15 अगस्त राष्ट्र अर्चन का महापर्व है। आज इस शुभ घड़ी में एक अरब से भी अधिक भारतवासियों की उफनती-उमड़ती भावनाएँ राष्ट्र आराधन के लिए तत्पर हैं। चिर अतीत से भारतभूमि के निवासियों के लिए राष्ट्र उपास्य और ईष्ट रहा है। पश्चिमी दुनिया के लिए ‘नेशन’ या ‘स्टेट’ तकनीकी और आर्थिक इकाई भर है। यही कारण है कि वहाँ सभी ओर स्वार्थपूर्ण स्पर्धा व संघर्ष की ही सृष्टि हुई है। जबकि वैदिक ऋषियों ने राष्ट्र को प्रखर साँस्कृतिक चेतना के रूप में विकसित किया। अथर्ववेद की ऋषिवाणी कहती है-
भद्रं इच्छन्त ऋषयः स्वर्विदः तपो दीक्षाँ उपसेदुः अग्ने। ततो राष्ट्रं बलं ओजश्च जातम् तदस्मै देवा उपसं नमन्तु॥ - अथर्व. 19/4/19
आत्मज्ञानी ऋषियों ने जगत् का कल्याण करने की इच्छा से सृष्टि के प्रारम्भ में जो दीक्षा लेकर तप किया उससे राष्ट्र का निर्माण हुआ। राष्ट्रीय बल और ओज प्रकट हुआ।
भारतभूमि के महान् महर्षियों ने यहाँ की प्रकृति प्रदत्त विविधताओं को सहज भाव से स्वीकार किया था। साथ ही उन्होंने मनुष्य के अन्तःकरण में स्थित परिष्कृत चेतना को लक्ष्य करके साँस्कृतिक एकता के भाव भरे सूत्रों को विकसित एवं प्रतिष्ठित करने में सफलता पायी। मानवीय चेतना विज्ञान के मर्मज्ञ ऋषियों ने अनुभव किया था कि केवल भौतिक आधारों पर बनाए गए सम्बन्ध टिकाऊ-चिरंजीवी नहीं हो सकते। प्रधानता यदि भौतिक आधारों को ही दी जाए तो पारस्परिक सम्बन्धों में देर-सबेर स्वार्थ, प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, शोषण आदि का समावेश हो ही जाता है। इसीलिए उन्होंने राष्ट्रीय सहअस्तित्व को कालजयी बनाने के लिए साँस्कृतिक आधारों को प्रधानता दी। साँस्कृतिक सूत्रों को उन्होंने जन-जन के भावनात्मक स्तर तक गहराई में बिठाया।
राष्ट्र का शाब्दिक अर्थ है- रातियों का संगम स्थल। ‘राति’ शब्द देने का पर्यायवाची है। राष्ट्रभूमि और राष्ट्रजनों की यह संयुक्त इकाई राष्ट्र इसलिए कही जाती है, क्योंकि यहाँ सभी राष्ट्र जन अपनी-अपनी देन (समर्पण-त्याग की आहुति) राष्ट्रभूमि के चरणों में अर्पित करते हैं। इसी वजह से उनमें राष्ट्र के लिए सर्वस्व त्याग एवं पूर्ण समर्पण की भावना उद्भूत होती है। राष्ट्रभूमि के प्रति प्रेम, सेवा और त्याग का भाव उनमें राष्ट्र निष्ठ बनकर प्रकट होता है। इस निष्ठ की व्याख्या करते हुए पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था- ‘जब एक मानव समुदाय के समक्ष-एक लक्ष्य, एक उद्देश्य और एक आदर्श रहता है और वह समुदाय किसी भूमि विशेष को मातृभाव से देखता है तो वह राष्ट्र कहलाता है।’
डाँ. सम्पूर्णानन्द के अनुसार जब यह माना जाता है कि राष्ट्र का अर्चन आराधन करना चाहिए तो उसका मतलब यह है कि राष्ट्र निवासियों के सामने एक निश्चित लक्ष्य एवं आदर्श होना चाहिए जिसकी प्राप्ति के लिए वह प्रयत्न करे। इन्हीं कारणों से डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के वचन हैं - जो राष्ट्र जीवन रस से भरा है, वह प्रभावों से डरता नहीं है। वह खुली आँखों से जगत् के समस्त पदार्थों, धर्मों, मतों, काव्यों को, चित्रों को देखता है और उन्हें अपनी विशेष दृष्टि से आलोकित करता है। वह औरों के महत्त्व को आत्मसात् करता है और अपने महत्त्व से सभी को प्रभावित करता है।
राष्ट्र अर्चन का महामंत्र देने वाले स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- राष्ट्र अर्चन से श्रेष्ठता और कुछ भी नहीं। हमारे लिए एक ही श्रेष्ठतम देवता है-राष्ट्रदेवता। इसी की अर्चन-आराधना हमारा जीवन व्रत होना चाहिए। स्वामी जी कहते थे, प्रत्येक राष्ट्र का अपना जीवन व्रत है, जो विभिन्न जाति-समूह की सुश्रृंखल अवस्थिति के लिए विशेष आवश्यक है। और जब तक वह राष्ट्र उस आदर्श को पकड़े रहेगा, तब तक किसी भी तरह उसका विनाश नहीं हो सकता।
