आदर्श शिक्षक बनाते हैं महामानव

April 2003

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शिक्षा जीवन−निर्माण की कला है। इसका वास्तविक स्वरूप यही है। यद्यपि इस स्वरूप में भौतिकी, रसायन, चिकित्सा, वास्तुकला आदि की विविध जानकारियाँ भी समाविष्ट हैं, पर इनका उद्देश्य जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं का समाधान कर जीवन का निर्माण करना ही है। जीवन−निर्माण की यह विद्या सीखने वाला छात्र है और सिखाने वाला अध्यापक। आदर्श अध्यापक और अनुशासित छात्र का युग्म ही इसको सार्थक−समुन्नत बनाता है।

वर्तमान समय में छात्र और अध्यापक, दोनों के स्तर में गिरावट होने से शिक्षा का स्वरूप भी धूमिल हो गया है। आज अधिकाँश छात्र मात्र इस उद्देश्य से विद्यालय में प्रवेश करते हैं कि किसी प्रकार अच्छी−से−अच्छी नौकरी पाकर विलासितापूर्ण जीवनयापन करें। इसी तरह अध्यापक भी अपने आदर्शों से विमुख होकर अपने गुरुत्वपूर्ण दायित्व को विस्मृत कर बैठे हैं।

इतना ही होता, तो भी खैर थी। स्तर की गिरावट इतनी अधिक है कि हर बुद्धिजीवी का मन चिंताग्रस्त है कि यदि इसी प्रकार चलता रहा तो आगे क्या होगा! अध्यापक आज अपने पवित्र अध्यापन को भुलाकर ट्यूशन आदि नाना प्रकार के संसाधन जुटाकर अधिकाधिक धन कमाने के चक्कर में पड़े हैं। इसी कारण वे कक्षाओं में पढ़ाना, न तो आवश्यक समझते हैं न कि अनिवार्य। उनका उद्देश्य मात्र धन कमाना हो गया है। वह किस तरह मिले, इसी के साधन ढूँढ़ते रहते हैं। वह ट्यूशन जैसा माध्यम हो या प्रयोगात्मक परीक्षा जैसी किसी परीक्षा में अधिक अंक दिलाने का लालच देने जैसा अन्य कोई माध्यम।

अध्यापकों के इसी व्यवहार से छात्रों का भी असंतोष फूट पड़ा है। परिणामस्वरूप हम देख ही रहे हैं कि स्कूल, कॉलेज शिक्षा के पावन मंदिर न रहकर असामाजिकता के अखाड़े बन गए हैं। जहाँ कभी छात्र जेब में पेन लेकर प्रवेश करता था, आज वहीं पेन के साथ चाकू, पिस्तौल भी लाने लगा है। जो छात्र कभी शिक्षकों के चरण स्पर्श करने में अपना गौरव समझते थे, आज वही शिक्षकों का गला पकड़ने में बहादुरी मानते हैं। अनुशासन जैसी चीजें तो मात्र पुस्तकों के पन्नों में छिपकर अपनी जान बचाने की सोचने लगी हैं।

विद्या मंदिरों की पवित्रता, श्रेष्ठता नष्ट करने में किसकी गलती अधिक है, यह तो स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है, पर यह सुनिश्चित है कि दोनों अपनी−अपनी जगह कसूरवार हैं। आज भी कहीं−कहीं ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं, जो प्राचीन गौरव की झलक दिखा देते हैं, पर ऐसे छात्र और और अध्यापक नगण्य ही हैं।

प्राचीनकाल की भारतीय परंपरा में तपस्वी, आदर्शनिष्ठ, अपरिग्रही, ऋषि स्तर के अध्यापक होते थे। वैसे ही अनुशासित, सेवाभावी, अध्यवसाय वाले, स्वाध्यायशील छात्र। शिक्षा भी ऐसे युग्म को पाकर अपने को कृतार्थ समझती थी और अपने सारे−के−सारे रहस्य ऐसे सुपात्रों के समक्ष खोलने में अपने को कृतकृत्य मानती थी।

तपस्वी शिक्षकों में जहाँ शिक्षण−प्रक्रिया का चरम विकास हुआ था, वहीं छात्रों में अध्ययन−प्रक्रिया अपनी चरम सीमा पर थी। विभिन्न विद्याओं, कलाओं में निष्णात छात्र भी अकड़बाजी व गर्व की मदिरा में चूर न होकर विनय के अमृत से सराबोर होते थे। विद्या ददाति विनयम् का सूत्र सर्वत्र परिलक्षित होता था। हड़ताल और मारधाड़ ने तो संभवतः विद्यालयों के शब्दकोश में भी प्रवेश न पाया होगा।

ऐसी परंपरा का निर्वाह भरद्वाज जैसे ऋषि करते थे। उनका गुरुकुल प्रयाग के पावन क्षेत्र में था, जहाँ दस हजार स्वाध्यायशील छात्र विद्या अध्ययन करते थे। उस समय शिक्षा का विकास विद्या स्तर तक हुआ था। ज्ञातव्य है कि शिक्षा का ही सुपरिष्कृत रूप विद्या है। विद्या का लक्ष्य सत्य का अध्ययन करना है, पर आज तो स्थिति दूसरी है। विनोबा ने एक जगह इस संबंध में उल्लेख करते हुए कहा था, “ऋषिकाल में विद्यालय विद्या के आलय अर्थात् आगार होते थे, पर आज के परिवेश में विद्यालय ऐसे हैं, जहाँ विद्या का लय अर्थात् लोप होता है।” विनोबा का यह कथन निश्चित ही आज के वातावरण को देखकर यथार्थ प्रतीत होता है।

