सतगुरु हम सूँ रीझि करि एक कह्या प्रसंग। बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥ (साखी/33)
सद्गुरु मुझ पर प्रसन्न हुए और उन्होंने रहस्य से भरा भगवद्भजन, परमात्मा के ज्ञान की बात; प्रसंगबद्ध कही। इस भक्तिप्रसंग से प्रेम के बादल बरसने लगे और सभी अंग भीग गए। अंग भीगने का अर्थ है-अंतःकरण का प्रेमपूर्ण होना।
श्री कबीरदास जी की साखी के माध्यम से गुरुकथामृत आरंभ करने का मन है। श्रीरामकृष्ण परमहंस की ही तरह परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने अपने भक्ति प्रसंगों से ढेरों व्यक्तियों के अंतःकरण को प्रेमरस से भरा दिया। यह गुरु की ही विशेषता है। वह ज्ञान की सीख भी देता है एवं भक्ति का बीज भी बो देता है। शिष्य के हित में जो भी है, वह सडडडडडड करता है। कभी यह कार्य वह वाणी से करता है, कभी अपनी लेखनी से, कभी मौन अपने स्नेहिल दृष्टिपात से। ऐसी ही हमारी गुरुसत्ता जो सबको इस कलियुग में मुक्ति दिलाने प्रेम से सराबोर कर उनके जीवन को अर्थ दे गई। उनकी दिशाधारा बदल गई।
इस कड़ी में हमने कुछ पत्र पूज्यवर के हाथ से 1941 में लिखे संकलित किए हैं। कितने प्रेम भरे स्पर्श को लेकर, सच्चा मार्गदर्शन सँजोए ये पत्र जन जन के पास पहुँचते थे, यह आज 62 वर्ष बाद सोच-सोचकर रोमाँच हो उठता हैं। 28.2.41 को लिखा पत्र एक अभिन्न मित्र को लिखा गया है, जो उनके शिष्य के रूप में भी विकसित हो रहे थे। पूज्यवर लिखते हैं,”हम मनुष्य हैं। मनुष्य की शक्ति सीमित है। वह परमात्मा की तरह सर्वस्व या पूर्ण ब्रह्म नहीं है। त्रुटियों के कारण ही वह मनुष्य बना हुआ है। पूर्ण नहीं हैं, मनुष्य हैं। मनुष्य में कर्त्तव्य करने की प्रबल शक्ति है। हम अपनी शक्तिभर सच्चे हृदय से तुम्हारे कल्याण का प्रयत्न करते रहेंगे। फिर भी कहीं भूल से हमें ईश्वर के स्थान पर न मान बैठना, अन्यथा किसी दिन हमारे ऊपर अविश्वास भी हो सकता है और हमें मित्र के स्थान पर शत्रु मान सकते हैं। हम लोग भाई-भाई हैं। सच्चे हृदय से एक दूसरे के प्रति अपना कर्त्तव्य पालन करने के ही हम लोग अधिकारी हैं.................। किसी मंत्र में कोई विशेष बात नहीं हैं। सच्चे हृदय की प्रार्थना ही सब कुछ है। चाहे कोई मंत्र जप क्यों न हो।”
तब हमारे गुरुदेव मात्र तीस वर्ष के थे। उनके यह मित्र श्री म. मंगलचंद्र लगभग बीस बाईस वर्ष के। अजमेर निवासी इन सज्जन को, जो उन पर भगवान की तरह विश्वास रखते थे, बड़ा स्पष्ट पूज्यवर लिख रहे हैं कि महामानवों को जिन्हें हम पसंद करते हैं, मनुष्य ही मानें। भावावेश में हम एक नहीं, दस गुरु कर लेते हैं। उनकी बातें, व्यक्तित्व हमें प्रभावित करते हैं। हम उन्हें भगवान मान बैठते हैं। गीता में भगवान को स्वयं सुहृद (एक दयालु साथी) कहा है। हम परखें, अच्छी तरह विश्वास होने पर ही किसी को गुरु मानें। गुरु तो गोविंद से भी बड़ा होता है और हम ऐसे हैं कि कलाकारों को, अभिनय करने वालों को, गलेबाजी के अभ्यास से कथा कहने