15 अगस्त जिनकी जन्मतिथि है, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र आराधन के लिए अर्पित कर दिया, उनके लिए राष्ट्र का महत्त्व कुछ विशेष था। उनके शब्द हैं - ‘राष्ट्र हमारी जन्मभूमि है। यह जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है, न ही एक शाब्दिक नाम है, न मन की कपोल कल्पना है। यह एक विराट् शक्ति है, जो लाखों-लाख लोगों की शक्तियों का समन्वय है। प्रत्येक राष्ट्र मानव जाति के अन्दर विकसित होती हुई आत्मा की ही एक शक्ति है जिस शक्ति तत्त्व का मूर्त रूप है, उसी के सहारे वह जीवित रहता है।’
महर्षि अरविन्द के अनुसार- राष्ट्र एक साँस्कृतिक इकाई है। इसलिए राजनैतिक एकता चाहे न भी रहे तो भी राष्ट्र बना रहता है, कठोर प्रयत्न करता है, कष्ट उठाता है परन्तु नष्ट नहीं होता। श्री अरविन्द आश्रम की श्री माँ के शब्दों में - जैसे महिषासुर मर्दिनी भवानी देवों की सम्मिलित शक्ति है। उसी तरह से अपना राष्ट्र भी है। यह केवल एक भूखण्ड भर नहीं है। यह एक चेतन सत्ता है, स्वर्गादपि गरीयसी है। यह तप, शक्ति एवं संभावनाओं को अपने अन्दर धारण करने में उन्हें बीजों की तरह विकसित करने में समर्थ है।
ऐसे महिमामय राष्ट्र का अर्चन-आराधन कैसे करें? इस जिज्ञासा के समाधान में वेद वचन सम्पूर्ण समर्थ है। ऋषिगणों का कथन है कि राष्ट्र को सात महाशक्तियों ने धारण किया हुआ है। राष्ट्र निवासियों में इनका निरन्तर विकास ही राष्ट्र का अर्चन है। अथर्ववेद की ऋचा में इसका वर्णन कुछ इस भाँति है-
सत्यं बहदतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्मयज्ञः पृथिवीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य पान्युरं लोके पृथिवी न कृणोतु॥ अथर्व. - 12/11
बृहत् सत्य, बृहत् ऋत, उग्रम (क्षात्र शक्ति), दीक्षा, तप, ब्रह्मशक्ति और यज्ञ इन सात महाशक्तियों के आधार पर ही कोई राष्ट्र खड़ा हो सकता है, स्थिर रह सकता है, आगे बढ़ सकता है और सब प्रकार की उन्नति कर सकता है।
इन सात शक्तियों में से प्रथम शक्ति बृहत् सत्य का अर्थ है- राष्ट्रवासी सदाचरण युक्त सत्यान्वेषी व सत्यव्रती हों। ऋतम् बृहत् का अर्थ है- जीवन एवं प्रकृति के नियमों का बोध। यह बोध राष्ट्र वासियों में अनिवार्य है। ऐसा होने से राष्ट्र की सभी संकटों से रक्षा होती है। तीसरी शक्ति उग्रम या क्षात्र शक्ति है। राष्ट्रवासियों में तेज-बल होना चाहिए। राष्ट्र में शूरवीरों की संख्या बढ़ी-चढ़ी हो। दीक्षा राष्ट्र की चौथी शक्ति है। इसका अर्थ है- राष्ट्रीय संकल्प के प्रति राष्ट्रवासियों की सम्पूर्ण निष्ठ। पाँचवीं शक्ति तप है। राष्ट्रीय उन्नति-प्रगति के लिए असह्य कष्ट वरण ही तप है।
ब्रह्म राष्ट्र की छठवीं शक्ति है। यह राष्ट्र की ज्ञान शक्ति है। राष्ट्र वासियों में ज्ञान-प्रतिभा, विशेषज्ञता का विकास ही इस छठवीं शक्ति का अभिवर्धन है। सातवीं शक्ति यज्ञ है। ‘इदं न मम’ का मंत्र ही राष्ट्र को उन्नत बनाता है। लोक हित-जनहित की कामना ही राष्ट्र में यज्ञीय भाव का विस्तार है। इन सातों महाशक्तियों का निरन्तर अभिवर्धन ही राष्ट्र अर्चन है। स्वाधीनता दिवस के पुण्य क्षणों में राष्ट्रवासी यदि राष्ट्र अर्चन के लिए संकल्पित हो सकें तो ही इस पावन दिन की महिमा अपने सम्पूर्ण रूप में प्रकट हो सकेगी।