प्रेरणा में होता है दुर्धर्ष आत्मबल

April 2003

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प्रेरणा सफलता का दिव्य प्राण है, मूल मंत्र है। सफल व्यक्तियों के जीवन का क्षण-क्षण प्रेरणा के प्रभाव से प्रकाशित होता है। ये प्रेरणा के घनीभूत आलोक होते हैं। जिनके प्रेरणादायी सजल भावनाओं एवं प्रखर विचारों के मर्मस्पर्शी छुअन से न जाने कितने ही अपने जीवन की व जाने कितने अन्यों की दिशाधारा बदल देते हैं। इन प्रेरणाओं के पुण्य प्रवाह की पावनता के सान्निध्य में जीवन के आयाम परिवर्तित हो जाते हैं। अन्तः प्रेरणा एक दिव्य एवं ईश्वरीय संदेश है। वहाँ सद्भाव, सद्ज्ञान एवं सद्विचार की त्रिवेणी बहती है और इसी संगम पर पुण्य प्रेरणा प्रवाह का उदय होता है।

प्रेरणा का यह पुण्य प्रवाह जब जीवन में उमड़ने लगता है तो जीवन की जड़ता, शुष्कता, कठोरता विलीन होने लगती है, घटने-मिटने लगती है। जीवन में आये ठहराव में फिर से हलचल होने लगती है और यह हलचल तीव्रगामी तरंगों में तरंगित होने लगती है। अन्तर संवेदना के स्रोत फूट पड़ते हैं और अनुभूति व सफलता की अदृश्य ऊर्जा प्रकट-प्रत्यक्ष होने लगती है। फिर जीवन संवेदना, भावना एवं करुणा की चैतन्य चेतना की ओर अग्रसर होने लगता है। इसके मूल में प्रेरणा के प्राण ही हिलोरें लेते हैं।

साधु सन्तों के प्रेरणादायी विचारों के प्रभाव से दासी पुत्र नारद के जीवन में नये मार्ग खुले और वे इन्हीं प्रेरणाओं से देवर्षि नारद कहलाये। उन्हीं की प्रेरणा ही प्रह्लाद की भक्ति और जगदम्बा पार्वती की पावन तपस्या में घनीभूत हुई थी। तपस्या के चरम शिखर से बारम्बार गिरने वाले विश्वामित्र की प्रखर अंतःप्रेरणा ही थी जो उन्हें उतने ही बार उठायी और उसे शिखर पर आरुढ़ करती रही। प्रेरणा में प्रबल इच्छाशक्ति जुड़ी रहती है, दुर्धर्ष आत्मबल भरा रहता है। यही साहस और सामर्थ्य के रूप में प्रकट होता है जो कैसी भी विघ्न-बाधाओं, कठिनाइयों और संघर्षों को चुनौती देने में आनन्द व उत्सव मनाता है। और यही प्रेरणा राजा विश्वरथ को ब्रह्मर्षि विश्वामित्र बनाने में सहायक सिद्ध हुई।

प्रेरणा प्रकाश स्रोत है। जो प्रतिकूलता के घने कुहासे को चीरकर आशाओं की सतरंगी आभा बिखेरती है। अभाव के दर्द भरे दलदल में समृद्धि का भव्य भवन खड़ा करती है। और आसक्ति के मलीन-धूमिल आकाश में सामर्थ्य का सूर्य उदय करती है। असफलता के असहाय क्षणों में प्रेरणा ही जीने का सहारा देती है आगे बढ़ने का हौसला देती है। यही है जो जीवन को जीवन्त बना देती है तथा हर विषमताओं में विश्वास का बल भरती है और दुर्गम और असम्भव सा लगने वाला लक्ष्य सहजता-सरलता से मिल जाता है। इसी कारण पतन-पराभव से जर्जर मानसिकता प्रगति-उन्नति की ऊर्जा से ऊर्जान्वित हो जाती है। फिर जीवन में बिखराव रुकता है, भटकाव थमता है व उमंगों के अनगिन बुझे दीप जगमगा उठते हैं।

