युगयज्ञ में चाहिए हविष्य, समिधा और आज्यः
“साधारण समय और विशेष समय में, साधारण व्यक्ति और विशिष्ट अंतर होता है। साधारण की चाल धीमी होती है और विशिष्ट की तत्काल निर्णय करने से लेकर कदम उठाने तक की प्रक्रिया के रूप में संपन्न होती है। धीरे−धीरे सोचते−विचारते, अनुकूल अवसर ढूँढ़ते, साथियों से सलाह−मशविरा करने में ढेरों समय लग जाता है और जो उत्कृष्टता का पक्षधर उत्साह उठा था, वह समय बीतते−बीतते ठंडा ही नहीं, समाप्त भी हो जाता है। असंख्यों की आदर्शवादी योजनाएँ, इसी प्रकार मटियामेट हुई हैं। इसके विपरीत असाधारण व्यक्ति समय को पहचानने में अपनी तीखी सूझ−बूझ का परिचय देते हैं। बिजली की तरह चमकते और तलवार की तरह टूट पड़ते हैं। असमंजस उनके आड़े नहीं आता। व्यापारी जैसा हानि−लाभ का हिसाब−किताब लगाने और ब्याज−बट्टे की फैलावट जोड़ने−घटाने की उन्हें फुरसत नहीं मिलती। करना तो करना, न करना तो न करना की नीति ही उदीयमान साहसियों को अपनानी पड़ी है। जब किसी उच्चस्तरीय साहस का प्रश्न उपस्थित हो तो ईसा की वह उक्ति स्मरण कर लेनी चाहिए, जिसमें वे कहते थे—यदि देने का मन आए तो बायें हाथ की वस्तु उसी स्थिति में दे डालो, उसे दाहिने हाथ तक पहुँचाने का प्रयत्न न करो। ऐसा न हो कि इस थोड़ी−सी ही देर में शैतान बहका दे और तेरे देने के इरादे को बदल दे।” (अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1982, पृ.सं. 58)
उपर्युक्त बात इस संदर्भ में लिखी गई कि आज भी बीस वर्ष बाद वैसा ही समय है। हमें पहचानना होगा कि हम असाधारण हैं, विशिष्ट हैं एवं हमारे दायित्व भी विशेष हैं। यदि हम समय को पहचानते हैं तो हमें बिना ननु−नच किए युग के नवनिर्माण की प्रक्रिया से, जिसे युग निर्माण योजना युगऋषि ने नाम दिया है, पूरी तरह जुड़कर अब कुछ विशिष्ट कर दिखाना चाहिए। इन दिनों गलाई−ढलाई का दैवीय उपक्रम चल रहा है, संधिकाल का भी यह अति विशिष्ट समय है। हम में से कई ऐसे हैं, जो योजना समझते हैं एवं यह भी मानते हैं कि इसी पर दुनिया का भविष्य टिका है। यदि देवसंस्कृति जाग्रत−जीवंत रही, इसके निर्धारण विश्वव्यापी हो सके, तो ही आसुरी व दैवी सत्ताओं के संघर्ष में दैवी पक्ष विजयी होगा। देवसंस्कृति के विस्तार के निमित्त ही शाँतिकुँज−गायत्री तीर्थ के सभी क्रियाकलाप इन दिनों नियोजित हैं। इन दिनों दैवी अनुदान पाना है तो स्वयं को खाली करना होगा। नवसृजन के लिए अंशदान−समयदान बढ़−चढ़कर निकालना होगा।