वालों को भगवान मान बैठते हैं। वे तथाकथित बापू जो कुशलतापूर्वक भगवान के उपदेश कह बैठते हैं, हमारे इष्ट-आराध्य बन जाते हैं। उनके विरुद्ध हम कुछ सुनना भी नहीं चाहते। जब कभी कोई कमी सामाजिक होती है या हमें उनका व्यवहार चुभ जाता है तो हम जमीन पर आ गिरते हैं। पूज्यवर कहते हैं कि हम भूल से भी किसी को ईश्वर न मान बैठें। स्वयं अपनी सत्ता से पूर्णतः परिचित ‘मैं क्या हूँ’ ग्रंथ लिख चुके आचार्यजी अपने शिष्य को भाई कहने के लिए कहते हैं। अगले प्रसंग में वे उन्हें किसी मंत्र से नहीं बाँधते। सबसे पहले प्रार्थना, आकुल हृदय से की गई याचना का मर्म समझाते हैं। यह है सत्परामर्श, जो किसी को भी जीवन का सही मार्ग दिखा सकता है।
इसी तरह वे 21 जून, 1941 को लिखे अपने एक पत्र में अपने एक शुभेच्छु को लिखते हैं, अच्छा हो कि कोई पुस्तक की रचना आरंभ कर दो, क्योंकि यह मनुष्य के पश्चात जीवित रहने वाला उसका उसका अच्छा स्मारक है। साथ ही ऐसा सदावर्त है, जो भूखों को सदा बाँटता रहता है और कभी समाप्त नहीं होता। इस कार्य का परिणाम किसी की भूख-प्यास को शाँत कर देना मात्र नहीं है, वरन् ज्ञानदान देकर मनुष्य को देवता और ईश्वर तक बना देता है। पुस्तक रचना के समान दूसरे धर्मकार्य कम ही देखने में आते हैं।
इस पत्राँश को पढ़ें तो ज्ञात होता है कि किसी के स्वच्छ सकारात्मक चिंतन का नियोजित करने का सबसे सही उपाय है, पुस्तक लिखना। छपी या नहीं छपी, यह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं, जितना यह कि रचनाधर्मी पुरुषार्थ हुआ कि नहीं। स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने जीवनभर की अवधि में कितना असंभव कार्य किया? कुल मिलाकर छोटी-बड़ी 32 किताबें अपने 1935 से 1990 तक के पचपन वर्ष के सक्रिय जीवनकाल में लिख जाना बहुत बड़ी बात है। आज तक ऐसा कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता। वे पुस्तक रचना का एक सदावर्त एवं एक धर्मकार्य, पुण्य प्रयोजन की संज्ञा देते हैं। विचारक्राँति अभियान का प्रवर्तक एक ऋषि यही तो लिख सकता है। आत्मीयता की अभिव्यक्ति अपने प्रिय पात्र हुई तो ऐसे ही सत्परामर्श के रूप में।
पुस्तक रचना की ही बात लिखते-लिखते अपने इसी मित्र-अनन्य सहयोगी का परमपूज्य गुरुदेव 15-8-1941 का एक पत्र लिखते हैं। संभवतः उनके यह लिखने पर कि रोगी हैं, कैसे पुस्तक लिख सकते हैं, आदि-आदि। इस पत्र में वे बेबाक शब्दों में लिखते हैं-
जाँस्टन असाध्य रोग से ग्रस्त था। चारपाई से उठ भी नहीं सकता था तो भी दूसरे क्लर्क की सहायता से अपनी पुस्तक लिखवाता था। जब उसे असह्य पीड़ा हो उठी और मृत्यु के बिलकुल निकट जा पहुँचा तो उसने कहा, अभी पाँच रोज मृत्यु से और लड़ूंगा, ताकि मेरी पुस्तक पूरी हो जाए। सचमुच वह पाँच दिन और नहीं मरा और अपनी पुस्तक पूरी करा गया। तुम बीमारी की दशा में भी पर्याप्त स्मारक, योग्यता उपार्जन कर सकते हो और जनता जनार्दन की सेवा में जुट सकते हो। योग्यता नहीं है, इसकी क्या चिंता? आज नहीं तो कल लेती है। कदाचित ईश्वर ने तुम्हें महान साहित्य सेवा के लिए ही अवतीर्ण किया है। योरोप के तीन महाकवियोँ में से दो अंधे थे। महाकवि सूरदास और वर्तमान अंधगायक के.