VigyapanSuchana

April 2003

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युगाधिपति महाकाल की स्थापना

प्रज्ञेश्वर महादेव एक माह की यात्रा के बाद गोदावरी तट नासिक (त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग) से गंगा तट के सप्तसरोवर क्षेत्र शाँतिकुँज में आ विराज गए हैं। इनकी विधिवत् प्राणप्रतिष्ठा महाकाल देवालय में प्रायः बीस हजार परिजनों की उपस्थिति में 1 मार्च (महाशिवरात्रि) को कर दी गई है। इस पूरे कार्यक्रम का विस्तृत विवरण आप अगले माह पढ़ेंगे।

उन्होंने कहा है कि सूर्य के रथ के पहिये में बुनी धूरियाँ भी इस प्रतीक के पर्याय हैं। मैक्समूलर ने पर्सी गार्डनर की खोज को भी सही माना है। उनके अनुसार यूनानी नगर मेसोम्ब्रिया में प्राप्त कुछ सिक्कों पर अंकित चिन्हों में स्वस्तिक का बोध होता है।मैक्समूलर के मतानुसार स्वस्तिक अनेक रूपों में अनेक देशों में प्रचलित था तथा इसका निरन्तर उपयोग होता था। सैकड़ों वर्ष पूर्व इंग्लैण्ड में स्वस्तिक का प्रयोग हुआ था। फिर डेन्मार्क, नार्वे, स्वीडन आदि देशों में इसकी आकृति बदलती गयी, परिवर्तित होती गयी। ईसाई गिरजाघरों में स्वस्तिक का प्रचलन था। वहाँ पर यह स्वस्तिक का उल्टा रूप मिलता है जो भारतीय स्वस्तिक दायें से बायें के ठीक विपरीत बायें से दायें चलता है। हिटलर ने इसी उल्टे प्रतीक को मान्यता दे रखी थी। स्वीडन में स्वस्तिक क्रास के रूप में मिलता है जिसके चारों ओर गोलाई बनी हुई है। स्वस्तिक के इस पुरातन स्वरूप से क्रीट, ट्राय, ससा आदि अनेक भूमध्य सागरीय देशों के लोग भी परिचित थे। पुरातात्त्विक साक्ष्यों के अनुसार बेबीलोनिया और मेसोपोटामिया में स्वस्तिक का अंकन ई होता था। मेसोपोटामिया में तो स्वस्तिक सिक्कों का लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध चिन्ह था। स्वस्तिक को बीजनटाइन कला में गामाडियन क्रास के नाम से जाना जाता है, परिचय मिलता है। इसका कारण था कि ग्रीक अक्षर गामा की आकृति व स्वरूप के समान थी। दक्षिण और मध्य अमेरिका की माया संस्कृति तथा उत्तरी अमेरिका की नवाजोसों संस्कृति में भी स्वस्तिक का प्रतिपादन मिलता है।

डी.ए. मैकेंजी के मतानुसार यह प्रतीक चिन्ह विभिन्न रूप में विभिन्न अर्थों में प्रयोग होता है। उनका मानना है कि इसे प्रजनन प्रतीक, उर्वरता प्रतीक, पुरातन व्यापारिक चिन्ह, अलंकरण-अभिप्राय, अग्नि, विद्युत, वज्र, जल आदि का साँकेतिक स्वरूप, ज्योतिष प्रतीक, उड़ते हुए पक्षी आदि अन्यान्य रूपों में माना गया है। एक अन्य प्रसिद्ध पाश्चात्य मनीषी ने बड़े ही उदारता पूर्वक स्वीकार किया है कि ऋषियों एवं विद्वानों के आर्यस्थल वैदिक भारत में जिस मंगलदायक एवं शुभसूचक स्वस्तिक की कल्पना की गयी थी, वही अन्यान्य रूपों में विश्व की अन्य सभ्यताओं द्वारा अपना ली गयी है, मान्यता प्रदान की गयी है। उनके विचार से ऋषि संस्कृति में ऐसे दिव्य, उदात्त एवं समग्र प्रतीकों का होना सम्भव है जिसका प्रवाह संस्कृति के समान चिरन्तन, शाश्वत और सनातन है। अतः स्वस्तिक रूपी इसी संकेत में सद्भावना का सजल भाव ही नहीं है वरन् सद्ज्ञान व सद्विचार का सम्पुट भी लगा हुआ है।

स्वस्तिक अपने अन्दर न जाने कितने गूढ़ भावों और विचार सूत्रों को संजोये पिरोये हुए है। इन भावों और विचारों के मूल में झाँकने पर हरेक व्यक्ति, समाज, राष्ट्र व सम्पूर्ण विश्व के लिए परम कल्याणकारी भावना ही अन्तर्निहित हुई प्रतीत होती है। इसमें वैयक्तिक विकास व विस्तार के साथ ही समाज की प्रगति एवं विश्व कल्याण की अनन्त सम्भावनाएँ सन्निहित हैं। आवश्यकता है एक ऐसी दृष्टि की जो इसे साक्षात्कार कर सके और सहज-सरल रूपों में इस प्रतीक की शुभ भावना को अभिव्यक्त कर सके। यदि हम अपने जीवन में इस प्रतीक को उतार सकें, इससे हम जुड़ सकें तो हमारा जीवन भी कल्याणकारी हो जायेगा। और हमारे जीवन से सद्कर्म एवं सद्भावों की सुगन्ध बिखर जायेगी। अतः इस मंगलमय प्रतीक को हमें अपने जीवन का अंग बनाना चाहिए। जिससे हमारे विचार व भाव मंगलमय एवं कल्याणकारी बन सके।


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