अध्यात्म बताता है लौकिक के साथ आत्मिक प्रगति का पथ

August 2003

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सीढ़ियाँ चढ़नी हों तो एक के बाद एक कदम बढ़ाना पड़ता है और एक-एक सीढ़ी पार करते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। कोई यदि छलाँग लगाकर शीर्ष पहुँचना चाहे तो दुर्घटना घटे बिना नहीं रह सकती। यह बात आत्मोत्थान के संदर्भ में भी है। मनुष्य जिस परिवार में, समाज में, राष्ट्र और युग में जीता है, वे उसके लिए आगे बढ़ने, ऊँचा उठने के एक-एक सोपान के समान हैं। इनसे होकर ही आगे बढ़ना पड़ता है। प्रगतिक्रम में इनकी उपेक्षा करते हुए कोई यह सोचे कि वह कोई बजरंगी छलाँग मारकर चरम लक्ष्य तक पहुँच जाएगा तो इसे उसकी प्रवंचना और अध्यात्म विज्ञान की अवमानना ही समझना चाहिए।

बालक जब छोटा होता है तो पहले अक्षर-ज्ञान कराना पड़ता है, तभी वह उस स्थिति में पहुँच पाता है कि पुस्तकें पढ़ सके। फिर जैसे-जैसे उसकी योग्यता बढ़ती जाती है, वैसे ही वैसे एक-एक कक्षा ऊपर उठते हुए वह स्कूल में कॉलेज में पहुँचता और स्नातक एवं स्नातकोत्तर की डिग्रियाँ प्राप्त करता है। यह प्रगति का स्वाभाविक क्रम है। भौतिक सफलता से लेकर आत्मोन्नति तक में इसी सिद्धाँत का अनुसरण करना पड़ता है, तभी वह पद प्राप्त होता है, जिस पर गर्व-गौरव अनुभव किया जा सके। हाथ पर सरसों जमाने जैसी जल्दबाजी तो बाजीगरी में ही देखी जाती है, इसलिए तुर्त-फुर्त का प्रतिफल वहाँ तत्क्षण में समाप्त हो जाता है। अध्यात्म न तो बाजीगरी है और न ऐसा कुछ कहने लायक उपलब्धि की आशा की जा सके। इसमें तो परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के हित से जुड़े निर्धारित मार्ग पर होकर गुजरना पड़ता है और स्वयं को उन कसौटियों में खरा सिद्ध करना पड़ता है, जिसे साधना विज्ञान में आवश्यक अनुबंध के रूप में स्वीकारा गया है। संसारी व्यक्तियों के लिए यह दुनिया ही साधना-भूमि है। इससे बढ़कर अनुकूल स्थान साधना के लिए कोई दूसरा हो नहीं सकता।

इस साधना स्थल में उसे उपासना के प्रथम चरण के रूप में पहले परिवार की प्रारंभिक भूमिका से होकर गुजरना पड़ता है। इसके पूरा होने के उपराँत उसे दूसरी भूमिका-समाज-साधना में प्रवेश करना पड़ता है। इसके पश्चात राष्ट्र-साधना की तीसरी अवस्था आती है। अंतिम भूमिका विश्व-साधना की है, जिसे ठीक प्रकार पूरा कर लेने के बाद व्यक्ति की अवस्था योगसिद्ध योगी स्तर की हो जाती है। इस दशा में योग-साधना की वह समस्त विभूतियाँ हस्तगत की जा सकती हैं, जिसका अधिकारी एक यती ही है। जो संसार छोड़ने और वैरागी बनने की बात करते हैं, उनका वैराग्य भी समाज के बिना अधूरा है। भला साधन-सुविधाहीन वन में वैराग्य की परीक्षा किस भाँति हो सकेगी? यदि कोई ऐसी अभावग्रस्त स्थिति में रह भी रहा हो तो इसे उसकी मजबूरी कहनी चाहिए, वैराग्य नहीं। जो जीवनभर सरोवर में कभी उतरा नहीं, वह बढ़-चढ़कर जल में नहीं डूबने का दंभ करे तो इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है? डूबने, नहीं डूबने की परख तो उसके पानी में प्रवेश करने के बाद ही हो सकती है, बाहर रहकर नहीं। जो दुनिया में रहकर भी निर्लिप्त बना रहता है, वास्तविक वैरागी वही है। जिसने यह अवस्था प्राप्त कर ली है, उसके लिए कंदरा और वन का एकाँत मात्र दिखावा है, उसके लिए कंदरा और वन का एकाँत मात्र दिखावा है। इस आडंबना में वही पड़ते है, जिन्हें बड़प्पन की, मान-सम्मान की चाह होती है, अन्यथा जो सही-सही योग साधना चाहते है, उनके लिए समाज से बढ़कर कोई दूसरी उपयुक्त योगस्थली नहीं है।

