युगगीता-46 - परम शाँतिरूपी मुक्ति का एकमात्र मार्ग

August 2003

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(कम संन्यास-योग नामक गीता के पाँचवें अध्याय की ड़ड़ड़ड़)

विगत अंक की ग्यारहवीं कड़ी में 23, 24 एवं 25वें श्लोक की विस्तार से व्याख्या की गई थी। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति देह के रहते हुए काम-क्रोध के वेग को सहन कर लेते हैं, वे ही अपना व्यक्तित्व सर्वांगपूर्ण बना पाते हैं एवं सही मायने में सुखी नर कहलाने योग्य हैं। मोक्ष मनुष्य को जीवित रहते हुए ही मिल सकता है एवं इसके लिए जितेंद्रित होना जरूरी है। सच्चा सुख परिष्कृत व्यक्ति वाले नर को ही मिलता है। उसके लिए अपनी कामवासना के आवेश तथा क्रोध के आवेश पर नियंत्रण जरूरी है। सयुक्तः स सुखी नरः कहकर योगी को ही योगेश्वर सुखी मानते हैं। वे यह भी कहते हैं कि दमित काम ही क्रोध का कारण बनता है, इसलिए कामबीज का परिष्कार देह रहते ज्ञानबीज में कर लिया जाए, इससे श्रेष्ठ पुनरावृत्ति (पुनर्जन्म) रोकने का और कोई उपाय है नहीं। श्री रामकृष्ण वचनामृत एवं परमपूज्य गुरुदेव के ‘आध्यात्मिक का विज्ञान’ नामक पुस्तकों के उद्धरणों से इस बात की पुष्टि की गई है। आत्मा में मग्न योगी परब्रह्म परमात्मा के साथ एकात्मता स्थापित कर ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होता है, यह बात भी भगवान कह जाती हैं। अपने भीतर अनंत आनंद की अनुभूति करनी हो तो बहिर्मुखी से अंतर्मुखी बनना ही होगा। ऐसे योगी साधक, जिनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, वासना क्षीण हो जाती है, रूप बदल लेती हैं, संशय भी निकल जाते हैं तथा जो जितेंद्रित होते हैं, ये तीनों श्लोक संक्षेप में हमें दिव्यकर्मी, सेवाभावी, समाजशिल्पी बनने का आमंत्रण देते हैं। ऐसे ही प्रकाशस्तंभों की आज सर्वाधिक जरूरत भी है। यहीं विगत विचार शृंखला का समापन किया था।

एक विहंगावलोकन

पाँचवें अध्याय का शुभारंभ कर्मसंन्यास व कर्मयोग संबंधी अर्जुन की जिज्ञासा से हुआ था। कर्मयोग से संन्यास तक की चर्चा करते हुए 24वें श्लोक में हम ज्ञान की पराकाष्ठा कर पहुँच जाते हैं। वे कहते हैं कि पंडितजन-विद्वत्जन संन्यास और कर्मयोग को एकसमान फल देने वाला मानते हैं। श्रेष्ठ दिव्यकर्मी बनने के लिए जितेंद्रिय विशुद्ध अंतःकरण वाला बनकर आसक्ति रहित कर्म करने वाला स्वयं को स्थापित करना होगा। अंतःकरण की शुद्धि, ज्ञान की प्राप्ति एवं उसी परब्रह्म में स्थित होकर मोक्ष को, अनंत सुख को प्राप्त हो जाता है। अब आगे के श्लोकों में (26वें में) भगवान ब्रह्मवेत्ता, मोक्ष को प्राप्त दिव्यकर्मी को प्राप्त होने वाली उपलब्धियों की, तदुपराँत ध्यानस्थ होकर मुक्त होने तथा अंत में परमात्मतत्व से साक्षात्कार प्राप्त होने की चर्चा कर इस अध्याय का समापन करते हैं।

छब्बीसवाँ श्लोक इस प्रकार है-

कामक्रोधवियुक्कतानाँ यतीनाँ यतचेतसाम्। अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तंते विदितात्मनाम्॥ -5/26

इसका शब्दार्थ करके देखें-

काम-क्रोध आदि विकारों से मुक्त (कामक्रोध-वियुक्तानाँ), संयत चित्त वाले (यतचेतमाम्) आत्मज्ञ (विदितात्मनाम्), यतिगणों को (यतीनाँ) शरीर छोड़ने से पहले एवं बाद में (अभितः) ब्राह्मी स्थिति की अवस्था में निर्वाण की (ब्रह्मनिर्वाणं) प्राप्ति होती है (वर्तते)।

