स्वामी विवेकानंद का युवाओं को सन्देश

April 2003

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आज हम साँस्कृतिक संक्रमण के ऐतिहासिक दौर से गुजर रहे हैं। भौतिकवाद अपनी चरम पराकाष्ठा पर है। संयम, सेवा, तप, त्याग और सादगी जैसे नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के अस्तित्त्व पर गम्भीर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। युवा वर्ग में इनके प्रति किसी गम्भीर आस्था का सर्वथा अभाव ही दिखता है। चारों ओर जब सुख, सुविधा, वैभव-विलास एवं स्वार्थ अनाचार का ही वर्चस्व दिखाई देता है, तो संयम, सेवा, त्याग, सहिष्णुता, विनम्रता का आदर्शवादी मार्ग उसे घाटे का ही सौदा लगता है। ऐसे में युवाओं के सामने यह प्रश्न सहज ही खड़ा हो जाता है कि वह आध्यात्मिक बनें तो क्यों? वह क्यों इन्द्रिय सुखों पर अंकुश लगाकर शील संयम का जीवन जीए? वह क्यों अपने स्वार्थ सुखों की कटौती कर सेवा सज्जनता का मार्ग अपनाए? वह क्यों कर नैतिकता के नीति नियमों में बँधकर अपनी स्वतंत्रता का हनन करें? युवा हृदय को उद्वेलित करते ये प्रश्न संतोषपूर्ण समाधान माँगते हैं।

भीषण अन्तर्द्वन्द्व की इस विषादपूर्ण स्थिति में आध्यात्मिक जगत् के जाज्वल्यमान सूर्य स्वामी विवेकानन्द युवाओं को प्रखर दिशाबोध प्रदान करते हैं। उनकी दैदीप्यमान ज्ञानप्रभा के आलोक में युवाओं के दिलो-दिमाग में छाया ज्वलन्त प्रश्नों का यह सघन कुहासा परम दर परत छँटता जाता है और उनकी समस्याओं के समाधान उन्हें सहज ही मिलने लगते हैं।

स्वामी जी सर्वप्रथम युवाओं को उनके यथार्थ स्वरूप का परिचय करवाते हैं। उनकी विराट् आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का परिचय देते हुए स्वामी जी ओजस्वी शब्दों में कहते हैं- “हे युवाओं! तुम उस सर्वशक्तिमान की सन्तानें हों। तुम उस अनन्त दिव्य अग्नि की चिंगारियां हो। इस आध्यात्मिक परिचय के साथ ही वे युवाओं का जीवन लक्ष्य स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “Each soul is potentially divine and the goal is to manifest this divinity” अर्थात् हर आत्मा मूल रूप में देवस्वरूप है और लक्ष्य इस दिव्यता को जगाना है। इस तरह मनुष्य के अन्दर की अन्तर्निहित पूर्णता को जाग्रत करने और जीवन के हर क्षेत्र में इसकी अभिव्यक्ति को ही स्वामी जी जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य घोषित करते हैं।

लक्ष्य के एक बार निर्धारित होते ही फिर इसके अनुरूप युवाओं के जीवन का गठन शुरू हो जाता है। स्वामी जी के अनुसार- लक्ष्य के अभाव में हमारी 99 प्रतिशत शक्तियाँ इधर-उधर बिखर कर नष्ट होती रहतीं है। आध्यात्मिक आदर्श के अभाव में हम अपनी अन्तर्निहित दिव्यता एवं पूर्णता को भुलाकर देह-मन तक ही अपना परिचय मान बैठते हैं और हमारे समस्त दुःख, कष्टों और विषाद का मूल कारण यह आत्म विस्मृति ही है। स्वामी जी के शब्दों में -”यह अज्ञान ही सब दुख-बुराइयों की जड़ है। इसी कारण हम स्वयं को पापी, दीन-हीन और दुष्ट-दरिद्र मान बैठे हैं और दूसरों के प्रति भी ऐसी ही धारणाएँ रखते हैं, तथा इसका एकमात्र समाधान अपनी दिव्य प्रकृति एवं आत्मशक्ति का जागरण है। वह जोर देते हुए कहते हैं कि आध्यात्मिक और मात्र आध्यात्मिक ज्ञान ही हमारे दुख मुसीबतों को सदैव के लिए समाप्त कर सकता है।’

