मेरी रीड अमेरिका से ईसाई मिशन के अंतर्गत भारत में सेवारत् रहने के लिए आई थीं। उन्हें महिला शिक्षा का काम सौंपा गया, पर पिथौरागढ़ प्रवास के समय उन्होंने देखा कि भारत में कोढ़ियों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। न कोई उनसे संपर्क रखता है, न चिकित्सा पर ध्यान देता है। रीड ने अपनी रुचि कोढ़ी सेवा में व्यक्त की। मिशन ने वैसा ही प्रबंध कर दिया। वे उत्तरप्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में दौरा करके कोढ़ियों को एकत्रित करने और उनकी चिकित्सा के साथ उन्हें अध्यापन तथा स्वावलंबन भी सिखाने लगीं। रोगियों को भारी राहत मिली। लोगों ने अनुभव भी किया कि हम अपने देशवासियों के लिए कुछ नहीं कर सकते और विदेशी दया धर्म का मूल समझकर कितना सेवा धर्म निबाहते हैं।
मेरी रीड को कुष्ठप्रधान वातावरण में रहते हुए स्वयं को भी वह व्याधि लग गईं उन्हें अमेरिका वापस बुलाया गया, पर उन्होंने यह कहकर इनकार कर दिया कि मैंने सारा जीवन उद्देश्यों के लिए सौंपा है। उससे पीछे कदम नहीं हटा सकती। वह स्वयं पीड़ित हो गई, पर उस रोग के रोगियों के कल्याण के लिए जो संभव था, आजीवन करती रही।