पूरे श्लोक का भावार्थ हुआ-आत्मज्ञानी जिनने काम-क्रोध से मुक्ति पाई है, जिनका चित्त जीता हुआ है, जिनकी इंद्रियाँ और मन नियंत्रण में हैं, ऐसे साधकगण ही इहलोक और परलोक में ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होते हैं अर्थात् शाँत, परब्रह्म परमात्मा से साक्षात्कार करते हैं।

ब्राह्मी स्थिति में मोक्षपद की प्राप्ति

ब्रह्मनिर्वाण की चर्चा योगेश्वर श्रीकृष्ण विगत दो श्लोकों से कर रहे हैं, जिनकी विस्तार से व्याख्या विगत अंक में की जा चुकी है। आत्मस्वरूप ब्रह्म में स्थिर होकर मोक्ष लाभ प्राप्त करना ब्रह्मनिर्वाण कहलाता है। यह एक प्रकार का पद है, जिसे पाने की हर मनुष्य में अभिलाषा होनी चाहिए। ब्राह्मी स्थिति में निर्वाण-मोक्ष की प्राप्ति ही हमारा लक्ष्य हो, यह श्रीकृष्ण चाहते हैं। इसके लिए वे पहले ही बता चुके हैं कि ऐसे व्यक्तियों के सभी पाप (वासनाएँ) नष्ट हो जाने चाहिए, संशयों की निवृत्ति ज्ञान के द्वारा हो जानी चाहिए, इंद्रियाँ उनके अपने वश में होनी चाहिए तथा उन्हें सबके कल्याण के लिए निरंतर निष्काम कर्म में निरत हो जीवन जीना चाहिए। ऐसा होने पर वे इसी जीवन में मोक्ष-लाभ (जीवनमुक्ति, बंधनमुक्ति) प्राप्त करते हैं।

अब इस छब्बीसवें श्लोक में उनका कथन है कि शरीर छोड़ने से पूर्व या बाद में ब्रह्मनिर्वाण पाना है, परब्रह्म परमात्मा से साक्षात्कार करना हो तो कुछ अनिवार्य तप प्रधान शर्तें हैं, जिन्हें पूरा करना ही होगा। ये हैं-

काम, क्रोध आदि विकारों से मुक्ति पा लेना।

संयत चित्त वाला (चित्त पर विजय प्राप्त) होना।

आत्मज्ञ पुरुष होना (आत्मसत्ता की जानकारी, आत्मज्ञान होना)।

ये तीनों शर्तें पूरी करते ही हम यती-योगी की उपाधि पा लेते हैं। तब हमें बंधनों से मुक्ति से कोई रोक नहीं सकता। हो सकता है, वह शरीर रहते मिल जाए, हो सकता है, मृत्यु के बाद मिले, परंतु यह सुनिश्चित है कि हम निश्चित ही परब्रह्म परमात्मा से साक्षात्कार कर शाँति पा सकेंगे, लौकिक कोलाहल से मुक्ति पा सकेंगे और उस अभीष्ट पद को प्राप्त कर सकेंगे, जिसके लिए हमारा जन्म हुआ है।

यती बनने की अनिवार्य शर्त

धीरे-धीरे कर्मयोग के दर्शनपक्ष की चर्चा करके श्रीकृष्ण अब उसके व्यावहारिक पक्ष पर आ रहे हैं और अधीर अर्जुन को इन अंतिम उपसंहार के श्लोकों में कर्मयोग संपन्न करते-करते ध्यानयोग की ओर प्रवृत्त होने का शिक्षण दे रहे हैं। इससे आगे के दो श्लोक उसी ध्यानयोग की भूमिका बनाते हैं एवं छठा अध्याय हमें विस्तार से उस दिशा में ले जाता है, इसलिए वे बार-बार जोर देते हैं कि यतीगणों को (योगीजनों को) जिन्हें ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त करना है, पहली जिस बात पर ध्यान देना चाहिए, वह है, वासनाओं को क्षीण बनाकर, उन्हें परिमार्जित कर काम-क्रोधरूपी विकारों से मुक्ति पा लेना। वासनाओं के जीवित रहते योग सधेगा कैसे? ध्यान को कैसे पाएगा? कामबीज को ज्ञानबीज में बदलना अत्यधिक अनिवार्य है। साधनापथ की यह पहली शर्त है। यों तो संभोग से समाधि से लेकर तरह तरह के आधुनिक ‘योगा’ के शॉर्टकट निकल आए हैं, पर उनसे कुछ उपलब्धि नहीं होने वाली। होगी कब? जब अपना मन संयत (यतचेतमसाम्) होगा। चित्त नियंत्रित हो तो कोई भी बहिरंग की उत्तेजना अंदर प्रवेश कर शाँति भंग नहीं कर सकती।