प्रेरणा की यह उमंग और उत्साह स्वप्रेरित भी होती है। यह मनोजगत की चेतना से उत्पन्न होती है और यह प्रेरणा, प्रकाश पुरुषों के माध्यम से भी प्रवाहित होती है। ऐसे ही प्रेरणा पुरुष थे सुकरात। जिनकी प्रेरणा से प्लेटो ने अपने महनीय गुरु के दर्शन के गूढ़ सूत्रों को दर्शन शास्त्र में परिणित कर दिया। उनके विचारों को सरल-सहज बनाकर सबके समक्ष सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया। उनके पीछे सुकरात की प्रेरणा ही कार्य कर रही थी। दिव्य प्रेरणा के प्रतिनिधि स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा का प्रभाव ही था कि आयरलैण्ड संस्कृति में पली-बढ़ी मार्गरेट नोबुल भारत माता के लिए पूर्णतया समर्पित हो गयी, निवेदित हो गयी। पुण्य भूमि भारत के लिए यह चीर निवेदन ही उन्हें निवेदिता के पद से अलंकृत किया। यही नहीं स्थूल देह में न होने पर भी स्वामी जी अभी भी भावलोक में विश्व कल्याण के लिए तपस्यारत हैं। वहीं से उनके प्रेरणाप्रद विचार अपना आलोक बिखेरते रहते हैं। उनके दिव्य विचारों एवं सजल भावों से उत्प्रेरित होकर अभी भी असंख्य जन उन्हें अपना ईष्ट,आदर्श मानते हैं। वह सब उनके तपोमयी प्रेरणा का ही प्रभाव है।

प्रेरणा हमारे प्रयास-पुरुषार्थ के पीछे छिपी-बैठी असीम शक्ति है। यही हमें अपनी प्रबलता- दिव्यता का पल-पल प्रतिपल अहसास कराती है। यदि हमारा अंतर्मन पावन व पवित्र हो तो इसका अनुभव और भी गहरा हो सकता है। इसी गहराई-गम्भीरता में प्रेरणा का प्राण आत्मा का आवास है। अध्यात्म के तमाम साधन-साधनाएँ इसी गहराई में उतर कर आत्मप्रेरणा से प्रेरित होती हैं। श्रीअरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस अपने दिव्य पुरुषार्थ-साधना से इस आत्म प्रेरणा से अनुप्राणित हो सके थे। उनका प्रेरणा स्रोत उनके अपने अन्दर में विद्यमान था। वही आत्म प्रेरणा ही उनका सद्गुरु थी।

सामान्य जनों के लिए भी यही सत्य यथार्थ है, परन्तु अपने अन्दर में उठती-उफनती उस प्रेरणा को पाने के लिए ऐसे किसी मार्गदर्शक सत्ता, सद्गुरु की आवश्यकता पड़ती है। यह गहरे उतरने की बात है, प्रेरणा स्रोत से साक्षात्कार करने की बात है, परन्तु अपने दैनिक जीवन में सच्चाई के पथ पर बढ़ने के लिए, प्रगति उन्नति एवं सफलता पाने के लिए किसी सफल एवं सुयोग्य व्यक्ति के विचारों से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए। उससे प्रेरणा लेनी चाहिए कि सफलता की राह कितनी ही कठिनाइयों-समस्याओं से घिरकर आगे बढ़ती है। यह डगर कंटकाकीर्ण होने के बावजूद, इसमें बढ़ने वालों को लहूलुहान होने देखने के बावजूद, उस जज्बा और साहस को कमने-थमने नहीं देती। अन्त में इसी पथ पर अन्वेषण के फूल खिलते हैं और सफलता की सुगन्ध फैलती है। यही प्रेरणा ही हमारी सफलता की धरोहर व थाती है।

यही सफलता स्वयं के लिए प्रेरणादायी बन जाती है तथा दूसरों को भी इसी त्याग-बलिदान के पथ की ओर प्रेरित करती है। प्रेरणा ग्रहण करना तथा प्रेरणादायक बनना हमारी सनातन परम्परा है। जिसमें स्नान कर अनगिनत-असंख्यों ने अपनी जिन्दगी की दिशा और दशा बदल दी। आज भी यह स्रोत अक्षुण्ण है । सतत-निरन्तर प्रवाहित है जो आने वाले दिनों में न जाने कितनों के भाग्य व भविष्य को बदल देने की क्षमता रखती है। प्रेरणा प्रगति व विकास की बहती पुण्यतोया पावन धारा है। अतः हमें अपने प्रेरणापुञ्ज से सदैव जुड़े रहना चाहिए। यही हमें उत्साहित-प्रोत्साहित करने का एकमात्र माध्यम है। अगर हम अपने अन्दर इस दिव्य प्रेरणा को विचारों-भावनाओं एवं दैनिक जीवन के हर छोटे-बड़े कार्यों में उतार सकें, तो हम भी किसी और के लिए प्रेरणास्पद आलोक बन सकते हैं। अतः प्रेरणा रूपी इस दिव्य अनुदान से हमें वंचित नहीं होना चाहिए। सदा मन और भावना से जुड़े रहना चाहिए। इसी में जीवन की सफलता है।


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