अहंकार गंदगी है, मल है।

August 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अनुभव से सने मीठे बोल सुनने वालों की भावनाओं में घुल रहे थे। श्रावस्ती नगर और आस-पास के गाँवों के लोग अपने आपको धन्य भागी समझ रहे थे। बड़भागी लग रहा था उन्हें अपना मानव जीवन। भगवान् बुद्ध के इन दोनों शिष्यों - सारिपुत्र और मौदगलायन के वचनों की पीयूष वर्षा उनकी अन्तर्चेतना की परतों को एक रहस्यमय रस से भिगो रही थी। तथागत इन दिनों श्रावस्ती में ठहरे थे। भिक्षु संघ के सदस्य सूर्य किरणों की भाँति चहुँ ओर उनकी प्रभा बिखेर रहे थे। भगवान् के आने से श्रावस्ती में जैसे एक आलोक-लोक बस गया था।

भिक्षु संघ के इन सदस्यों में सारिपुत्र और मौदगलायन की भाव दशा अपूर्व थे। ये दोनों भगवान् में सम्पूर्णतया अर्पित थे। भगवान् की भाव चेतना भी उनमें पूर्णतया समाहित थी। सभी नगर जन आस-पास के ग्रामवासी उनकी प्रशंसा कर रहे थे। अपूर्व था रस उनकी वाणी में, अपूर्व था भगवान् के उन दोनों शिष्यों का बोध; अपूर्व थी उनकी समाधि। उनके वचन सभी को जागृति का संदेश देते थे। सोये हुओं को जगाते थे, मृतकों को जीवनदान देते थे। उनके पास बैठना अमृत सरोवर में डुबकी लगाना था। ऐसे में सभी के मनों में प्रशंसा का उफान उमड़ना स्वाभाविक था।

निरन्तर उमड़ रही प्रशंसा की ये फुहारें जहाँ जिज्ञासुओं को सुख पहुँचा रही थी, वहीं लालुदाई को कंटकों की भाँति चुभ रही थी। उसे यह सब असह्य लग रहा था। ईर्ष्या की असह्य जलन से विकल हो वह सोचने लगा, आखिर ऐसा क्या है सारिपुत्र और मौदगलायन में जो उसके पास नहीं है। वह तो इन दोनों से तेज आवाज में बोल सकता है। उसके पास किसी से कम ज्ञान नहीं है। ईर्ष्या की लपटों ने उसके मन को इतना विकल एवं विह्वल बना दिया कि उसे सत्य भावनाएँ दिखाई न पड़ी।

ईर्ष्या की झुलसन से उसके अहंकार का नाग फुफकार उठा। क्रोध की विष धाराएँ बह उठीं। उसने कभी किसी को अपने से बुद्धिमान माना ही न था। यद्यपि वह भगवान् के चरणों में झुका करता था, पर केवल दिखावे के लिए। अपने भीतर तो वह भगवान् को भी स्वयं से श्रेष्ठ नहीं मानता था। उसका अहंकार अति प्रज्वलित अहंकार था। मौका मिलने पर वह प्रकारान्तर से परोक्ष रूप से भगवान् की भी आलोचना-निन्दा करने से नहीं चूकता था। कभी आज भगवान ने ठीक नहीं कहा, कभी कहता-भगवान् को ऐसा नहीं कहना था, कभी कहता- भगवान् होकर ऐसा नहीं कहना चाहिए।

अपने सद्गुरु की निन्दा-आलोचना में रस लेने वाला लालुदाई भला ज्येष्ठ गुरु भ्राताओं की प्रशंसा किस तरह सहन कर पाता। एक दिन वह उस स्थान पर जा पहुँचा जहाँ कई नगर जन सारिपुत्र और मौदगल्लायन की प्रशंसा कर रहे थे। लालुदाई ने इन नगर जनों को तेज आवाज में डाँटा - क्या बेकार की बकवास लगा रखी है तुम लोगों ने? आखिर रखा ही क्या है उन सारिपुत्र और मौदगलायन में? धर्म के वास्तविक तत्त्व से अनजान तुम लोग कंकड़-पत्थरों को हीरे समझ बैठे हो। अरे! परख करनी है तो पारखियों से पूछो। जवाहरात पहचानने हैं तो जौहरियों से पूछो। मुझसे पूछो और प्रशंसा ही करनी है तो मेरे धर्मोपदेश की करो।

लालुदाई की दबंग आवाज, उसका जोर से ऐसा कहना, नगर के लोग तो सकते में आ गए। वे सब सोचने लगे, हो न हो यह लालुदाई कुछ ज्यादा ही श्रेष्ठ समाधिसिद्ध हो। उन सबने उससे धर्मोपदेश की प्रार्थना की। लेकिन वह बार-बार टाल जाता। कभी कहता ठीक समय पर, ठीक ऋतु में बोलूँगा। ज्ञानी कभी और हर किसी को उपदेश नहीं करता। पहली बात तो यह कि सुनने वाले में पात्रता चाहिए। अमृत यूँ ही हर पात्र में नहीं डाला जाता।