श्री रामकृष्ण परमहंस कहते हैं, “शुद्धात्मा निर्लिप्त होते हैं। ईश्वर में विद्या और अविद्या दोनों हैं, पर वे निर्लिप्त हैं। वायु में कभी सुगंध मिलती है और कभी दुर्गंध, परंतु वायु निर्लिप्त है। व्यासदेव यमुना पार कर रहे थे। वहाँ गोपियाँ भी थीं। वे भी पार जाना चाहती थीं, दही, दूध, मक्खन बेचने के लिए। वहाँ नाव न थी। सब सोचने लगे, कैसे पार जाएँ। इसी समय व्यासदेव लगभग सब साफ कर गए। फिर व्यासदेव ने यमुना से कहा, ‘यमुने, अगर मैंने कुछ भी न खाया हो तो तुम्हारा जल दो भागों में बँट जाए। बीच से राह हो जाए और हम लोग निकल जाएँ।’ ऐसा ही हुआ। यमुना के दो भाग हो गए। उस पार जाने की राह बीच से बन गई। इसी रास्ते से गोपियों के साथ व्यासदेव पार हो गए।” समझाते हुए ठाकुर कहते हैं, “मैंने नहीं खाया, इसका अर्थ यही है कि मैं वही शुद्धात्मा हूँ। शुद्धात्मा निर्लिप्त है, प्रकृति के परे है। उसे न भूख है, न प्यास। न जन्म है, न मृत्यू। वह अजर, अमर और सुमेरुवत है। जिसे यह ज्ञान हुआ, ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई, वही जीवनमुक्त है। वह ठीक समझता है कि आत्मा अलग है। देह अलग। ईश्वर के दर्शन करने पर देहात्म बुद्धि नहीं रह जाती।”

अशक्ति व तनाव से मुक्ति का एकमेव उपाय

ठाकुर श्री रामकृष्ण की अमृतवाणी से स्पष्ट हो जाता है कि वास्तविकता क्या है। हमें अगर मुक्ति पानी है तो इस स्तर की पात्रता विकसित करनी ही होगी। किसी भी साधक की यह महत्वाकाँक्षा होती है। सारी जिंदगी एक आम आदमी की, विषयों के पीछे भागने में नष्ट हो जाती है, शक्ति क्रमशः नष्ट होती रहती है। असंख्य कामनाओं की तुष्टि ही हम सबके जीवन का एकमेव उद्देश्य बन गया है। शक्ति के नष्ट होने से दुखों की प्राप्ति होती है। घोर मानसिक यातना सहन करनी होती है। तनावमुक्त जीवन जीकर भी व्यक्ति अपनी कामनाओं की पूर्ति का प्रयास करता रहता है। शरीर की शक्ति भी क्रमशः क्षीण होती चली जाती है। अशक्ति उसे धर दबोचती है। आज के हर युवा की यही कहानी है। ऐसा ही युवा योद्धा अर्जुन भी है, परंतु वह योगेश्वर श्रीकृष्णरूपी गुरु को पाकर स्वयं को सौभाग्यशाली भी अनुभव कर रहा है तथा अपने सामने आध्यात्मिक स्तर की दिव्य संभावनाएँ भी साकार होती देख रहा है। गहन ध्यान द्वारा ब्रह्मसाक्षत्कार कैसे किया जा सकता है, यह सब श्रीकृष्ण उसे बता रहे हैं।

ब्रह्मनिर्वाण की चर्चा के तुरंत बाद दो श्लोक ऐसे आते हैं जो हमें ध्यान का स्वरूप बताते हैं। साथ ही वह योगी को मुक्त रहने का उपाय भी सुझाते हैं। यद्यपि यह सब विस्तार से अगले अध्याय ‘आत्मसंयम योग‘ में आया है, पर यहाँ दो श्लोकों द्वारा श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय शिष्य को उसकी एक झलक मात्र दिखा दी है। श्लोक इस प्रकार हैं।

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्याँश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः। प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥ यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः। विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥ 5/27-28