सुदामा को बगल में दबी चावल की पोटली भगवान को देनी पड़ी थी, तभी वे पोरबंदर के विशाल गुरुकुल के प्रधान आचार्य बने थे। कर्ण ने मुँह में लगे सोने के दाँत तक उखाड़ कर दे दिए थे। तब वे योगेश्वर के कृपापात्र बने थे। राजा बलि और हरिश्चंद्र को अपने राजपाट से हाथ धोना पड़ा था। शबरी को अपने बेरों की टोकरी खाली करनी पड़ी थी। गोपियों का दधि−मक्खन कितनी बार छिनता रहा। दरिद्र विदुर की पत्नी घर में कुछ न होने पर भगवान को बथुए का साग और केले के छिलके खिलाती रहीं। जिनके पास अर्थ−साधन नहीं थे, उन केवट, वानरों, रीछों ने अपना श्रम समर्पित किया था। इस प्रसंग में गिलहरी जैसे क्षुद्र प्राणी भी पीछे नहीं रहे।
सौ बातों की एक बात कि किसी ने भावनाशील को आज के आस्था−संकट के समय में महीने में अट्ठाईस या उनतीस दिन की कमाई से गुजारा करने में किसी भी प्रकार की कठिनाई नहीं होनी चाहिए। एक या दो दिन की आजीविका देवसंस्कृति विस्तार जैसे पुण्य−परमार्थ में लगा सकना किसी के लिए भी भारभूत नहीं होना चाहिए। इतना न सही तो यह तो किया जा सकता है कि अपनी कमाई में से पचास पैसा (आठ आना) रोज न्यूनतम इसी कार्य के लिए निकाला जाए और उसे प्रतिमाह इकट्ठे सीधे शाँतिकुँज भेज दिया जाए। यदि हमारे लाखों परिजन इसमें लग गए तो यह कार्य देखते−देखते पूरा हो सकता है।
इसी उद्देश्य से गायत्री तीर्थ शाँतिकुँज ने विशेष रूप से देवसंस्कृति विस्तार के निमित्त विशेष ज्ञानघटों के निर्माण व भारत तथा विश्वव्यापी विस्तार देने का मन बनाया है। इन ज्ञानघटों से प्राप्त राशि का उपयोग विशेष रूप से एक ही प्रयोजन देवसंस्कृति विश्वविद्यालय की महत्त्वाकाँक्षी योजना को मूर्तरूप देने में किया जाएगा। बड़े−बड़े अनुदानों से यदि ऐसे कार्य होते तो युग निर्माण टाटा व बिड़ला द्वारा ही हो जाता। लाखों भावनाशीलों का बूँद बूँद नियमित अंशदान जब सतत प्राप्त होगा तो उसे 200 करोड़ की योजना वाले विश्वविद्यालय में लगाने पर शुचितापूर्ण उद्देश्यों की भी पूर्ति होगी तथा परमपूज्य गुरुदेव के द्वारा बताए गए निर्देशों का भी परिपालन होगा।
यह ज्ञानघट योजना विशेष रूप से देवसंस्कृति विस्तार के लिए ही है। इसके लिए ज्ञानघट भी विशेष बनाए गए हैं तथा उनका बहिरंग कलेवर भी पहले के ज्ञानघटों से अलग है। पहले से चल रहे ज्ञानघट यथावत् चलते रहेंगे। उनसे प्रज्ञा संस्थानों, प्रज्ञा मंडलों, साहित्य विस्तार की पूर्ति आदि का कार्य चलता रहेगा। किंतु महाशिवरात्रि 2003 से आरंभ किए जा रहे इस अभियान के ये विशेष ज्ञानघट तो एक ही उद्देश्य के लिए होंगे—देवसंस्कृति का विश्वव्यापी विस्तार। ये ज्ञानघट उन सब घरों में स्थापित किए जा सकते हैं, जो अभी नए हैं, मिशन से अपरिचित हैं, परंतु उद्देश्य बताए जाने पर उत्साह दिखा रहे हैं या इस प्रयोजन से जुड़ना चाह रहे हैं। प्रयास किया जाए तो ये ज्ञानघट देखते−देखते प्रबुद्ध वर्ग—भावनाशीलों, विभूतिवानों, हमारी अखण्ड ज्योति, युग निर्माण योजना, युग शक्ति गायत्री पत्रिका के पाठकों के परिचितों के घर स्थापित हो सकते हैं। इस विशिष्ट ज्ञानघट की लागत भी बड़ी