महाकवि गेटे ने अपने नाटक ‘फास्ट’ में एक ऐसे चरित्रनायक का वर्णन किया है, जो आत्मज्ञान संग्रह का अभिलाषी है। संसार में रहकर ही वह इसे प्राप्त करना चाहता है, पर कुछ समय पश्चात उसे ऐसा अनुभव होने लगा जैसे इस ज्ञान-संपादन में दुनिया सबसे बड़ी बाधा है। वह इसे छोड़ समाज से बहुत दूर कहीं एकाँत वन-प्राँत में चला जाता है और तपस्या करने लगता है, पर यहाँ भी उसकी एकाग्रता सध नहीं पाई। थक-हारकर वह पुनः समाज में आ जाता है। किंतु अब तक उसकी अधिकाँश आयु चुक गई थी। वह हताश हो जाता है। उसे संतोष था तो मात्र इतना ही कि जीवन के अंतिम समय में उसे बोध हो गया, जिसके न होने के कारण ही वह अब तक संसार के अंदर और बाहर वनों में भटकता रहा।

कुछ ऐसा ही साराँश भारतीय पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास ‘विराट’ में आस्ट्रियाई उपन्यासकार स्टीफन ज्विग ने प्रस्तुत किया है। नायक विराट निष्कर्म योग का पक्षधर है। वह अपने अनुयायियों समेत समाज से दूर चला जाता है, फिर भी अनुभव करता है कि वह पूर्ण निष्कर्म नहीं हो सका। वह वहाँ से और घने जंगल में आ जाता है। यहाँ भी वह बिल्कुल निष्कर्म नहीं हो पाता। यह अहसास होते ही विराट पुनः समाज में आकर निष्कर्म अवस्था त्यागकर कर्ममय जीवन अपना लेता है।

समाज में रहते हुए कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हुए ऐसा लग सकता है कि साँसारिक उलझनों में पड़कर व्यक्ति अपने लक्ष्य से भटक जाएगा। शायद इसीलिए इनसे बचने के लिए वह दूर चला जाता है। सोचता है, कदाचित इससे लक्ष्यप्राप्ति में शीघ्रता होगी, पर सचाई यह है कि अपने ढंग से वह जितनी जल्दबाजी करता है, ध्येय से उतना ही दूर हटता जाता है, विलंब उतना ही ज्यादा होता है, क्योंकि दायित्वों की उपेक्षा द्वारा आत्मलाभ कराने वाला कोई मार्ग दुनिया में है नहीं। जो रास्ता निर्धारित है, वह मध्यम मार्ग का राजपथ ही हो सकता है। जिसमें आवश्यकता कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। यहाँ एकदम भौतिकवादी बन जाने में भी हानि है और पलायनवादी बनने में भी घाटा है। नफा तो अतिवाद को त्यागकर ही उठाया जा सकता है।

