शिकार न करने की कसम (kahani)

April 2003

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द्रौपदी के पाँच पुत्रों को सोते द्रोण पुत्र अश्वत्थामा ने मार डाला। पाँडवों के क्रोध का ठिकाना न रहा, वे उसे पकड़कर लाए और द्रौपदी के सामने ही उसका सिर काटना चाहा।

द्रौपदी का विवेक तब तक जाग्रत हो गया। वह बोली, “पुत्र के मरने का माता को कितना दुःख होता है, यह मैं जानती हूँ। उतना ही दुःख तुम्हारे गुरु द्रोणाचार्य की पत्नी को होगा। गुरु ऋण को, गुरुमाता के ऋण को समझो और उसे छोड़ दो।” अश्वत्थामा को छोड़ दिया गया। करुणा की बदले की भावना पर विजय हुई।

एक शिकारी तीर−कमान लेकर शिकार मारने निकला, पर कोई बड़ा जानवर हाथ न लगा। एक छोटा खरगोश भर पकड़ सका तो उसे घोड़े पर लादकर वापस लौट पड़ा।

लौटते समय वह अपने वतन का रास्ता भूल गया, तो उसने पेड़ के नीचे बैठकर चिड़ियाँ चुगा रहे लड़के से पूछा,”क्या तुम मेरे गाँव का रास्ता बता सकते हो?”

लड़के ने कहा,”मैंने दो ही रास्ते सुने हैं, एक दोजख का, जो तुम्हारे जैसे बेरहम लोगों को बिना किसी से पूछे मिल जाता है। दूसरा मेरी तरह नेकी करने का, जो जन्नत की ओर जाता है। तुम्हें जिस पर जाना हो, बिना पूछे चले जाओ।”

शिकारी के मन में बात चुभ गई। उसने खरगोश को नजदीक की झाड़ी में स्वच्छंद घूमने−फिरने के लिए छोड़ दिया और फिर कभी शिकार न करने की कसम खाई।


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