अब इनका शब्दार्थ देखें-

बाहरी (बाह्यान्) स्पर्श-शब्दादि विषय-संयोग (स्पर्शान्) मन से बाहर ही रखकर (बहिः कृत्वा) चक्षुओं को (चक्षुः) भ्रुमध्य मार्ग में (भ्रुवो अन्तरे एव) (स्थापयित्वा-स्थापित करके) नाक के भीतर संचरित (नासा-अभ्यन्तरचारिणौ) प्राण और अपान वायु को (प्राणापानौ) समभाव से स्थिर रखकर (समौ कृत्वा), इंद्रिय, मन और बुद्धि को संयत रखकर (यत-इन्द्रिय-मनः-बुद्धि), इच्छा, भय, क्रोध से रहित होकर (विगत इच्छा-भय-क्रोधः), मोक्ष की इच्छा रखने वाले (मोक्षपरायणः) जो (यः) मुनि (मुनि) है, वह सदा मुक्त ही हैं (सः सदा मुक्तः एव)॥ 4/27-28

भावार्थ हुआ-बाहर के विषयभोगों का चिंतन न कर उन्हें मन से बाहर ही निकालकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी मध्य में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके, जिसकी इंद्रियाँ मन और बुद्धि जीती हुई हैं, ऐसा मोक्षपरायण मुनि (सतत परमेश्वर के स्वरूप का मनन करने वाला,) जो इच्छा, भय, क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है।

सूत्र रूप में ध्यान की विधि

ऐसा लगता है कि मोक्ष-जीवनमुक्ति-ब्रह्मनिर्वाण की सैद्धाँतिक व्याख्या करते-करते श्रीकृष्ण एकदम विधि पर क्यों आ गए? कहीं यह विषयाँतर तो नहीं? नहीं ऐसा नहीं है। यह मुक्त होने का उपाय उनने सूत्र रूप में यहां बता दिया है। वे क्रमशः अर्जुन की जिज्ञासा जाग्रत कर रहे हैं, जो छठे अध्याय में उसके मन की वेदना ‘चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्’ के रूप में व्याख्या करके बताया गया है। ये सभी मन को समाधि की ओर ले लाने वाली प्रक्रियाएँ हैं, जिनका लक्ष्य मोक्ष है। संपूर्ण कर्म चैतन्य के त्याग को एवं परब्रह्म में अपनी सत्ता के संपूर्ण अस्तित्व को लय करने को मोक्ष कहते हैं।

ब्रह्मसाक्षात्कार कैसे?

जब साधक अपने मन की इच्छाओं, कामोद्वेगों पर नियंत्रण प्राप्त कर अपना पूरा ध्यान चैतन्य की गहन अवस्थाओं की ओर मोड़ेगा तब ही ब्रह्मसाक्षात्कार कर पाएगा। ध्यान सबसे महत्वपूर्ण तरीका है अपने आपे से अपने अंदर बैठे परब्रह्म से साक्षात्कार करने का। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहते हैं, “ मैं और परब्रह्म एक ही हैं, यह जानना ज्ञानी का उद्देश्य होना चाहिए। माया के कारण ही वह यह तत्व नहीं जान पाता।” हर किसी का ध्यान विधिमात्र बताने से नहीं लगेगा। जिसने इंद्रियां, मन, बुद्धि जीत ली हैं, जो इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, ऐसा मोक्ष की इच्छा रखने वाला सतत परमात्मा के स्वरूप का मनन करने वाला ही मुक्ति का, ध्यान की सफलता का, परब्रह्म से साक्षात्कार का सही अधिकारी है, परंतु यह श्लोक श्रीकृष्ण का अंतिम वाक्य नहीं है इस अध्याय में। आखिरी बात, परम वचन तो उस महावाक्य के रूप में है, जो अंतिम उनतीसवें श्लोक के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। सारे कर्मयोग का मर्म बताता है तथा पुरुषोत्तम के स्वरूप को स्पष्ट करता है।

भोक्तारं यज्ञतपसाँ सर्वलोकमहेश्वरम्। सुहृदं सर्वभूतानाँ ज्ञात्वा माँ शान्तिमृच्छति॥ -5/29