साँसारिकता में आकंठ डूब जाना जीवन का एक सिरा है तो वैरागी बनकर संसार त्यागना इसका दूसरा छोर। जीवन में इन दोनों का समन्वय करके चलने से ही कुछ कहने लायक सफलता अर्जित की जा सकती है। वस्तु का ग्रहण और विसर्जन बंधन और वैराग्य यह दोनों ही आवश्यक हैं। किसी एक को छोड़कर और दूसरे को अपनाकर सत्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती, वरन् इनका सम्मिलित स्वरूप ही पूर्णता तक ले जाने में सफल हो सकता है। शंकर त्याग की और अन्नपूर्णा भोग की प्रतिमूर्ति हैं, दोनों मिलकर जब परिवार में, समाज में, राष्ट्र व विश्व में एक हो जाते है तो पूर्णता का वास्तविक आनंद-लाभ मिलता है, अन्यथा जहाँ कहीं भी बंधन और मुक्ति में , भोग एवं त्याग में, अनुराग तथा विराग में वैर-विरोध हुआ, वहीं नाना प्रकार की अशांति और असंतोष पैदा होने लगते हैं। इन दिनों के भटकाव का एकमात्र कारण इस संसार-व्यूह को भली भाँति न समझ पाना ही है। इस व्यूह में हमें प्रवेश करना भी आना चाहिए और उससे बाहर निकलना भी।

गड़बड़ी तब पैदा होती है, जब जीवन के किसी एक पक्ष को पूर्ण मान लिया जाता है और उसी एक क्रियाविधि को पूरा करने में सारा जीवन खपा दिया जाता है। यदि कोई व्यक्ति स्वयं को राज्य रक्षा का उपकरण मान बैठा हो तो वह अपने को सैनिक बना लेगा। यदि किसी को समाजिक समृद्धि का आधार माना गया हो तो हम उसे वणिक बनाने की चेष्टा करेंगे। किसी को जिम्मे शासन-संचालन का भार है तो वह राजनेता से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता। कोई नाट्यकार, रंगकर्मी और अभिनेता है तो अपना श्रेय-सौभाग्य वह स्वयं को विदूषक बनाने में ही मानता रहेगा और उसी के गिर्द जीवन भर उसके क्रियाकलाप चलेंगे, पर मनुष्य इतना ही है, सो बात तो नहीं। यथार्थ तो यह है कि मनुष्य न तो केवल सैनिक है, न व्यापारी, न नेता, न अभिनेता। यह तो उसके गुण, अभिरुचि, स्वभाव, संस्कार के हिसाब से विकसित हुआ व्यक्ति का एक हिस्सा है। उसका वास्तविक आपा इन्हें नहीं कहा जा सकता। मूलतः वह ब्रह्म का प्रकाश है। प्रकाश की पूर्णता उद्गम में मिलकर ही हो सकती है, पृथक रहने में नहीं।

साँसारिक लोगों की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वे व्यक्तित्व के इन अंग−उपांगों को ही सब कुछ मान बैठते और समस्त ध्यान इन्हीं को निखारने, उभारने, सुधारने, सँवारने में लगा देते हैं, जबकि मूल प्रयोजन अछूता बना रहता है। व्यक्तित्व की प्रखरता भौतिक सफलता के लिए आवश्यक तो है, पर साथ ही इस बात पर भी विचार करते रहना चाहिए कि लौकिक समृद्धि के साथ आत्मिक प्रगति कितनी हुई? हुई या नहीं? समय-समय पर ऐसी समीक्षा के द्वारा ही इस प्रवृत्ति मार्ग में निवृत्ति मार्ग जैसा भावभूमि और अंतःकरण विकसित किए जा सकते हैं। इस दिशा में जितनी और जैसी गति होगी, उसी हिसाब से मनुष्य लक्ष्य के करीब पहुँचता जाएगा।

इस प्रकार का समन्वयात्मक मार्ग वर्तमान समय की ही अनिवार्यता है, सो बात नहीं। प्राचीनकाल में भी इसकी आवश्यकता अनुभव की गई थी। उपनिषदों में यत्र-तत्र इस बात की झलक-झाँकी मिल जाती है। ईशोपनिषद् में स्पष्ट उल्लेख है कि जो केवल अविद्या अर्थात् संसार की ही उपासना करते हैं, वे अंध तमस् में प्रवेश करते हैं और उससे भी अधिक अंधकार में वे प्रवेश करते है, जो केवल ब्रह्मचर्चा में निरत रहते हैं। अन्यत्र कहा गया है-विद्या और अविद्या दोनों को ही जो एकत्र करके जानते हैं, वे अविद्या के द्वारा मृत्यु से उत्तीर्ण होकर विद्या अमृत को प्राप्त करते हैं।