इस तरह युवाओं के आध्यात्मिक पथ का निर्देशन करते हुए स्वामी जी कहते हैं कि जब समस्त शक्ति, समस्त समस्याओं के समाधान का स्रोत तुम्हारे अन्दर विद्यमान है, तो फिर सुख भोगों और उपलब्धियों के पीछे यह अन्तहीन भटकाव कैसा? कोल्हू के बैल की तरह न जाने तुम कितने जन्मों से तुम इसी तरह बिना कुछ पाये भटक रहे हो। और इन्द्रिय सुख एवं भोगों की इस अन्धी दौड़ का कोई अन्त भी नहीं। अस्तित्व की पूरी आहुति देने पर भी यह आग संतुष्ट होने वाली नहीं।

युवाओं की इस अन्तहीन भटकन को हृदय की गहराई से अनुभव करते हुए स्वामी जी अपने अमृत वचनों द्वारा थके-हारे संतप्त युवा मन में शक्ति का संचार करते हैं और वे कहते हैं -”मैं जानता हूँ मार्ग बहुत कठिन है, किन्तु यदि तुम्हारे अन्दर आदर्श की अग्नि प्रदीप्त है तो चिंता की कोई बात नहीं। ऐसे में मार्ग की असफलताएँ! इनकी परवाह मत करो। अरे! वे तो स्वाभाविक हैं और वे तो जीवन का सौंदर्य हैं। जीवन के इस संग्राम में धूल-मिट्टी का उड़ना तो स्वाभाविक ही है और जो इस धूल को सहन नहीं कर सकता, वह आगे कैसे बढ़ सकेगा। ये असफलताएँ तो सफलता के मार्ग की अनिवार्य सीढ़ियाँ हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि कोई व्यक्ति आदर्श के साथ एक हजार गल्तियाँ करता है तो बिना आदर्श के तो वह पचास हजार गल्तियाँ करेगा। इसलिए जीवन में आदर्श का होना आवश्यक है। अतः जीवन का आदर्श कभी मत छोड़ना। एक जगह तो स्वामी जी यहाँ तक कहते हैं कि गलत रास्ते पर तेजी से बढ़ने की बजाय अच्छे मार्ग पर डटे रहकर खड़े होना भी पर्याप्त है।”

इसी क्रम में स्वामी जी युवाओं को उद्बोधन करते हुए कहते हैं -तुम अपने दोषों एवं गल्तियों के लिए दूसरों को दोष क्यों देते हो? जो तुमने बोया था, वही तो काट रहे हो। इसलिए भाग्य को क्या दोष दें? दूसरों पर दोषारोपण हमें दुर्बल और सिर्फ दुर्बल ही बनाता है। अतः किसी को अपनी दुर्बलता के लिए दोष मत दो। सारी जिम्मेदारी अपने कन्धे पर लो। कहो-”यह जो कष्ट मैं झेल रहा हूँ यह मेरा रचा हुआ है। इसका अर्थ हुआ किस इसे मैं ही नष्ट कर सकता हूँ। जो मैंने खड़ा किया है उसे मैं ही ध्वस्त भी कर सकता हूँ। अतः अपने पैर पर खड़े हो, बहादुर बनो, दृढ़ बनो तथा अपनी सारी जिम्मेदारी अपने कन्धे पर लो। और जानों कि अपने भाग्य के निर्माता तुम स्वयं हो। समस्त शक्तियाँ और सफलताएँ तुम्हारे भीतर हैं। भूत यदि गरिमामय नहीं रहा तो इसकी चिंता मत करो। मरे हुए भूत को भूत के हवाले दफन के लिए छोड़ दो । अनन्त भविष्य तुम्हारे सामने है। और तुम्हें सदैव स्मरण रखना होगा कि प्रत्येक शब्द, प्रत्येक विचार और प्रत्येक कर्म तुम्हारे लिए संग्रहित रहेगा। जैसे बुरे विचार और कर्म खूंखार शेर की भाँति तुम पर झपटने के लिए सदा आतुर रहेंगे, वैसे ही अच्छे विचार और कर्मों की शक्ति भी हजारों देवदूतों के समान तुम्हारी रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहेगी।”

