन वह कहलाती है, जिसमें माँ की छवि के साथ-साथ पूजा- उपकरणों की आवश्यकता होती है। भावनाओं के विकास और अपनी श्रद्धा-निष्ठा को प्रगाढ़ बनाने की दृष्टि से लिए उच्चस्तरीय ध्यान धारणा ही काम में आती हैं इष्ट के चित्र और प्रतिमा के साथ की गई उपासना से पूर्वाभास, सुखद स्वप्नों में भविष्य ज्ञान, माता के दर्शन, अंतः करण से दिव्य भावनाओं की स्फुरणा इस साधना की सफलता के संकेत होते हैं, किंतु आत्मसाक्षात्कार की भूमिका वह होती है, जिसमें सालोक्य, सारूप्य तथा सायुज्य की अनुभूति होती है। यह स्थिति भगवती गायत्री के तेजपुंज में अपने आपको घुलाने, मेल-मिलाप कराने के अभ्यास से प्रारंभ होती है और उस तेज पुँज में समाधिस्थ हो जाने की प्रगाढ़ अवस्था में उसकी परिणति। उस स्तर का साधक अपने आप को सविता के तेजपुँज की स्थिति में अनुभव करता और विराट आत्मा की अनुभूति करता है। इस दृष्टि से तेजपुँज ज्योति अवतरण की साधना का अभ्यास आवश्यक हो जाता है।

इसके लिए चित्र आदि की आवश्यकता नहीं। रात्रि को यदि कभी आँख खुल जाए तो बिस्तर पर पड़े-पड़े भी किया जा सकता है। बैठकर करनी हो तो दीवार, मसंद का सहारा लिया जा सकता है। आरामकुमारी भी काम में लाई जा सकती है। शरीर को शिथिल, मन को एकाग्र करके सुविधा के समय इस साधना करना चाहिए। समय कितना लगाना है, यह अपनी सुविधा एवं परिस्थिति पर निर्भर है, पर जितना भी समय लगाना हो उसे तीन भागो में विभक्त कर लेना चाहिए। एक तिहाई में स्थूलशरीर में ज्योति का अवतरण करना चाहिए। अनुमान से या घड़ी की सहायता से यह समय निर्धारित करना चाहिए।

सूक्ष्म जगत में ईश्वरीय दिव्य प्रकाश की प्रेरणापूर्ण किरणें निरंतर बहती रहती हैं उन्हें श्रद्धा, एकाग्रता और भावनापूर्वक ध्यान करके इस लेख में वर्णित विधि से कोई भी साधक ग्रहण कर सकता है। गायत्री परिवार के लिए इस साधना में संलग्न साधकों के लिए दो-दो घंटे के दो ऐसे समय भी नियुक्त है, जिनमें किन्हीं महान दिव्य शक्तियों द्वारा अपना शक्तिप्रवाह भी जोड़ा जाता है। उस समय ध्यान करने में विशेष आनंद आता है और विशेष प्रभाव पड़ता है। श्रेष्ठतम समय रात्रि को 6 से 8 बजे और प्रातः 3 से 6 बजे का है। शांतिकुंज में यह साधना अभी 1.45 से 2 की अवधि में कराई जाती है।

आरंभ में यह समय एक बार में आधा घंटे से अधिक का नहीं होना चाहिए। धीरे-धीरे समय बढ़ाकर एक घंटे तक का किया जा सकता है। रात्रि के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध में दोनों बार भी साधना की जा सकती है। तब दो बार में कुल मिलाकर एक घंटे तक का यह समय हो सकता है। 24 घंटे में 2 घंटे इसके लिए अधिकतम समय हो सकता है। अधिक तेज के ग्रहण करने में कठिनाई पड़ती है, इसलिए ग्रहण उतना ही करना चाहिए, जितना पचाया जा सके, कम से आरंभ कर धीरे-धीरे समय बढ़ाया जा सकता है। कौन किस समय इस साधना को करे, कितनी देर, किस प्रकार बैठकर करे, यह निर्धारण करना साधक का काम है। अपनी परिस्थितियोँ के अनुसार उसे अपनी व्यवस्था किया जाए, उसे उसी क्रम चलाना चाहिए। समय और स्थिति का एक ही क्रम चलाना किसी भी साधना की सफलता के लिए उचित एवं आवश्यक है।

ज्योति अवतरण साधना इस प्रकार करनी चाहिए-

(1) शरीर का बिल्कुल शिथिल कर देना चाहिए। भावना करनी चाहिए कि अपना मन, शरीर ओर आत्मा पूर्ण शाँत, निश्चिंत एवं प्रसन्न स्थिति में अवस्थित हैं। यह भावना पाँच मिनट करने से चित्त में ध्यान के उपयुक्त शाँति उत्पन्न होने लगती है।