श्रुति कहती है-“एव त्वयि नान्यथेतोअस्ति न कर्म लिप्यते। नरे।” हे नर! कर्म करों। कर्म में लिप्त न होना पड़े, ऐसा कोई पथ इस संसार में नहीं।

स्पष्ट है, प्राचीन समय में कर्म करते हुए, समाज और संसार में रहते हुए ईश्वरप्राप्ति का सर्वसम्मत मार्ग निर्धारित था, पर साथ ही इस बात की भी कड़ी चेतावनी थी कि संसार को साध्य न मान लिया जाए। साध्य तक पहुँचने का यह साधन मात्र है। इसका उपयोग और उपभोग तो हो पर लक्ष्यप्राप्ति के निमित्त। ऐसा आज भी संभव है। यदि ऋषि निर्दिष्ट ‘तेन त्यक्तेन भुज्जीथा’ के आदर्श को अपनाया और जीवन में उतारा जा सके तो इन दिनों के विषमताजन्य विष व्रण को न सिर्फ मिटाया जा सकना संभव है, वरन् स्थिर शाँति और सुव्यवस्था को भी प्रतिष्ठापित करना शक्य है।

ऋषियों ने इसी सुर में सुर मिलाते हुए समाज को कभी बाँधने की चेष्टा की थी। समाज को इन मर्यादाओं में बाँधकर फिर मनुष्य को ब्रह्म उपलब्धि कराने का प्रयास किया था। शरीर को अधम बताकर उसे पीड़ा देना नहीं चाहा, समाज को कलुषित कहकर उसका परित्याग करना नहीं चाहा, जीवन को अनित्य घोषित करके उसकी अवज्ञा करना नहीं सिखाया। उसने सब कुछ को ही ब्रह्म के द्वारा अखंड-परिपूर्ण करना चाहा था, इसके लिए चार आश्रमों की विशिष्ट व्यवस्था थी। प्रथमावस्था में गलाई-ढलाई की क्रिया संपन्न होती, ताकि उसमें भावी व्यक्तित्व की मजबूत इमारत खड़ी की जा सके। द्वितीय चरण में गृहस्थ की जिम्मेदारियों को निबाहते हुए परिवार और समाज की सुव्यवस्था में योगदान करना पड़ता। तृतीय चरण या वानप्रस्थ में द्वितीय भूमिका का ही विराट विस्तार हो जाता और जो कर्त्तव्य पहले घर-परिवार तक सीमित थे, वे अपरिमित हो जाते, उनका कार्यक्षेत्र पूरी पृथ्वी हो जाता। इसी अवस्था में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘ की भावना विकसित होती और व्यक्ति समस्त संसार को अपना वृहत्तर परिवार और यहाँ के निवासियों को भगवान की साकार प्रतिमा मानकर उनकी सेवा करता। इस प्रकार विराट ब्रह्म की सेवा करते-करते वह’ जीवनमुक्ति’ की चतुर्थ और अंतिम अवस्था ‘संन्यास’ में अवस्थान करता।

पूर्णता प्राप्ति के यह चार क्रमिक सोपान थे, पर अब जबकि समाज और संसार के साथ-साथ संपूर्ण नीति-नियम-मर्यादाओं की ही अवहेलना करने पर मनुष्य उतारू हो गया है तो देखना यह है कि उसकी मुक्ति किस हद तक कितनी जल्दी हो सकेगी। यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मुक्ति कहीं बाहर नहीं, अपने ही अंदर की एक विशिष्ट अवस्था है। जिसको समाज में रहते हुए ही विकसित करना पड़ता है, तभी जीते-जी उस अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है, जिसे स्वर्ग, सद्गति, शाँति कहकर पुकारा गया है।


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