गुरुगीता - 10 - सब कुछ गुरु को अर्पित हो

April 2003

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गुरुगीता के महामंत्र साधनापथ के प्रदीप हैं। इनसे निःसृत होने वाली ज्योति किरणें साधकों को भटकन और उलझन से बचाती है। वैदिक ऋषिगण, अनुभवी महासाधक सभी एक स्वर से कहते हैं कि साधनापथ महादुर्गम है। इस पर निरन्तर चलते रहना महाकठिन है। फिर चलते रहकर लक्ष्य को पा लेना गुरु कृपा के बिना नितान्त असम्भव है। उपनिषद् की श्रुतियों में साधकों के लिए ऐसे ही चेतावनी भरे वचन हैं। कठोपनिषद् की श्रुति कहती है- ‘क्षुरस्य धारा निशिता दुरव्यया दुर्गमं पथस्तत कवयोः वदन्ति’ अर्थात्- यह साधना पथ छुरे की धार की भाँति अति दुष्कर है। यह पथ अति दुर्गम है, ऐसा अनुभवी कवियों (ऋषियों) का कहना है। गुरुकृपा ही इस दुर्गम पथ को सुगम बनाती है। गुरु करुणा का सम्बल पाकर ही शिष्य इस पर चलने में सफल होता है। सद्गुरु के स्नेह सिंचन से ही साधक की साधना पूर्ण होती है।

सद्गुरु के स्नेह सिंचन की कतिपय विधियों का उल्लेख गुरुगीता की पिछली कड़ी में किया गया था। इसमें बताया गया था कि शिष्य को यह तथ्य जान लेना चाहिए कि सद्गुरु का चिन्तन स्वयं आराध्य का ही चिन्तन है। इसलिए कल्याण की कामना को करने वाला साधक इसे अवश्य करे। तीनों लोकों में निवास करने वाले सभी इस सत्य को कहते हैं कि गुरुमुख में ही ब्रह्मविद्या स्थित है। गुरुभक्ति से ही इसे प्राप्त किया जा सकता है। गुरु ही अज्ञान के अन्धकार को हटाने वाले प्रकाश स्रोत हैं। शास्त्र वचनों से भी यही सिद्ध होता है कि गुरुकृपा से ही माया की भ्रान्ति नष्ट होती है। गुरु से श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं है।

गुरुभक्ति की इस तत्त्व कथा में नयी कड़ी जोड़ते हुए भगवान् सदाशिव माता पार्वती को समझाते हैं-

ध्रुवं तेषाँ च सर्वेषाँ नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्। आसनं शयनं वस्त्रं भूषणं वाहनादिकम्॥26॥

साधकेन प्रदातव्यं गुरुसन्तोषकारकम्। गुरोराराधनं कार्यं स्वजीवित्वं निवेदयेत्॥27॥

कर्मणा मनसा वाचा नित्यमाराधयेद् गुरुम्। दीर्घदण्डम् नमस्कृत्य निर्लज्जोगुरुसन्निधौ॥28॥

शरीरमिन्द्रियं प्राणान् सद्गुरुभ्यो निवेदयेत्। आत्मदारादिकं सर्वं सद्गुरुभ्यो निवेदयेत्॥29॥

कृमिकीट भस्मविष्ट-दुर्गन्धिमलमूत्रकम्। श्लेष्मरक्तं त्वचामाँसं वञ्चयेन्न वरानने॥30॥

हे श्रेष्ठमुख वाली देवी पार्वती! शिष्य को यह सत्य भली भाँति जान लेना चाहिए कि यह ध्रुव (अटल) है कि गुरु से श्रेष्ठ अन्य कोई भी तत्त्व नहीं है। ऐसे लोक कल्याण में निरत परम कृपालु गुरु के कार्य के लिए आसन, वस्त्र, आभूषण, वाहन आदि देते रहना शिष्य का कर्त्तव्य है। साधक द्वारा इस तरह लोक कल्याणकारी कार्यों में सहयोग से सद्गुरु को सन्तोष होता है। भगवान् शिव का कथन है कि गुरु के कार्य के लिए साधक को अपनी जीविका को भी अर्पण करना चाहिए॥26-27॥ कर्म, मन और वचन से नित्य गुरु आराधना करना ही शिष्य का कर्त्तव्य है। गुरु के कार्य में तनिक सी भी लज्जा करने की जरूरत नहीं है। गुरु को साष्टांग नमस्कार करना चाहिए॥28॥ शिष्य का शरीर, इन्द्रिय, मन, प्राण सभी कुछ गुरु कार्य के लिए अर्पित होना चाहिए। यहाँ तक कि अपने साथ पत्नी आदि परिवार के सदस्यों को गुरु कार्य में अर्पण कर देना चाहिए॥29॥ भगवान् सदाशिव कहते हैं कि हे पार्वती! यह अपना शरीर कृमि, कीट, भस्म, विष्ठा, मल-मूत्र, त्वचा, माँस आदि का ही तो ढेर है। यह यदि गुरु कार्य के लिए अर्पित हो जाय तो इससे श्रेष्ठ भला और क्या हो सकता है॥30॥