इस तरह स्वामी जी युवाओं को अपनी जिम्मेदारी आप लेने का आवाहन करते हैं और इसमें निहित आत्म शक्ति के जागरण का मर्म बोध करवाते हुए उद्बोधन करते हैं- तभी व्यक्ति का श्रेष्ठतम स्वरूप उभर कर आता है, जब वह अपने दायित्व के प्रति पूर्णरूप से जिम्मेदारी का बोध करता है। जब हमारे सामने कोई भूत-प्रेत दोष देने के लिए नहीं है, कोई देवता हमारा बोझ उठाने वाला नहीं है, तब हम स्वयं अकेले ही जिम्मेदार होते हैं, तभी हम अपने श्रेष्ठतम रूप में सामने आते हैं और अपनी सम्भावनाओं के उच्चतम शिखरों की ओर आरोहण करते हैं।

इस तरह स्वामी जी युवाओं में उत्तरदायित्व का बोध जगाकर सहज ही उनके आध्यात्मिक जागरण एवं चरित्र गठन की ठोस पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। यह बोध जहाँ युवाओं को अवाँछनीय विचारों और कर्मों से बचाता है, वहीं उनको श्रेष्ठ चिंतन व आचरण के लिए प्रेरित करता है और अपने भाग्य निर्माता आप होने का एक नया विश्वास जगाता है। इसके साथ ही युवाओं के चरित्र निर्माण और व्यक्तित्व गठन की आध्यात्मिक प्रक्रिया शुरू हो जाती है।

स्वामी जी के शब्दों में- व्यक्ति का चरित्र और कुछ नहीं उसकी आदतों और वृत्तियों का सार भर है। हमारी आदतें और वृत्तियाँ ही चरित्र का स्वरूप निर्धारित करती है। वृत्तियों की श्रेष्ठता और निकृष्टता के अनुरूप ही चरित्र की सबलता और निर्बलता सुनिश्चित होती है। श्रेष्ठ चिंतन और आचरण के सतत अभ्यास द्वारा वृत्तियों का शोधन होता है और चरित्र गठन का कार्य मनोवाँछित दिशा में आगे बढ़ता है।

वास्तव में आध्यात्मिक पूर्णता की अनन्तता एवं असीमता को इस सानन्त एवं ससीम जीवन में मूर्त रूप देने का दुस्साहस भरा प्रयास-पुरुषार्थ ही चरित्र गठन का मर्म है। स्वामी जी के शब्दों में इससे कम में नैतिकता या आदर्श के मार्ग को अपनाना सम्भव भी नहीं है। इससे कम में युवाओं के हृदय को उद्वेलित कर रहे प्रश्नों का यथार्थ समाधान भी सम्भव नहीं है। क्योंकि कोरे उपयोगितावादी आधार (Utilitarian ground) पर किसी तरह की नैतिकता की व्याख्या सम्भव नहीं है। क्योंकि उपयोगितावादी दर्शन मात्र अपने सुख और स्वार्थ को देखता है। इसकी दृष्टि में सेवा, संयम और त्याग का मार्ग प्रत्यक्षतः घाटे का ही सौदा जान पड़ता है। स्वामी जी इस संदर्भ में कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि उपयोगितावादी अर्थात् भोगवादी दर्शन एक ओर तो अनन्त अर्थात् आध्यात्मिक पूर्णता के आदर्श को असम्भव मानता है तथा इसके लिए संघर्ष करने से रोकता है और दूसरी ओर नैतिकता की वकालत करता है। जो स्वामी के शब्दों में सम्भव नहीं है। बिना आध्यात्मिक आदर्श के नैतिक या अच्छा बनना स्वयं में लक्ष्य नहीं हो सकता। मात्र अनन्त की ओर अर्थात् अपनी आध्यात्मिक परिपूर्णता की ओर बढ़ने के जीवन आदर्श के आधार पर ही यथार्थ नैतिकता सम्भव है।

