सद्ज्ञान−सद्भाव का प्रतीक ‘स्वास्तिक’

April 2003

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ॐ स्वस्ति नऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्ताक्ष्योऽअरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

यजुर्वेद के इस कल्याण कारी एवं मंगलकारी शुभकामना, स्वस्तिवाचन में स्वस्तिक का निहितार्थ छुपा-छिपा है। हर मंगल एवं शुभ कार्य में इसका भाव भरा वाचन किया जाता है, जिसे स्वस्तिवाचन कहा जाता है। स्वस्तिक संस्कृत के स्वस्ति शब्द से विनिर्मित है। स्व और अस्ति से बने स्वस्ति का अर्थ है-कल्याण। यह मानव, समाज एवं विश्व के कल्याण की भावना का प्रतीक है। ‘वसोमम’ - मेरा कल्याण करो का भी यह पावन प्रतीक है। इसे शुभकामना, शुभभावना, कुशलक्षेम, आशीर्वाद, पुण्य, पाप-प्रक्षालन तथा दान स्वीकार करने के रूप में भी प्रयोग-उपयोग किया जाता है।

स्वस्तिक अति प्राचीन पुण्य प्रतीक है, जिसमें अतिगूढ़ अर्थ एवं निगूढ़ रहस्य छुपा-छिपा है। इसके अनेकानेक अर्थ हैं। हलायुध कोश में इसे ‘चतुर्विंशतिचिन्हार्न्तगतचिन्हविशेषः’ कहा गया है। अर्थात् संस्कृति के चौबीस चिन्हों में से यह एक विशेष एवं दिव्य चिन्ह है। हलायुध कोश में इसका तात्पर्य चतुष्पथ याने चौराह से भी लिया गया है। गणपति के गँ बीजाक्षर का चिन्ह भी स्वस्ति जैसा प्रतीत होता है। इसके रूप एवं समूचे मंत्र का स्वरूप स्वस्तिक का आकार ग्रहण करता है। अतः यह चतुष्टय का चिन्ह भी है जो प्राचीन तथा अर्वाचीन मान्यता के अनुसार सूर्य-मण्डल के चारों ओर चार विद्युत केन्द्र के समान लगता है। इसके पूर्व दिशा में वृद्धश्रवा इन्द्र, दक्षिण में बृहस्पति इन्द्र, पश्चिम में पूषा विश्ववेदा इन्द्र तथा उत्तर दिशा में अरिष्टनेमि इन्द्र अवस्थित हैं।

वाल्मीकि रामायण में भी स्वस्तिक का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार साँप के फन के ऊपर स्थित नीली रेखा भी स्वस्तिक का पर्याय है। तंत्रालोक में आचार्य अभिनव गुप्त ने इसे इस तरह स्पष्ट किया है-

पृथक्पृथक्तत्त्रियं सूक्ष्ममित्यभिशब्द्यते। षड्जं करोमि मधुरं वादयामि ब्रुवे वचः।

अर्थात्- नादब्रह्म से अक्षर तथा वर्णमाला बनी, मातृका की उत्पत्ति हुई। नाद से ही पश्यन्ती, मध्यमा तथा बैखरी वाणी उत्पन्न हुई। तदुपरान्त उनके भी स्थूल तथा सूक्ष्म दो भाग बने। इस प्रकार नाद सृष्टि के छह रूप हो गये। इन्हीं छः रूपों पंक्तियों में स्वस्तिक का रहस्य छिपा है। अतः स्वस्तिक को समूचे नाद ब्रह्म तथा सृष्टि का प्रतीक एवं पर्याय माना जा सकता है।

बैखरी वाणी को विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यह स्वर तथा व्यंजन दोनों में विभक्त है। स्वर छः होते हैं। इन्हीं को सूर्य की छः रश्मियों ‘षड्देवतात्मकं सूर्यरश्मित्वम्’ के रूप में देखा जाता है। और इन्हीं छः रश्मियों को स्वस्तिक कहा जाता है। स्वस्तिक को रचना के आधार पर देखा जाये तो यह अबाहु तथा सुबाहु नामक दो स्वस्तिक के रूप में परिलक्षित होता है। अबाहु स्वस्तिक वामावर्त तथा सुबाहु स्वस्तिक दक्षिणावर्त होता है। इस लिए सुबाहु स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना जाता है। क्योंकि सूर्य सदैव उत्तरी गोलार्द्ध में पूर्व से निकलकर दक्षिण पश्चिम होता हुआ उत्तर में पहुँचता है और प्रत्येक सुबह फिर पूर्व से उदय होता है। अतः सूर्य की चार दिशाओं में स्वस्तिक की चार भुजाओं का बोध होता है।