(2) ध्यान कीजिए चारों ओर प्रकाश-पुँज फैला हुआ हो। आगे-पीछे, ऊपर -नीचे सर्वत्र प्रकाश फैल रहा है। भगवती आदिशक्ति की आभा सूर्यमंडल से निकल कर सीधी आप तक चली आ रही है और आप उस प्रकाश के घेरे में चारों ओर से घिरे हुए हैं।

(3)यह प्रकाश किरणें धीरे-धीरे आपके शरीर में, त्वचा छिद्रों में प्रवेश करती हुई प्रत्येक अवयव में घुस रही हैं। हृदय, फेफड़े, आमाशय, आँत, मस्तिष्क, हाथ, पैर आदि अंग पुँज को अपने भीतर धारण करके परिपुष्ट हो रहे हैं। असंयम की वृत्ति जल रही है। पवित्रता की यह ज्योति शरीर के कण-कण का पवित्र बनाने में संलग्न है।

स्थूल शरीर में रक्त-माँस, अस्थि आदि के बने हुए अवयवों के प्रकाशपुँज बनने और उनके परिपुष्ट, पवित्र, स्फूर्तिवान एवं ज्योतिर्मय स्वरूप का ध्यान करने के उपराँत सूक्ष्म शरीर केंद्रित करना चाहिए। सूक्ष्म शरीर का स्थान मस्तिष्क है।

(4) ध्यान करना चाहिए कि मस्तिष्क के भीतर मक्खन जैसे बिखरे हुए गुणों में अगणित प्रकार की मानसिक शक्तियों एवं विचारणाओं के केंद्र छिपे हुए हैं। उन तक आदि शक्ति माता के प्रकाश की धाराएँ बह रही हैं और वे सभी कण उसके द्वारा रत्नकणों की तरह ज्योतिर्मय होकर जगमगाने लगे हैं।

(5) मन में छिपे हुए अज्ञानाँधकार का असंयम, स्वार्थ, मोह, भय और भ्रम-जंजाल का इस प्रकाश के प्रवेश होने से विनाश हो चला और मानसिक संस्थान का कण-कण विवेक, उच्च विचार, संतुलन एवं सुरुचि जैसी विभूतियों से जगमगाने लगा। सविता के तेज रूप गायत्री माता की इस ज्योति द्वारा अपनी मनोभूमि सको महापुरुषों जैसे स्तर की बनाया जा रहा है और हम उस प्रकाश को बड़ी श्रद्धापूर्वक अधिकाधिक मात्रा में मस्तिष्कीय कणों में ग्रहण एवं धारण करते चले जा रहे हैं।

(6) ध्यान करना चाहिए कि आकाश में अनंत प्रकाश की आभा अवतरित होकर अपने हृदय स्थान में अवस्थित आत्मा के अंगुष्ठ मात्र प्रकाशपुँज में प्रवेश कर रही है। उसकी सीमाबद्धता, संकीर्णता और तुच्छता दूर कर उसे अपने सदृश बना रही है। लघु और महान का यह मिलन परस्पर महान आदान-प्रदान के रूप में परिणत हो रहा है।

(7) जीवात्मा का लघु प्रकाश परमात्मा के परम प्रकाश से लिपट रहा है और दीपक पर जलने वाले पतंगे की तरह, यज्ञकुँड में पड़ने वाली आहुति की तरह अपने अस्तित्व को होम रहा है। चकोर की तरह उस प्रकाश पुँज का चंद्रमा मानकर आह्लादित हो रहा है और अनंत आनंद का अनुभव कर रहा है।

(8) इस मिलन के फलस्वरूप अंतःकरण में सद्भावनाओं की हिलोरें उठ रही हैं, आकाँक्षाएँ आदर्श एवं उत्कृष्टता से परिपूर्ण हो चली हैं। ईश्वरीय संदेशों और आदर्शों पर चलने की निष्ठा परिपक्व हो रही हैं। विश्व के कण-कण में परमब्रह्म को ओत-पोत देखकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्‘ की भावना प्रबल हो रही है और सेवा-धर्म अपनाकर ईश्वर-भक्ति के मधुर रसास्वादन की उमंग उठ रही है।

(9) अनंत प्रकाश के आनंदमय समुद्र में स्नान करते हुए आत्मा अपने आपको धन्य एवं कृत-कृत्य हुआ अनुभव कर रही है।

इस संसार में जीवन को सफल बनाने की सबसे बड़ी शक्ति अध्यात्म ही है। उसी के द्वारा मनुष्य अपने को पहचान सकता है और समस्त प्राणियों का एक ही महाशक्ति का अंश समझकर उसके साथ अपनत्व का अनुभव कर सकता है। इस तरह की भावना हमारी शक्ति को अनेक गुना बढ़ा सकती हैं। ‘ज्योति अवतरण’ की साधना से मनुष्य इस सर्वव्यापी आत्मतत्त्व की वास्तविकता का बहुत कुछ अनुभव कर सकता है। यह अनुभूति जितनी प्रगाढ़ होगी, आत्मानुभूति, आत्मसाक्षात्कार और अपनी परमात्मामय होने की भावना उतनी ही सघन होती चली जाएगी।


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