महानिर्वाण की अनुभूति

April 2003

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‘पुण्योगन्धः पृथ्वायाम्’- हवाओं में बिखरती पद्मगन्ध इस आर्षवचन को सार्थक कर रही थी। भगवान् तथागत अपनी गन्धकुटी में बैठे थे। भगवान् की तपःपूत देह ही इस पद्मगन्ध का स्रोत थी। वह जहाँ बैठते, जहाँ भी समाधि लीन होते, वहाँ का सम्पूर्ण वातावरण उनकी दिव्य सुगन्ध से महक उठता था। उनके आवास स्थान के कण-कण में यह दिव्य सुरभि भर जाती थी। यही कारण था कि आश्चर्य विभोर हुए भगवान् के शिष्यों ने उनके आवास स्थान को गन्धकुटी नाम दिया था। तथागत जहाँ भी रहते, वह स्थान गन्धकुटी के नाम से जाना जाता।

एक बार जिज्ञासु जनों का समाधान करते हुए भगवान् ने कहा था- भन्ते! यह देह पृथ्वीतत्त्व प्रधान है। इसका स्वाभाविक गुण पुण्य गन्ध है। परन्तु इसमें आश्रय पाने वाले विचारों के विकारों ने, भावनाओं के प्रदूषण ने, प्राण की दूषित दशा ने इस पुण्य गन्ध को नष्ट कर दिया है। इन दोष-दुर्गुणों से कभी-कभी स्थिति इतनी दूषित हो जाती है कि सुगन्ध बिखेरने का स्वभाव रखने वाली देह से दुर्गन्ध फूटने लगती है। लेकिन तप की प्रचण्डता से, विचार, भावनाओं एवं प्राण की पवित्रता फिर से लौट आती है। और देह पद्मगन्ध का स्रोत बन जाती है।

भगवान् के इन वचनों का मर्म स्वयं भगवान् की उपस्थिति थी। वह जहाँ भी अपने सम्बुद्ध शिष्यों के साथ बैठते, वहीं दिव्य कमल बन अवतरित हो जाता। हवाओं में स्वर्गीय भाव सघन हो जाते। यह सघनता इतनी सक्रिय होती थी कि इसकी छोटी सी छुअन भी प्राणों में पुलकन भर देती। मानव चेतना सहज ही दिव्य भावों को छूने लगती। सामान्य प्राणों में भी दिव्य भाव मचल उठते। भगवान् तथागत की समाधि लीन चेतना के सान्निध्य में सामान्य साधक भी समाधि की ओर उन्मुख होने लगते। जिनकी साधना प्रखर थी, उनके लिए तो भगवान् का स्पर्श निर्वाण के महाद्वार खोलने वाला था।

भगवान् दिव्य भावों के सघन महाभाव थे। आज वह अपनी गन्धकुटी के अन्तःकक्ष में भावलीन दशा में बैठे थे। तभी तीस भिक्षुओं ने आकर उन्हें प्रणाम किया। उनके प्रणाम के उत्तर में तथागत का नेत्र थोड़ा उन्मीलित हुए। अधरों पर हल्की सी स्मित रेखा उभरी। भौहों में रहस्यमय संकेत सघन हुआ। अन्तस् में परावाणी के स्वर उभरे। जिन्हें आगन्तुक भिक्षुओं ने मौन की निरवता में सुना। इन भिक्षुओं को अपने साथ लाने वाले भदन्त आनन्द इस अलौकिक कार्य व्यापार को समझ नहीं पाए।

भगवान् के अनेकों अलौकिक कार्यों के वह साक्षी थे। उनके सान्निध्य में अनेकों आश्चर्यों को उन्होंने सघन होते हुए देखा था। शास्ता के अनगिन दिव्य भावों ने उनके सामने आकार लिया था। स्वर्लोक, महःलोक की दिव्य विभूतियों को उन्होंने भगवान् के सम्मुख साष्टांग होते हुए देखा था। पर आज की कथा तो सर्वथा निराली थी। आज तो जैसे शास्ता इस लोक में उपस्थित होते हुए भी अनुपस्थित थे। आनन्द चकित तो हुए, पर कुछ सोच न पाए। बस प्रत्यक्ष में उन्होंने इतना भर देखा कि उनके साथ आने वाले तीसों भिक्षु भगवान् के सम्मुख अर्धचन्द्राकार घेरे में क्रमवार बैठ गए।

महाभिक्षु आनन्द ने बाहर आकर कक्ष का द्वार बन्द किया। और पहरा देने लगे। पल-क्षण बीते, घड़ी-प्रहर बीते। अब तो दिवस भी बीत चला। पर न तो कक्ष के द्वार खुले और न ही कोई बाहर निकला। आनन्द का धैर्य चुकने लगा। वे बार-बार चिन्तित हो सोच रहे थे, बड़ी देर हो गयी, बड़ी देर हो गयी, अब आखिर और कितनी देर। आखिर ऐसा क्या होने लगा कक्ष में। वार्तालाप की भी तो कोई ध्वनि नहीं है। शास्ता के सेवक का धर्म निभाते हुए उन्होंने यह भी सोचा- आखिर ये भिक्षु और कितना सताएंगे भगवान् को। इन्होंने जितना समय माँगा था, उससे तो दुगुना समय हो गया।