इन महामंत्रों का प्रत्येक अक्षर साधक के साधना पथ का प्रदीप है। इससे निकलने वाली प्रत्येक किरण के प्रकाश में साधक का साधनामय जीवन उज्ज्वल होता है। गुरु तत्त्व जितना श्रेष्ठ है, उतना ही श्रेष्ठ गुरु का कार्य है। तात्त्विक दृष्टि से दोनों एक ही है। श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी शिवानन्द जी महाराज कहते थे- ‘डिवोशन टू संघ इज़ डिवोशन टू ठाकुर’ यानि कि मिशन-मठ के संगठन के प्रति भक्ति ठाकुर के प्रति भक्ति है। सद्गुरु का कार्य सद्गुरु की चेतना का ही विस्तार है। जो शिष्य अपने सद्गुरु के कार्य के प्रति समर्पित है, यथार्थ में वही सद्गुरु के प्रति समर्पित है। जो सद्गुरु के कार्य के लिए अपने समय, श्रम एवं धन का नियोजन करते हैं, वही अपने गुरु की सच्ची आराधना करते हैं।

सद्गुरु की आराधना के लिए गुरु कार्य हेतु अपने साधन एवं समय का एक महत्त्वपूर्ण अंश लगाना चाहिए। गुरु कार्य छोटा हो या बड़ा उसे करने में किसी भी तरह की लज्जा नहीं होनी चाहिए। श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि लोगों को जिन कार्यों के लिए लज्जित होना चाहिए, उन्हें करने में वे लज्जित नहीं होते। बड़े मजे से झूठ, छल, कपट करते हैं, धोखाधड़ी करते हैं। इन कार्यों में उन्हें लज्जा नहीं आती है। पर गुरु की आज्ञा का पालन करने में वे शर्माते हैं। सद्गुरु का कार्य जो भी है, उसे भक्तिपूर्ण रीति से करना चाहिए। इसके लिए लज्जा का त्याग करने में भी कोई संकोच नहीं करना चाहिए।

कर्म ही नहीं मन और वाणी से भी गुरु आराधना करनी चाहिए। बार-बार और हमेशा ही यह सत्य ध्यान में रखना चाहिए कि गुरु आराधना गुरु की शरीर सेवा तक सीमित नहीं है। इसके व्यापक दायरे में सद्गुरु के विचारों का प्रसार व उनके अभियान को गति देने के लिए प्राण-पण से प्रयास करना भी शामिल है। इस हेतु न केवल स्वयं का जीवन अर्पण करना चाहिए। बल्कि अपनी पत्नी एवं परिवार के अन्य सदस्यों को लगाना चाहिए। अपनी यह देह पंचमहाभूतों के विकार के सिवा भला और है ही क्या? इस देह की सार्थकता सद्गुरु के कार्य के प्रति समर्पित होने में ही है।

स्वामी विवेकानन्द महाराज के दो शिष्य थे स्वामी कल्याणानन्द और स्वामी निश्चयानन्द। एक दिन स्वामी जी ने इन दोनों को अपने पास बुलाया और कहा- देखा हरिद्वार में साधुओं की सेवा की कोई व्यवस्था नहीं है। उन दिनों आज से करीब सौ वर्ष पूर्व हरिद्वार का समूचा क्षेत्र महाअरण्य था। साधु हों या फिर तीर्थयात्री इन सभी को सामान्य औषधि एवं चिकित्सा के अभाव में अनेकों कष्ट उठाने पड़ते थे। कई बार तो इन्हें मरना भी पड़ता था। स्वामी जी ने अपने इन दोनों शिष्यों को इनकी सेवा का आदेश दिया। इन दोनों साधन विहीन साधुओं के पास अपने सद्गुरु के आदेश के सिवा और कोई भी सम्पत्ति न थी। जब स्वामी कल्याणानन्द एवं स्वामी निश्चयानन्द स्वामी जी को प्रणाम करके चलने लगे, तो उन्होंने कहा- अब तुम दोनों इधर लौटकर फिर कभी न आना। बंगाल को भूल जाना। आदेश अतिकठिन था। परन्तु शिष्य भी सद्गुरु को सम्पूर्ण रीति से समर्पित थे।

बेलूड़ मठ से चलकर ये दोनों ही हरिद्वार आए। उन्होंने कनखल में अपनी झोपड़ियाँ बनाई। और जुट गए सेवा कार्यों में। दिन भर बीमार साधुओं एवं तीर्थ यात्रियों की सेवा और रात भर अपने सद्गुरु का ध्यान। कार्य चलता रहा, वर्ष बीतते रहे। इस बीच स्वामी जी ने इच्छामृत्यु का वरण किया। परन्तु सद्गुरु आदेश के व्रती ये दोनों गुरु के अन्तिम दर्शन में भी नहीं गए। गुरु कार्य के लिए उन्होंने अनेकों अपमान झेले, तिरस्कार सहे। पर सब कुछ उनके लिए गुरु कृपा ही थी। लगातार 35 सालों तक उनका यह सेवा कार्य चलता रहा। उनके कार्यों का स्मारक आज भी कनखल क्षेत्र में श्री रामकृष्ण सेवाश्रम के रूप में स्थित है। सद्गुरु के कार्य के प्रति निष्ठापूर्ण समर्पण ने उन्हें अध्यात्म के शिखरों तक पहुँचा दिया। इन दोनों के लिए स्वामी जी ने स्वयं अपने मुख से कहा था- हमारे ये बच्चे परमहंसत्व प्राप्त कर धन्य हो जाएँगे। गुरुकृपा से यही हुआ भी। ऐसे कृपालु सद्गुरु को शत-सहस्र-कोटिश नमन! गुरु नमन की भावभरी प्रक्रिया गुरुभक्त अगले अंक में पढ़ेंगे


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