कम मात्र दस रुपये ही रखी गई है। प्रतिमाह इस राशि के संग्रह एवं भेजने के लिए एक तंत्र खड़ा करना होगा, जो कि आसानी से किया जा सकता है। यदि हमारी पत्रिकाओं के कुल बारह लाख ग्राहक व उनसे जुड़े इतने ही हितैषी पाठक इस योजना को नियमित लागू कर दें तो इनके द्वारा लगभग साढ़े तीन करोड़ रुपये की राशि हमें एक माह में तथा लगभग बयालीस करोड़ रुपये की राशि एक वर्ष में प्राप्त हो सकती है। यदि यह क्रम साढ़े चार−पाँच वर्ष भी चल गया तो हमारा देवसंस्कृति विश्वविद्यालय का पूरा प्रोजेक्ट इसी से पूरा हो सकता है।
सहज ही अनुमान नहीं होता कि इतना कुछ इस छोटी−सी बूँद बूँद से सरोवर भरने की प्रक्रिया से हो सकता है। यह अकल्पनीय−सा लगता है, पर सचाई है। एक−एक भावनाशील का अंश उसमें लगेगा, तो सब यह समझेंगे कि यह विश्वविद्यालय मेरा है, हमारा है। इसमें एक नहीं, कई ईंटें हमारी ही लगी है। इसमें पढ़ने वाले विद्यार्थी हमारे अपने हैं। जब पूरा विस्तार हो जाएगा एवं एक वर्ष में छह से दस हजार विद्यार्थी यहाँ से कार्यक्षेत्र में कार्यकर्त्ता के रूप में निकलेंगे तो फिर भान होगा कि इस अंशदान की कीमत क्या है!
परमपूज्य गुरुदेव ने अंशदान से ही मिशन को खड़ा किया है। वे आसनसोल जेल में थे। वहीं से उनने यह सूत्र महामना मदनमोहन मालवीय जी (उनके दीक्षा गुरु) से लिया था कि किसी भी संगठन में अपनत्व पैदा करना हो तो उसे मुट्ठी फंड से खड़ा करना चाहिए। बड़े−बड़े दान लेने में मना नहीं करना चाहिए, पर यदि हर कार्यकर्त्ता की भागीदारी रही तो संगठन सदैव चिरस्थायी रहेगा और उसके आधार सुदृढ़ होंगे। समयदान व अंशदान इस मिशन रूपी भवन की ईंट व सीमेंट है। इन्हीं से इतना बड़ा संगठन खड़ा हुआ। मालवीय जी ने अपनी बात तत्कालीन काँग्रेस से कही थी। वे तो ऐसा नहीं कर पाए व स्वतंत्रता के बाद तो उसका स्वरूप ही बदल गया। सत्तामद छा गया। यदि सही मायने में बात समझी गई होती हो वर्तमान राजनीति का स्वरूप आज कुछ और ही होता।
दान में दिए गए धन की शुचिता एवं संगतिकरण की भावना दोनों ही उस द्रव्य से सिंचित वटवृक्ष की जड़ों को मजबूत बनाते हैं। आज हम यदि कहीं खड़े हैं एवं बिना किसी सरकारी अनुदान के, बड़े−बड़े दान देने वाले संगठनों की ओर मुँह ताके, अपना कार्य करते चले जा रहे हैं तो उसका एकमेव कारण है—लक्ष्य की सुनिश्चितता एवं जन−जन की भावनाशीलता पर दृढ़ विश्वास।
