पछताने का भी मौका न मिला (kahani)

August 2003

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एक बाँस का पेड़ था। जंगल में अकेला खड़ा था। पड़ोस में रहने वाले समय-समय पर उसमें से छोटी-बड़ी लकड़ी काट ले जाते थे। एक दिन नारद जी उधर से गुजरे। बाँस गिड़गिड़ाकर बोला, “मुझे बड़ा परिवार होने का आशीर्वाद दीजिए।” मुनि सहज ही भाव से “तथास्तु” कहकर आगे चले गए। थोड़े दिनों में बाँस के अंकुर उपजे और बड़ी सी झाड़ी बन गई। धूप न मिलने से बूढ़ा बाँस सूखने लगा। झाड़ी इतनी बड़ी और कँटीली थी कि उसमें हाथ डालने की किसी की हिम्मत न पड़ती। जरूरत होने पर भी लोग मन मारकर बैठ जाते। घने पत्तों से खिन्न चिड़ियों ने घोंसले तक वहाँ बनाने बंद कर दिए।

एक बार तेज आँधी आई। बाँस आपस में रगड़ने लगे और उनमें आग पैदा हो गई। पूरा समूह जल गया। बाँस को अपनी अज्ञानता पर पछताने का भी मौका न मिला।


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