प्राचीन भारत में स्वस्तिक के चित्रण अंकन का दिग्दर्शन प्रागैतिहासिक काल के शैलचित्रों में होता है। इससे स्पष्ट होती है कि पूर्ण या सुबाहु स्वस्तिक का विकास-विस्तार मूलतः अबाहु से हुआ है। शैल चित्रों में स्वस्तिक का प्रमाण पूजा- प्रसंगों के साथ-साथ स्वतंत्र रूप से भी किया गया है। इसके पुरातात्त्विक प्रमाण सिंघनपुर-रायगढ़ क्षेत्र, बनिया बेरी पंचमढ़ी क्षेत्र, चम्बल क्षेत्र तथा सागर-भोपाल क्षेत्र में स्थित गुफाओं से मिलते हैं, जिनमें सुबाहु और अबाहु स्वस्तिक का अंकन हुआ है। सिंधु सभ्यता की मुहरों-सिक्कों में स्वस्तिक के दक्षिणावर्त रूप के साथ ही वामावर्त रूप भी मिलता है। उन दिनों दोनों ही प्रकार के स्वस्तिक को शुभ एवं मंगलमय माना जाता था। परन्तु आज दक्षिणावर्त स्वस्तिक ही पुण्य कार्यों में प्रयुक्त होता है तथा तंत्र व यंत्र आदि में वामावर्त स्वस्तिक का प्रयोग किया जाता है।

भारतीय दर्शन के अनुसार स्वस्तिक की चार रेखाओं को चार वेद, चार पुरुषार्थ, चार वर्ण, चार आश्रम, चार लोक तथा चार देवों अर्थात् ब्रह्म, विष्णु, महेश तथा गणेश से तुलना की गयी है। प्रतीकात्मक विचार के इन सूत्रों में स्वस्तिक चतुर्दल कमल का सूचक भी माना गया है। अतः यह गणपति देव का निवास स्थान भी है। इसी तथ्य को मूर्धन्य मनीषी पं. रामचन्द्र शास्त्री ने भी स्वीकार किया है। इन्होंने भी कमल को स्वस्तिक का ही पर्याय माना है। इसलिए कमल का प्रतीक भी स्वस्तिक हो गया और इसे भी मंगल व पुण्य कर्म में प्रयुक्त किया जाने लगा। कुछ विद्वान कमलापति भगवान् विष्णु के वक्षस्थल पर विद्यमान कौस्तुभमणि को स्वस्तिकार माना है।

श्रीमती मरे ने ‘सिम्बोलिज्म ऑफ द ईस्ट एण्ड वेस्ट’ नामक ग्रन्थ में प्रतिपादित किया है कि वैदिक प्रतीकों में गहन गम्भीर एवं गूढ़ अर्थ निहित हैं। यही प्रतीक संसार के विभिन्न धर्मों में भिन्न-भिन्न ढंग से परिलक्षित-प्रकट होता है तथा देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप इसके स्वरूप में रूपांतर एवं परिवर्तन हुआ। अतः स्वस्तिक प्रतीक की गति-प्रगति का अत्यन्त समृद्ध इतिहास व परम्परा है।

जैनधर्म में स्वस्तिक उनके सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के प्रतीक चिन्ह के रूप में लोकप्रिय है। जैन अनुयायी स्वस्तिक की चार भुजाओं को सम्भावित पुनर्जन्मों के स्थल-स्थानों के रूप में मानते हैं। ये स्थल हैं- वनस्पति या प्राणिजगत्, पृथ्वी, जीवात्मा एवं नर्क। बौद्ध मठों में भी स्वस्तिक का अंकन मिलता है। जार्ज वर्डउड ने बौद्धों के धर्म चक्र को, यूनानी क्रास को तथा स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना है। उनके अनुसार यह अत्यन्त प्राचीनतम प्रतीक है, जिसमें गहन अर्थ निहित है। तिब्बत के लामाओं के निवास स्थान तथा मन्दिरों में स्वस्तिक की आकृति बनी हुई मिलती है।

इस संदर्भ में अगाध संस्कृत प्रेमी तथा पश्चिमी ऋषि प्रो. मैक्समूलर का एक पत्र बड़ा उपयोगी एवं प्रासंगिक है। उन्होंने डॉ. श्लोमन को लिखे एक पत्र में बड़े युक्तिपूर्ण ढंग से स्पष्ट किया है कि इटली के हर कोने में, मिलन, रोम, पाम्पिया, स्काटलैण्ड के नारफाक नगर, हंगरी, युनान, चीन आदि हर देश-नगर में स्वस्तिक पाया जाता है। मैक्समूलर ने ई. थामस के इस अनुसंधान-अन्वेषण को भी उचित एवं उपर्युक्त ठहराया है, जिसमें थामस ने स्वस्तिक को गतिशील सूर्य का प्रतीक माना है।


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