यहाँ किसी भी तरह अधिक−से−अधिक श्रम कर, जनसंपर्क कर, जन−जन से धन−संग्रह करने वालों की अवमानना नहीं की जा रही। यह कार्य तो चलते रहना चाहिए। जहाँ भी जिस किसी के पास भी परमार्थपरायणता का भाव है, उदारचेता जैसी अंतःकरण की स्थिति है एवं अपने साधनों की कटौती कर देने का भाव है, वे अधिक भी दे सकते हैं। सभी जानते हैं कि ‘श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्ट’ को अति प्रमाणित मानकर केंद्रीय सरकार ने धारा 35 ए.सी. के अंतर्गत 100 प्रतिशत आयकर छूट दी है। यदि कोई व्यक्ति एक लाख रुपये दान देता है तो उसकी कर योग्य आय में से प्रायः छत्तीस हजार रुपये की छूट उसे मिल जाती है। इसी प्रकार सरकारी, गैर−सरकारी अधिकारी, वेतनभोगी कर्मी भी धारा 80 जी.जी.ए. के अंतर्गत अपनी राशि भेजकर प्रमाण−पत्र प्राप्त कर अपनी कर राशि का समुचित उपयोग धर्मार्थ कार्यों में कर सकते हैं। एक दिन की कमाई या एक दिन का वेतन अभी भी कई परिजन नियमित रूप से भेजते हैं। यदि यह क्रम निरंतर चले, अधिक लोगों द्वारा चले तो रुके कार्य तीव्र गति से हाथ में लिए जा सकते हैं।
सभी जानते हैं, फिर भी बता देना अनिवार्य है कि अब तक चौबीस करोड़ रुपये का निर्माण−कार्य हो चुका है। दो सौ छात्रों व पचास व्यक्तियों के स्टाफ से प्रायः छह फैकल्टीज वाला विश्वविद्यालय इस जून में अपना एक वर्ष पूरा कर लेगा। नालंदा−तक्षशिला वाला विराट रूप देने के लिए अधिक प्राध्यापकों−आचार्यों की भरती करनी होगी तथा पूर्णतः आवासीय बनाने के लिए छह हजार विद्यार्थियों की व्यवस्था बनानी होगी। धर्म−विज्ञान एक ऐसा संकाय है जिसमें शुरुआत तो मात्र पचास छात्रों से हुई है, पर यह अलग भवन व समग्र तंत्र की अपेक्षा रखता है, जो दो−तीन वर्ष में पूरी करनी ही होगी। चिकित्सा−क्षेत्र में वैकल्पिक एवं पूरक चिकित्सा पद्धतियों पर शोध−अनुसंधान एवं औषध−निर्माण, स्वास्थ्य संरक्षकों के प्रशिक्षकों के तंत्र का निर्माण भी रुका पड़ा है। इससे हमारा आयुर्वेद शिखर एवं सारे विश्व में पहुँच सकेगा। इस कार्य में भी प्रायः तीस करोड़ की लागत का अंदाज है, जिसमें उपकरण आदि सभी सम्मिलित हैं।
पाठकों को मात्र एक झलक भर दी गई है। कभी भी समय निकालकर इस तंत्र को आकर देखा−समझा जा सकता है कि नवरत्नों की टकसाल किस तरह से यह विशिष्ट भूमिका निभा रही है। नई पीढ़ी के कार्यकर्त्ताओं की तैयार हो रही है, जो पूरी तरह अनौपचारिक शिक्षा, स्वावलंबनप्रधान, संस्कृति मूल्य आधारित शिक्षण−प्रणाली के माध्यम से विकसित हो रही है। ‘न भूतो न भविष्यति’ जैसा तंत्र हमारी गुरुसत्ता के सपनों को सार्थक करता खड़ा हो रहा है। ज्ञानघट योजना तो अणुव्रत की तरह छोटी शुरुआत वाली है, युग परिवर्तन की इस संधिबेला में जो भी कुछ विलक्षण चरितार्थ होने जा रहा है, वह राष्ट्र का साँस्कृतिक नवोन्मेष ही नहीं करेगा, उसे जगद्गुरु की पदवी पर बिठाकर रहेगा। तेजी से होने जा रहे इन परिवर्तनों की पृष्ठभूमि समझने के लिए आवश्यक है कि हम उसकी अग्रगामी वस्तुस्थिति को आद्योपाँत समझें और अपने संपर्क−क्षेत्र को उसे साँगोपाँग रूप से समझाने की रणनीति अपनाएँ। इस ज्ञानघट स्थापना अभियान को जन−जन तक पहुँचाएँ।