श्रेष्ठ चिंतन व आचरण के रूप में जिस चरित्र गठन का शुभारम्भ होता है, वही चित्तवृत्तियों के शोधन के साथ तप साधना का रूप ले लेता है। वृत्तियों के शोधन के साथ क्रमशः आत्मा में निहित शक्तियों का जागरण शुरू हो जाता है। इस क्रम में संयम, सहिष्णुता, नैतिकता व अन्य नीति-नियम, मार्ग के अनिवार्य सोपान बनते जाते हैं। अब युवाओं को अपने अनुत्तरित प्रश्नों के समाधान सहज ही मिलने लगते हैं। क्षणिक सुख का थोड़ा सा संयम आन्तरिक सशक्तता एवं आनन्द की एक गहरी अनुभूति देता है। स्वार्थ का थोड़ा सा त्याग, अन्दर गहरे संतोष का अनुभव बनता है। इसी क्रम में संयम, सहिष्णुता, उदारता, सेवा आदि सद्गुण जीवन के अभिन्न अंग बनते जाते हैं। जीवन में नैतिक नीति-नियमों का पालन बाह्य दबाव की बजाय अन्दर से स्फूर्त होने लगता है। जीवन के क्रियाकलाप बाहरी अनुशासन की बजाय आत्मानुशासन द्वारा संचालित होने लगते हैं।

अपने अन्दर दिव्यता की हल्की सी झलक भी, युवा हृदय को अन्तर्निहित अपार सम्भावनाओं के प्रति आश्वस्त करती है और इसके साथ ही बाहर दूसरे व्यक्तियों एवं प्राणियों में भी इसकी झलक झाँकी प्रतिभासित होने लगती है। इसी बिन्दु पर स्वामी के अनुसार ‘शिवभावे जीव सेवा’ का रहस्य उद्घाटित होता है। स्वामी जी लिखते हैं कि - “इतनी तपस्या के बाद में इस वास्तविक सच्चाई को समझ पाया हूँ कि ईश्वर ही हर प्राणी में है। जो जीव सेवा करता है, वह ईश्वर सेवा करता है। जो इस प्रकट ईश्वर की सेवा नहीं कर सकते हो, उस अप्रकट ईश्वर की सेवा कैसे कर पाओगे। इसलिए वे कहते हैं कि प्रत्येक पुरुष, स्त्री और सभी प्राणियों को भगवान् के रूप में देखो। इनकी सेवा ही सर्वोच्च धर्म है।” आज के युवा यदि इन आदर्शों के अनुरूप अपना जीवन गढ़ने के लिए कटिबद्ध हो जायँ तो स्वामी जी के शब्दों में, फिर वे अधिक देर तक अन्धकार में नहीं भटकेंगे। आध्यात्मिक जीवन शैली के सतत् अभ्यास के साथ हमारे अन्तर से आत्म सूर्य का प्रकाश उदित होगा, जो शनैः-शनैः हमारे जीवन के अन्धेरे कोनों को प्रकाशित करेगा। इसी के साथ क्रमशः शक्ति का उद्भव होगा। जो अभी लड़खड़ा रहा है, वह धीरे-धीरे मजबूत होता जायेगा और शीघ्र ही वह दिन आयेगा जब सत्य हमारे दिलो-दिमाग पर इस कदर छा जायेगा कि वह हमारी धमनियों में से प्रवाहित होने लगेगा तथा हमारे जीवन से आचरण की भाषा में छलकने लगेगा।


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