राजा कुमारपाल प्रजाप्रिय राजा थे। उनके गुरु सदा उच्चकोटि के परामर्श दिया करते थे। उस राज्य में विजयादशमी के दिन देवी पर पशुबलि बड़े धूम-धाम से चढ़ाई जाती थी। उस दिन सैकड़ों पशु काटे जाते थे।
आचार्य ने राजा को इस बलिप्रथा को बंद करने के लिए कहा। राजा ने कहा, प्रजाजन इसके लिए तैयार न होंगे। उन्हें मैं कैसे रुष्ट करूं? गुरु ने प्रजा को समझाने का काम अपने ऊपर लिया।
सजाधजाकर बलि के निमित्त प्रजाजन पशुओं को लाए। गुरुदेव ने उन सबको एकत्रित करके पूछा, देवी तो सबकी माता है। पशुओं की बलि लेकर तो वह रुष्ट होगी।
प्रजाजन ने एक स्वर से कहा, देवी बलि चाहती है और बलि से प्रसन्न भी होती है। यदि ऐसा न होता, तो हम लोग इस प्रथा को क्यों चलाते?
गुरुदेव ने कहा, आप लोगों की कथन की सच्चाई की वास्तविकता अभी परखे लेते हैं। देवी के मंदिर में सभी बलि चढ़ने वाले पशु बंद कर दिए गए। सवेरा होते ही दरवाजा खोला गया और देखा गया कि कितने पशु देवी ने भक्षण किए हैं।
दरवाजा खुलने पर सभी पशु गिने गए। एक भी कम न हुआ। गुरुदेव ने उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए कहा, देखा आप लोगों ने। देवी ने एक भी पशु नहीं खाया। उन्हें प्यारा पुत्र समझकर छोड़ दिया। फिर आप लोग ही प्राणि-हत्या का पाप क्यों ओढ़ते हैं?
गुरुजी की उक्ति से सभी प्रजाजन संतुष्ट हुए। पशुबलि रुक गई और प्रजाजन रुष्ट भी न होने पाए।