शिक्षक की भूमिका इतनी ही नहीं है कि मात्र विषय की जानकारी दे दें, वरन् उनका दायित्व यह भी बनता है कि वह विषय को भली प्रकार हृदयंगम भी करा दें। उनके दायित्व में अभिभावक का दायित्व भी सम्मिलित है। यद्यपि अब आवासीय विद्यालय कम हैं, जबकि पहले इसी स्तर के विद्यालय होते थे। वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग आता है, जब महर्षि विश्वामित्र अपनी शिक्षण−प्रक्रिया के समय राम और लक्ष्मण को प्रोत्साहन देते हुए प्रातः काल जगाते हुए कहते थे, “उत्तिष्ठ नरशार्दूल पूर्वा संध्या प्रवर्तते।” अर्थात् हे पुरुषों में श्रेष्ठ, उठो, पहली संध्या का समय हुआ है। विश्वामित्र जैसे आचारवान और तपस्वी गुरु और राम−लक्ष्मण जैसे विनयी अध्यवसायसंपन्न सुपात्रों को पाकर ही बला और अतिबला विद्याएँ सार्थक हुई।

सेवानिवृत्त वरिष्ठ आई. सी. एस. अधिकारी श्री जगदीश चंद्र माथुर ने अपनी पुस्तक ‘दस सुमन’ में अपने वार्डन तथा विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो.अमरनाथ झा के व्यक्ति त्व तथा आदर्शनिष्ठा पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि वे छात्रों के साथ पुत्रवत् व्यवहार करते थे। आने वाले छात्रों से पहली मुलाकात वे अपने घर बुलाकर ही करते थे। इस पहली मुलाकात के बाद छात्र इतने भावाभिभूत हो जाते थे कि किसी समस्या, कोई उलझन को उनके अपने अनुशासनप्रिय, आदर्शनिष्ठ, कर्त्तव्यपरायण शिक्षक की जाग्रत मूर्ति देखने के साथ ही भावनाशील पिता की प्रतिच्छाया भी देखता था। सचमुच ऐसे ही शिक्षक विद्यार्थियों का निर्माण करने में सक्षम हैं।

डॉ. प्रफुल्लचंद्र राय विश्वप्रसिद्ध रसायनविद् होने के साथ ऐसे ही उत्कृष्ट कोटि के शिक्षक भी थे। उनसे पढ़ने में छात्र अपने सौभाग्य को सराहते थे। वे भी 750 रुपये के वेतन में से अपने लिए मात्र 50 रुपये रखकर बाकी सभी छात्रों के हित के लिए लगाते थे। उनका स्नेह पाकर छात्रों का हृदय गदगद हो जाता था। जिसने एक बार उनका सान्निध्य पाया, बार−बार उनसे मिलने को आतुर रहता था। उद्दंड−से−उद्दंड छात्र उनके प्रेम की मोहिनी से मोहित होकर सारा कलुष त्यागने व अनुशासनबद्ध होने को तैयार हो जाते थे। डॉ.शांतिस्वरूप भटनागर जो सी. एस. आई. आर. के प्रथम निदेशक बने, उन्हीं की देन थे।

श्री अरविंद घोष जो क्राँतिकारी होने के पूर्व बड़ौदा कॉलेज में अँगरेजी और लैटिन के अध्यापक थे, अपनी शिक्षण−कला, निस्पृहता, उदारता, स्नेह आदि गुणों से थोड़े ही समय में छात्रों के मानस−मंदिर में पूरी तरह से प्रतिष्ठित हो गए थे। उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल, भारतीय विद्या भवन के संस्थापक श्री के.एम. मुँशी, जो उस समय उनके छात्र थे, ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि उनके घर जाने पर उनकी सादगी देखकर मैं दंग रह गया। श्री अरविंद मात्र चटाई पर सोते थे। घर में तड़क−भड़क जैसी कोई चीज नहीं थी। संपत्ति−सजावट के नाम पर मात्र पुस्तकें। ऐसी अभूतपूर्वता देखकर जिज्ञासा करने पर श्री अरविंद ने बताया कि शिक्षक को कठोर संयमी होना चाहिए। जब वह स्वयं अध्ययनशील, त्यागी, निस्पृह, अपरिग्रही बनेगा, तभी अपने छात्र को योग्य और अनुशासन प्रिय होने के साथ देशभक्त बना सकेगा।

ऐसी ही कड़ी में थे डॉ.राधाकृष्णन, जिन्होंने शिक्षक को गरिमा और सादगी का परिचय बनाया। राष्ट्रपति होने के बाद भी वे अपने को शिक्षक ही समझते रहे और 2500 रुपये प्राध्यापक का वेतन लेकर शेष 7500 रुपयों को राष्ट्रीय सुरक्षा कोश में देते रहे। इसी त्यागवृत्ति व आदर्श शिक्षक होने के कारण उनका जन्म−दिवस 5 सितंबर शिक्षक दिवस के साथ अपरिग्रह, आदर्शवादिता के गुणों को अपनाने, विकसित करने की याद मिलता है। शिक्षक और शिक्षण के आदर्श अन्यत्र भले ही लुप्तप्राय हो गए दिखते हों, परंतु देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, शाँतिकुँज में इनकी सुरम्य झलक निहारी जा सकती है। है तो यह प्रारंभिक शैशव अवस्था में, पर इसका लक्ष्य गुरुकुल−आश्रम−आरण्यक के समन्वित संस्करण के रूप में विकसित होना है। निश्चित ही यह होकर रहेगा।


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