अन्तःलोक का आलोक

August 2003

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हवा के एक झोंके ने मिट्टी का दीया बुझा दिया। मिट्टी के दीयों का भरोसा भी क्या? कब टूटे और बिखरकर मिट्टी में मिल गए। उन ज्योतियों का साथ भी कितना, जिन्हें हवाएँ जब-तब बुझा सकती है। ज्योति के बिना जीवन अँधेरों में डूब जाता है। ये अँधेरे सदा ही भयावह होते हैं। जिन्हें अनुभव है, वे जानते हैं कि अँधेरे में प्राण कँप जाते हैं और साँसें लेना भी कठिन हो जाता है।

जीवन ही नहीं जगत् भी अँधेरे से घिरा है। ऐसी कोई भी ज्योति इस जगत् में नहीं है, जो अँधेरे को पूरी तरह मिटा दे। जो भी ज्योतियाँ हैं, उन्हें देर-सबेर हवाओं के झोंके अँधेरों में डुबा देते हैं। ये जलती हैं और बुझ जाती हैं, पर अँधेरे की सघनता जस की तस बनी रहती है। जगत् में फैला हुआ अँधेरा शाश्वत है। जो इस जगत् की ज्योतियों पर भरोसा करते हैं, वे नासमझ हैं, क्योंकि ये ज्योतियाँ सब की सब आखिरकार अँधेरे से हार जाती हैं।

अंधकार से भरे इस जगत् से परे एक और लोक भी है। जहाँ प्रकाश ही प्रकाश है। इस बाहरी जगत् में प्रकाश क्षणिक और सामयिक है एवं अँधेरा शाश्वत है तो इस आन्तरिक जगत् में अंधकार क्षणिक व सामयिक है और प्रकाश शाश्वत है। अचरज की बात यह है कि यह प्रकाश लोक हमारे बहुत निकट है, क्योंकि अंधकार बाहर है और प्रकाश भीतर।

याद रहे, जब तक अन्तःलोक के आलोक में जागरण नहीं होता, तब तक कोई भी ज्योति अभय नहीं दे पाती। जरूरत इस बात की है कि मिट्टी के मृण्मय दीपों पर भरोसा छोड़ा जाय और चिन्मय ज्योति को खोजा जाय। क्योंकि यही अभय, आनन्द और आलोक का स्रोत है। अँधेरे से घबराहट और आलोक की चाहत यह जताती है कि हमारी वास्तविकता प्रकाश ही है। क्योंकि आलोक ही आलोक के लिए प्यासा हो सकता है। जहाँ से प्रकाश की चाहत पनप ही है, वहीं खोजो, अन्तःलोक का आलोक-चिन्मय ज्योति का स्रोत वहीं छिपा है।


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