सी.डे नेत्रहीन होते हुए भी नेत्र वालों से अधिक उपयोगी हुए। कदाचित पैर की त्रुटि कोई नवीन दिशा में, तुम्हारा जीवन ढालने के लिए ही हो रही है। प्रभु पर विश्वास करो वत्स, वे तुम्हें पथ प्रदर्शन करेंगे।
पत्र की भाषा पढ़े तो लगता है कि शब्द किसी कविता के छंद की तरह दौड़ते-तरंगित होते चले आ रहे हैं। किसी रोगी को जो पलंग पर हो, सकारात्मक चिंतन देकर उसे स्वस्थ कर उससे कुछ श्रेष्ठ करा लेने का मार्गदर्शन इन पंक्तियों में है। उदाहरणों द्वारा गुरुवर ने समझाने का प्रयास किया है कि इच्छाशक्ति ही सर्वोपरि है। विकलाँगता भी कभी पुरुषार्थपरायणता में बाधक नहीं पड़ेगा। सही मायने में गुरु से बड़ा मित्र,मार्गदर्शक, चिकित्सक और कोई हो नहीं सकता। इस पत्र में जो तीन पृष्ठों का है, आगे पूज्यवर अपनी जीवनकथा लिखे जाने की बात पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते है, जो पढ़ने योग्य है।
हमारी जीवनी? तुम छपाओगे? न। यह तुम्हारे प्रेम का चिह्न है, पर है बिलकुल व्यर्थ। इससे कुछ भी लाभ न होगा। मैं, एक लंबे कद का, गोरा, 11 पौंड भारी, बत्तीस वर्षीय, मल-मूत्र का पुतला। जो ऑक्सीजन खाकर कार्बन थूकता है। जो अन्न को विष्ठा और जल को मूत्र बना देता है। इस शरीर का इतना ही परिचय काफी है। आत्मा? अखंड चैतन्य सत्ता,वही जो तुम हो। ठीक तुम्हारे जैसा। तुम्हारे जैसा। तुम्हारे साथ जुड़ा हुआ। विद्या, ज्ञान, साधन इनमें से हम कितने हैं। तत्वज्ञ न्यूटन मृत्यु के समय बोला, मैंने महान सागर के किनारे खड़े होकर कुछ सीप और घोंघे ढूंढ़ पाए हैं। रत्नों की खान तो आगे है। मैंने तो अध्यात्म जगत की एक झाँकी की है। उससे धँसने वाले तो हमसे बहुत आगे हैं। आदमी का मूल्य पैसे से भी आँका जाता है। इन दिनों रुपयों की गड्डी से आदमी का बड़प्पन तौला जाता है। उस दृष्टि से तराजू के पासंग जितना ही अपना वजन है। फिर आखिर हूँ क्या? प्रेम, उदारता, सहानुभूति और जनकल्याण की भावना से द्रवित एक प्राणी, जो हर घड़ी आपत्तियों से टकराता है और एक महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए आगे बढ़ता है, गिरता है, उठता है, खड़ा होता है और फिर आगे चलता है। विश्वकल्याण की भावनाओं को उगलने वाला एक छोटा स्त्रोत। बस इतना हमारा परिचय काफी है। इसे तुम अपने मन पर छाप लो और अपना मुझे छाप लेने दो। बस यह दो महाकाव्य संसार के लिए पर्याप्त हैं। बाहर छपाने की रत्तीभर भी आवश्यकता नहीं है।
जिस किसी को भी पूज्यवर को जानना हो, समझना हो, वह इस अंश को पढ़ सकता है। मात्र अखण्ड ज्योति नहीं, उनकी अमृतवाणी ही नहीं, उनके ये पत्र बेहद अनमोल हैं। ये सीधे अंतःपटल तक जा पहुँचते हैं और हमें भी आभास करा देते हैं कि हम कौन हैं। बस इस बार इतना ही।