गुरुगीता-13 - गुरु से बड़ा तीनों लोकों में और कोई नहीं

August 2003

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गुरुगीता में गुरुतत्त्व की अनुभूति समायी है। सद्गुरु भक्तों के लिए सहज-सुलभ यह अनुभूति बुद्धिप्रवणजनों के लिए परम दुर्लभ है। ऐसे लोग अपनी तर्क-बुद्धि से देहधारी गुरुसत्ता को सामान्य मानव समझने की भूल करते रहते हैं। वे सोचते हैं हमारी ही तरह दिखने वाला यह व्यक्ति हमसे इतना अलग और असाधारण किस भांति हो सकता है। जो ठीक हमारी तरह खाता-पीता व सोता है, वह भला किस तरह ईश्वरीय तत्त्व की सघन प्रतिमूर्ति हो सकता है। अनेकों शंकाएँ-कुशंकाएँ उनके मन-अन्तःकरण को घेरे रहती हैं। अनगिनत संदेह-भ्रम उन्हें परेशान करते रहते हैं। मूढ़ताओं का यह कुहासा इतना गहरा होता है कि सूर्य की भाँति प्रकाशित सदगुरु चेतना उन्हें नजर ही नहीं आती। अपनी तर्क प्रवण बुद्धि में उलझकर वे यह भूल जाते हैं कि गुरुदेव तो तर्क से अतीत है। वे महा महेश्वर गुरुदेव बुद्धिगम्य नहीं भावगम्य हैं।

उन भावगम्य भगवान को तर्क से नहीं श्रद्धा से समझा जा सकता है। उन्हें नमन एवं समर्पण से ही इस सत्य का बोध होता है कि वे कौन हैं? गुरु भक्ति कथा की पिछली कड़ी में इसी तत्त्व की अनुभूति कराने की चेष्टा की गई थी। इसमें यह ज्ञान कराया गया था कि गुरुदेव ब्राह्मी चेतना से सर्वथा अभिन्न होने के कारण इन जगत् के परम स्रोत हैं। यह जगत् भी उन्हीं का विराट् रूप है। वे एक साथ महाबीज भी है और महावट् भी। ऊपरी तौर पर हर कहीं-सब कहीं कितना भी भेद क्यों न दिखाई दे, पर गुरुदेव की परम पावन चेतना सभी कुछ अभिन्न और अभेद है। उनके चरण कमलों में आश्रय पाने से शिष्यों के सभी दुःख, द्वन्द्व और तापों का निवारण हो जाता है। उनका प्रभाव और प्रताप कुछ ऐसा है कि महारुद्र यदि क्रुद्ध हो जायँ तो गुरु कृपा से शिष्य का त्राण हो जाता है, परन्तु सद्गुरु के रुष्ट होने से स्वयं महारुद्र भी रक्षा नहीं कर पाते हैं। सद्गुरु चरण युगल शिव-शक्ति का ही रूप हैं। उनकी बार- बार वन्दना करने से शिष्यों का सब भाँति कल्याण होता है।

गुरु नमन की यह महिमा गुरुतत्त्व के विस्तार की ही भाँति असीम और अनन्त है। इसके अगले क्रम को गुरुगीता के महामंत्रों में प्रकट करते हुए भगवान् सदाशिव -पराम्बा भवानी से कहते हैं-

गुकारं च गुणातीतं रुकारं रुपवर्जितम्। गुणातीत स्वरूपं च यो दद्यात् स गुरुः स्मृतः॥ 46॥

अ-त्रिनेत्रः सर्वसाक्षी अ-चतुबहिरच्युतः। अ-चतुर्वदनो ब्रह्म श्री गुरुः कथितः प्रिये॥47॥

अयं मयाञ्जलिर्बद्धो दयासागरवृद्धये। यद् अनुग्रहतो जन्तुश्र्वित्र संसार मुक्ति माक् ॥ 48॥

श्रीगुरोः परमं रुपं विवेक चक्षुषोऽमृतम्। मन्दभाग्या न पश्यन्ति अन्धाः सूर्योदयं तथा॥ 49॥

श्रीनाथ चरणद्वन्द्वं यस्याँ दिशि विराजते। तस्यै दिशेनमस्कुर्याद् भक्त्या प्रतिदिनं प्रिये॥ 50॥

