दावानल की तरह बढ़ती चली (kahani)

August 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

फलोरेंस नाइटिंगेल का मन आरंभ से ही दीन-दुखियों की सेवा में जीवन लगाने का था, सो उसने नर्स की शिक्षा प्राप्त करने की कोशिश की। पिता को यह अच्छा नहीं लगा और विवाह के लिए जोर देते रहे। अंत में आग्रह नाइटिंगेल का ही माना गया। 33 वर्ष की आयु में उसे आशा मिली। वह क्रीमिया के युद्ध में घायल सैनिकों की सेवा करने युद्ध मोरचे पर चली गई। उसके आगे बढ़ने पर अन्य महिलाएं भी नर्स सेवा में सम्मिलित हुईं। उसके पहुँचते ही अस्पताल में आशातीत सुधार हुआ। पहले जहाँ घायलों में से 1 पीछे 8 मर जाते थे, अब वहाँ हजार पीछे 24 की मृत्यु दर रह गई। युद्ध समाप्त होने पर उसने नर्सों की शिक्षा का एक विद्यालय खोला और सारा जीवन पीड़ितों की सेवा में लगाया।

अबोध बालक की भैरव की प्रतिमा के सम्मुख बलि चढ़ाते हुए एक ताँत्रिक पकड़ा गया। उसे विक्रमादित्य के दरबार में अपराधी की तरह उपस्थित किया गया। परिचय पूछने पर उसने बताया- कुछ वर्ष पूर्व वह वेदपाठी ब्राह्मण था। कुत्साओं के कुचक्र में फंसकर एक के बाद एक बड़े कुकर्म करता गया। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि बालहत्या की नृशंसता अपनाने में भी कुछ अखरा नहीं। विक्रमादित्य ने आश्चर्य से पूछा- आपका पतनक्रम किस कारण आरंभ हुआ, किस प्रकार बढ़ा और स्थिति यहाँ तक कैसे पहुँची? इसका विवरण बताएं। अपराधी ब्राह्मण ने लंबी साँस खींचते हुए कहा-राजन्! कभी मैं अपरिग्रही जीवन जीता था। स्वल्प साधनों में सुखपूर्वक निर्वाह करता और ब्रह्मकर्म में रत रहता था। पड़ोसी का विलास-वैभव देखकर मन ललचाया। सोचा ऐसा ही ऐश्वर्य भोगा जाए। संतोष, अपरिग्रह और कर्म में क्या धरा है। दिशा मुड़ी तो हर कदम अधिक बड़े अनाचार की ओर उठता गया।

राजा ने पूछा-उस पतन-क्रम की शृंखला भी बताएं। अपराधी ने एक-एक करके उन आदतों और घटनाओं का वर्णन किया, जिनके कारण दुष्टता का दुस्साहस बढ़ता और प्रचंड होता चला गया था। ब्राह्मण ने कहा- स्वल्प श्रम में अधिक धन कमाने के लिए जुआ खेलना आरंभ किया। जुए के लिए अधिक धन की आवश्यकता पड़ी तो चोरी करने का सिलसिला चल पड़ा। चोरी से मुफ्त का माल मिला तो मदिरा पान और वेश्यागमन पकड़ता चला गया। अनाचारी ताँत्रिकों की शाखा में जाने, उनसे बलि कर्म द्वारा भैरव प्रसन्न करने, अनायास ही बहुत धन पाने की कामना करने का उपाय मुझे भी बहुत रुची। क्रूर कर्मों में निरत रहते-रहते बालवध में भी न दया आई और न आत्मग्लानि हुई। यही है मेरे पतनक्रम की शृंखला, जो चिंगारी की तरह हुई और ईंधन का आश्रय मिलते ही दावानल की तरह बढ़ती चली गई।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles