यरवदा जेल में गाँधी जी भी थे और सरदार पटेल भी। पटेल नीम की दातुन लाने लगे। गाँधी जी ने कहा, “रोज लाने की जरूरत नहीं है। इस्तेमाल किया हुआ भाग काटते रहने से एक ही दातुन कई दिन चल जाएगी।”
पटेल ने कहा, “यहाँ नीम पर टहनियाँ बहुत हैं।” गाँधी जी ने कहा, “लेकिन हम उनका या किसी वस्तु का दुरुपयोग तो नहीं कर सकते।”
ब्रह्मचारी शाकुँतल गुरु आज्ञा से अनुभव−संपादन के लिए कई वर्ष तक भूमंडल के विभिन्न भागों में भ्रमण करते रहे। निर्धारित अवधि पूरी होने पर आश्रम में पहुँचे। कुलपति महर्षि मुद्गल जी को प्रणाम किया। अपनी यात्रा का विवरण सुनाया, स्नेह पाया।
समय पाकर शाकुँतल ने कहा,”गुरुदेव! मैंने एक आश्चर्य देखा। पृथ्वी पर रहने वाले, वृक्षों पर निवास करने वाले, जलचर तथा नभचर, सभी प्राणियों को नीरोग जीवन जीते देखा। उन्हें कहीं चोट लग जाए, घायल हो जाएं, यह और बात हैं, परंतु जुकाम, खाँसी, ज्वर जैसे सामान्य रोग भी उन्हें नहीं होते। श्वास, हृदय रोग, राजयक्ष्मा जैसे रोगों का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता।”
गुरुदेव मुस्कराए और बोले,”क्या मनुष्य के साथ रहने वाले पालतू पशु−पक्षियों को भी रोग होते नहीं देखा?”
बटुक ने कहा,”हाँ, उन्हें बीमार होते देखा है, परंतु वे सामान्य रोगों से ही ग्रस्त होते हैं और मनुष्य की अपेक्षा जल्दी आरोग्य−लाभ कर लेते हैं।”
गुरुदेव ने समझाया, “वत्स! मनुष्य को यह दंड प्राकृतिक नियमों के उल्लंघन के कारण मिलता है। अन्य जीवों में प्रकृति का उल्लंघन करने जितनी समझ या नासमझी नहीं है, इसलिए वे नीरोग हैं, पर रोग का संकेत मिलते ही सहज वृत्ति से प्रेरित उस मर्यादा में आ जाते हैं और जल्दी आरोग्य−लाभ करते हैं।
“हे तात! चिकित्सालय और कुशल चिकित्सकों की संख्या कितनी भी बढ़ जाए, जब तक मनुष्य संयम से, मर्यादा से दूर रहेगा, उसे रोगों से मुक्ति नहीं मिलेगी, इसलिए संयम की प्रेरणा जन−जन को देकर ही उन्हें रोग और दुःखों से बचाया जा सकता है। चिकित्सा−व्यवस्था केवल सहायक भूमिका निभा सकती हैं।