शब्दार्थ को समझे-

(समाहित चित्त योगी) मुझे (माँ) यज्ञ और तपस्या का फलभोक्ता (यज्ञतपसाँ भोक्तारं) समस्त लोकों का महेश्वर (सर्वलोक-महेश्वर) तथा सभी प्राणियों का परम उपकारी, निस्स्वार्थ दयालु (सर्वभूतानाँ सुहृदं) जानकर (ज्ञात्वा) परमशाँति प्राप्त करते हैं (शाँतिं ऋच्छति) अर्थात् जब (ऊपर बताए वर्णनानुसार समाहित चित्त योगी) साधक मुझ श्रीकृष्णरूपी भगवान का सभी यज्ञों और तपों का भोक्ता, समस्त लोकों का महेश्वर तथा सभी प्राणियों का परम मित्र दयालु जान लेता है तब वह परमशाँति रूपी मुक्ति का प्राप्त होता है। (5/29)

सर्वलोक महेश्वरम्

अब जरा इस श्लोक की महिमा समझें। यह श्री गीताजी के माध्यम से श्रीकृष्णरूपी पुरुषोत्तम के मुँह से निकला महावाक्य है। ब्रह्मनिर्वाण रूपी शाँति तभी मिलेगी, जब जीव का विराट पुरुष का ज्ञान भी हो कि वह कैसा है। श्रीकृष्ण पूरी गीता में स्थान-स्थान पर अहं, माम् आदि शब्दों का प्रयोग करते दिखाई देते हैं । वहाँ उनका अभिप्राय उन्हीं भगवान परमेश्वर से है, जो शक्ति और कर्म के स्वामी है, परात्पर पुरुष हैं, पार्थ-सारथी रूप में इस महायुद्ध में अवतरित हुए हुए हैं एवं सभी जीवों के ईश्वर हैं। वे चूँकि सभी यज्ञों और तपों के भोक्ता हैं, इसलिए मुक्ति की इच्छा रखने वाले पुरुष को सब कर्मों का यज्ञीय भाव से तपश्चर्या मानकर करना चाहिए। वे सर्वलोक महेश्वर हैं। वे सबके सुहृद हैं, निस्स्वार्थ दयालु एवं प्रेमी है, इसीलिए वही मुनि कहे जाने योग्य हैं, जो ऐसा ही व्यवहार सभी जीवों से करता है। सब भूतों के कल्याण हेतु, सन्मार्ग की प्रेरणा हेतु ही जिसका जीवन है। ऐसे अक्षर पुरुषोत्तम भगवान के साथ एक होने पर वह मानवमात्र से दिव्य प्रेम कर सकता है।

युगप्रवर्त्तन का कर्मयोग

योगधर्म को युगसाधना समझाने वाला ही सच्चे अर्थों में मुनि है, सच्चा संन्यासी है। परमपूज्य गुरुदेव ने हमें युगप्रवर्त्तन के कार्य में इसी कारण लगाया। स्वयं उनने कठोर साधना की, चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री अनुष्ठान (लगभग साठ करोड़ गायत्री मंत्र जप) संपन्न किए एवं हम सभी को भी न्यूनतम गायत्री साधना से जोड़कर आराधना में, कर्मयोग में प्रवृत्त कर दिया। गीता में भगवान अर्जुन को पहचानते हैं कि उसका धर्म संन्यास नहीं है। कुसमय का कच्चेपन का वैराग्य गड़बड़ी पैदा करता है। कभी वह कहता है कि युद्ध नहीं करूंगा, संन्यास ले लूँगा। श्रीकृष्ण अर्जुन के मन से वैराग्य का भूत भगाने की कोशिश कर रहे है। इसीलिए कर्मयोग की महत्ता समझाते हुए उसे परब्रह्म की सत्ता के प्रति समर्पित हो यज्ञीय भाव से कर्म करने को कह रहे हैं। यही पूज्यवर ने किया। उनने भी हमारे मनों को पढ़ा हमें युगधर्म निभाने को कहा। इस युग में प्रज्ञा अभियान को गति देना, विचार क्राँति अभियान को तीव्र विस्तार देना, यही सबसे बड़ी सेवा है। यही कुरुक्षेत्र का महाभारत है। इसमें लगकर युद्ध में विजयी होना सभी का लक्ष्य हो। इसीलिए जटिल साधनाओं के जंजाल में न उलझाकर परमपूज्य गुरुदेव ने हम सभी को ज्ञानयज्ञ रूपी युगधर्म संपन्न करने को कहा।

इस श्लोक की थोड़ी विस्तार से इसी संदर्भ में व्याख्या एवं पूरे अध्याय का एक सार-निष्कर्ष आगामी अंक में पढ़ेंगे। फिर हम छठे अध्याय की ओर बढ़ेंगे जो कि अंतिम तीन श्लोकों (पाँचवें अध्याय के) का ही विस्तार है।


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