अब तो सारी सीमाएँ पार हो गयीं महाभिक्षु आनन्द के धीरज की। वह उठे। उन्होंने दरवाजे से झाँक कर देखा। देखकर वह बड़े ही हैरान हुए। क्योंकि वहाँ तो भगवान् अकेले बैठे हुए थे। जो तीस भिक्षु उनके साथ यहाँ तक आए थे, उनका कोई भी अता-पता नहीं था। महाहैरान आनन्द को महाआश्चर्य ने घेर लिया। एक बार नहीं कई बार उन्होंने अपनी आँखें मली। पर उन्हें भरोसा न आया। वह सोचने लगे कि आखिर हुआ क्या है? इस कक्ष में दरवाजा तो एक ही है। और उस दरवाजे पर वह स्वयं बैठे हुए हैं। उनके सामने तो कोई भी कहीं नहीं निकला।

थक-हार कर उन्होंने भगवान् से ही इस भेद को पूछने का निश्चय किया। थोड़ी हिचकिचाहट, थोड़े भय और भारी श्रद्धा से सकुचते-सहमते हुए उन्होंने प्रभु से प्रकट रूप में पूछा- भन्ते! कुछ भिक्षु आपसे मिलने आए थे। यह क्या चमत्कार! वे कहाँ हैं? बाहर तो उनमें से कोई निकला नहीं, क्योंकि बाहर द्वार पर मैं बैठा हूँ। निकलने का अन्य कोई द्वार इस कक्ष में है नहीं। इसलिए वे बाहर किसी भी तरह जा नहीं सके। तब आखिर वे गए कहाँ?

आनन्द की इस प्रश्न शृंखला पर बुद्ध विहंसे। फिर बड़ी ही कृपापूर्ण दृष्टि आनन्द पर डालते हुए बोले- वे गए आनन्द, वे चले गए, वे आकाश मार्ग से चले गए पुत्र। चकित आनन्द से संभ्रमित होते हुए कहा, प्रभु आप मुझे इस तरह आश्चर्यों के चक्र में न डालें। भगवान् आप मुझे उलझाएँ मत। पहेलियाँ न बुझाएँ, सीधी-सीधी भाषा में कहें, वे गए कहाँ? क्योंकि मैं द्वार पर बैठा हूँ और पूरा सजग हूँ।

वत्स चकित मत हो, तुम्हें चौंकने की जरूरत नहीं है। आनन्द- वे सबके सब भीतर के आकाश से समाधि में उतर गए। इस अन्तर आकाश में उतरने के लिए किसी और द्वार से जाने की जरूरत नहीं है। भगवान् अपने भिक्षुओं को यह कथा कह रहे थे, तभी कक्ष के द्वार से आकाश में हंस उड़ते हुए दिखाई दिए। उन्हें देखकर भगवान् ने कहा- देखा आनन्द, पुत्र द्वार के बाहर देखो जैसे आकाश में हंस उड़ रहे हैं, ऐसे ही वे भी उड़ गए। आनन्द ने पूछा, तो क्या वे उड़कर हंस हो गए? गए कहाँ? अपनी आध्यात्मिक मुस्कान की सघनता के साथ शास्ता ने कहा- वे परमहंस हो गए, आनन्द।

फिर आश्चर्य से जड़ीभूत हुए आनन्द से यह गाथा कही-

हंसादिच्चपथे यंति आकासे यंति इद्धिया। नीयंति धीरा लोकम्हा जेत्वा मारं सवाहिनी॥

‘हंस सूर्यपथ से जाते हैं। ऋद्धि से योगी भी आकाश में गमन करते हैं। इसी तरह धीर पुरुष सेनासहित मार को पराजित कर लोक से निर्वाण में चले जाते हैं।’

इस धम्मगाथा को सुनने के बाद भी आनन्द की समझ में इसका रहस्य न आया। तब भगवान् ने अपने कथन को और भी स्पष्ट करते हुए कहा- जैसे हंस आकाश में उड़ते हैं, ऐसा एक और आकाश है- अन्तर का आकाश, जहाँ परमहंस उड़ते हैं। जैसे हंस आकाश में उड़ते हैं, दूर की यात्रा करते हैं, ऐसे परमहंस अन्तर के आकाश में उड़ते हैं। वे शैतान की सारी सेना को मारकर, लोक से निर्वाण को चले जाते हैं।

लेकिन भगवान् उन भिक्षुओं के शरीर का क्या हुआ? प्रश्न के उत्तर में भगवान् बोले, वे भिक्षु महायोगी थे आनन्द। जब उनकी अन्तर्चेतनायें महानिर्वाण में लीन होने लगीं, तब उन्होंने योगबल से पंचभूतों की अपनी देहों को योगबल से विघटित कर दिया। योगीजनों के ऐसे क्रियाकलापों पर चकित नहीं होना चाहिए। बस उनकी तपःपूत देहों के अवशेष के रूप में यह सब ओर पद्मगन्ध बिखरी है। इसी में उनके महानिर्वाण की अनुभूति करो।


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