ये सभी पते की बातें थीं। लोगों में प्रभाव बढ़ता गया। अपना प्रभाव जमाने के लिए वह यह भी कहता - ज्ञानी मौन रहता है। तुमने पढ़ा नहीं है शास्त्रों में कि जो बोलता है, वह जानता कहाँ है? जो चुप रहता है, वही जानता है। परमज्ञानी क्या बोलते हैं। नगरवासियों में उसकी धाक बढ़ती गयी। सत्य ही उनमें उत्सुकता भी पैदा हो गयी। इस बीच लालुदाई अपना व्याख्यान तैयार करने में लगे थे।

जब व्याख्यान शब्द-शब्द रट गया तो एक दिन धर्मासन पर आसीन हुए। सभी नगर जन, आसपास के ग्रामीण लोग उन्हें सुनने के लिए आये। लालुदाई ने तीन बार बोलने की चेष्टा की, पर अटक-अटक गए। बस सम्बोधन ही निकलता - उपासकों! ...... और वाणी अटक जाती। कई बार खाँसा-खखारा पर कुछ भी न सूझा। पसीना-पसीना हो गए। चौथी बार कोशिश की तो सम्बोधन भी न निकला। सब सूझ-बूझ खो गयी। रटा हुआ याद किया पर याद न आया। हाथ-पाँव काँपने लगे, घिग्घी बँध गयी। अब तो लोगों के सामने पोल खुल गयी।

लालुदाई मंच छोड़कर भागे। सभी नगर जनों ने उनका पीछा किया। सब के सामने यह सच्चाई उजागर हो गयी थी कि यह सारिपुत्र और मौदगलायन की प्रशंसा नहीं सुन सकता। भगवान् तक की आलोचना करता रहता है और खुद को कुछ आता-जाता नहीं है। नगरवासियों के आक्रोश से घबराकर भागते हुए लालुदाई मल-मूत्र के एक गड्ढे में जा गिरे और गन्दगी से लिपट गए। उनकी यह दशा देखकर नगरवासी हँसते हुए अपने घरों को वापस चले गए।

भगवान् के पास जब यह खबर पहुँची तो उन्होंने उपस्थित भिक्षुओं से ये धम्मगाथाएँ कहीं-

असज्झायमला मंता अनुट्ठनभला घरा। मलं वण्णस्स कोसज्जं पमादो रक्खतो मलं॥ ततो मला मलंतरं अविज्जा परमं मलं। एतं मलं पहत्वान निम्मला होथ मिक्खवे॥

अर्थात् - स्वाध्याय न करना मंत्रों का मैल है। झाड़-बुहारन करना घर का मैल है। आलस्य सौंदर्य का मैल है, प्रमाद पहरेदारों का मैल है। इन सब मैलों से भी बढ़कर अविद्या परम मैल है। भिक्षुओं इस मैल को छोड़कर निर्मल बनो।

इन धम्मगाथाओं का अंतःरहस्य बताते हुए भगवान् ने कहा- भिक्षुओं! यह लालुदाई जन्मों-जन्मों से ऐसी ही गन्दगी में गिरता रहा है। भिक्षुओं! अहंकार गन्दगी है, मल है। भिक्षुओं! अल्पज्ञान घातक है। कोरा शब्दज्ञान घातक है, अनुभव शून्य शास्त्र ज्ञान घातक है। इस लालुदाई ने केवल थोड़े से शब्द रट लिए थे, पर अनुभव के बिना कोरे शब्द तो बस बाँधते हैं। इस लालुदाई ने धर्म की कुछ बातें सुनी जरूर थी, पर उसने ठीक से स्वाध्याय नहीं किया। यदि उसने धर्म श्रवण पर ध्यान किया होता तो ऐसी दुर्गति न होती।

तथागत ने गम्भीर होकर कहा - ‘तुम सब उससे सीख लो। आलोचना सरल है-आत्मज्ञान कठिन है। विध्वंस सरल है-सृजन कठिन है। आत्मसृजन तो और भी कठिन है। अहंकार प्रतिस्पर्धा जगाता है। प्रतिस्पर्धा से ईर्ष्या पैदा होती है। ईर्ष्या से द्वेष और शत्रुता निर्मित होती है। ऐसे में अन्तर्बोध जगे भी तो कैसे? इसलिए पर चर्चा, पर निन्दा से बार-बार बचो। दूसरे का विचार ही न करो। समय थोड़ा है, स्वयं को जगा लो, बना लो। अन्यथा बार-बार मल-मूत्र के गड्ढों में गिरोगे। हे भिक्षुओं! तुम्हीं विचार करो- बार-बार गर्भ में गिरना मल-मूत्र के गड्ढे में गिरना नहीं तो और क्या है’?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118