गुरुतत्त्व की अनुभूति कराने वाले इन महामंत्रों में आध्यात्मिक जीवन का निष्कर्ष प्रकट है। भगवान् महेश्वर की वाणी शिष्यों के समक्ष इस सत्य को उजागर करती है कि गुरुदेव साकार होते हुए भी निराकार हैं। ‘गुरु ‘ शब्द का पहला अक्षर ‘गु’ इस सत्य का बोध कराता है कि त्रिगुणमय कलेवर को धारण करने वाले गुरुदेव सर्वथा गुणातीत है। दूसरे अक्षर ‘रु’ में यह सत्य निहित है कि शिष्यों के लिए रूप वाले होते हुए भी गुरुदेव भगवान् रूपातीत है। यानि कि गुरुवर की चेतना वास्तव में निर्गुण व निराकार है। शिष्य को आत्मा स्वरूप प्रदान करने वाले गुरुदेव की महिमा अनन्त है॥ 46॥ भगवान् सदाशिव के वचन हैं कि तीन आँखों वाले न होने पर भी गुरुदेव साक्षात् शिव हैं। चार भुजाएँ न होने पर भी वे सर्वव्यापी विष्णु हैं। चार मुख न होने पर भी वे सृष्टिकर्त्ता ब्रह्म हैं॥ 47॥ ऐसे दयासागर गुरुदेव को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। उनकी कृपा से ही जीवों को भेद बुद्धि वाले संसार से मुक्ति मिलती है॥ 48॥ श्री सद्गुरु का यह परम रूप उनसे विवेक चक्षु मिलने पर ही दृश्य होता है। तभी उनके अमृत तुल्य रूप का स्पर्श मिलता है। इसके अभाव में जिस तरह अन्धा व्यक्ति सूर्योदय के दृश्य को नहीं देख पाता ॥ 49॥ उन परम स्थायी सद्गुरु के चरणद्वय जिस दिशा में भी विराजते हैं उस दिशा में गुरुगीता में वर्णित यह गुरुतत्त्व बुद्धिगम्य नहीं ध्यानगम्य व भक्तिगम्य है। जिनकी अन्तर्चेतना ने भक्ति का स्वाद चखा है, जो ध्यान की गहराइयों में अन्तर्लीन हुए हैं, उन्हें यह सत्य सहज ही समझ में आ जाता है। इस तथ्य को श्री रामकृष्ण देव के शिष्य लाटू महाराज स्वामी अद्भुतानन्द के उदाहरण से समझा जा सकता है। श्री ठाकुर एवं उनके शिष्य समुदाय की जीवन कथा को पढ़ने वाले सभी जानते हैं कि लाटू महाराज प्रायः अनपढ़ थे। गुरु भक्ति ही उनकी साधना थी। भक्त समुदाय में बहुप्रचलित श्रीरामकृष्ण देव की समाधि लीन फोटो जब बनकर आयी तो श्री ठाकुर ने स्वयं उसे प्रणाम किया। लाटू महाराज बोले-ठाकुर यह क्या, अपनी ही फोटो को प्रणाम। इस पर ठाकुर हँसे और बोले- नहीं रे! मेरा यह प्रणाम इस हाड़-माँस की देह वाले चित्र को नहीं है, यह तो उस परम वन्दनीय गुरुचेतना को प्रणाम है जो इस फोटो की भावमुद्रा से छलक रही है।

श्री ठाकुर के इस कथन ने लाटू महाराज को भक्ति के महाभाव में निमग्न कर दिया। इन क्षणों में उन्हें परमहंस का एक और वाक्य याद आया-‘जे राम जे कृष्ण सेई रामकृष्ण’ अर्थात् जो राम जो कृष्ण वही रामकृष्ण। पर इन सब बातों को अनुभव कैसे किया जाय? इस जिज्ञासा के समाधान में श्री ठाकुर ने कहा-भक्ति से, ध्यान से। इसी से तेरा सब कुछ हो जायेगा। अपने सद्गुरु के वचनों को हृदय में धारण कर। लाटू महाराज गुरुभक्ति को प्रगाढ़ करते हुए ध्यान साधना में जुट गये।

उनकी यह साधना निरन्तर अविराम-तीव्र से तीव्रता एवं तीव्रतम होती गयी। इस साधनावस्था में एक दिन उन्होंने देखा श्री ठाकुर किसी दिव्यलोक में है। बड़ी ही प्रकाश और प्रभापूर्ण उपस्थिति है उनकी। स्वर्ग के देवगण विभिन्न ग्रहों स्वामी रवि, शनि, मंगल आदि उनको स्तुति कर रहे हैं। ध्यान के इन्हीं क्षणों में महाराज ने देखा श्री श्री ठाकुर की पराचेतना ही विष्णु-ब्रह्म एवं शिव में समायी। माँ महाकाली भी उनसे एकाकार है। ध्यान में एक के बाद अनेक दृश्य बदले और लीलामय ठाकुर की दिव्य चेतना के अनेक रूपों का साक्षात्कार होता गया। अपनी इस समाधि में लाटू महाराज कब तक खाये रहे, पता नहीं चला।

समाधि का व्युत्थान होने पर लाटू महाराज पंचवटी से सीधे श्री श्री ठाकुर के कमरे में आये और उन्हें वह सब कह सुनाया जो उन्होंने अनुभव किया था। अपने अनुगत शिष्य की यह अनुभूति सुनकर परमकृपालु परमहंस देव हँसते हुए बोले-अच्छा रे! ऐसा हुआ। तू बड़ा भाग्यवान् है, माँ ने तुझे सब कुछ सच-सच दिखा दिया। जो तूने देखा वह सब ठीक है। फिर थोड़ा गम्भीर होकर उन्होंने कहा- शिष्य के लिए गुरु से भिन्न तीनों लोकों में और कुछ नहीं है। जो इसे जान लेता है, उसे सब अपने आप मिल जाता है। श्री श्री ठाकुर के वचन प्रत्येक शिष्य के लिए महामंत्र है। गुरुभक्त, शिष्यगण श्रद्धा भाव से इसकी साधना करें। अगला अंक गुरु चेतना के अन्य तीन आयामों को उनके सम्मुख प्रकट करेगा।


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