वैदिक सूत्र पूर्णता देते हैं ‘काल’ के सिद्धाँत को

April 2003

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घड़ी की टिक्-टिक् काल के अनन्त प्रवाह को अपने में अभिव्यक्त करती है कि यह किसी की अपेक्षा किये बगैर अपनी चाल में चलायमान है। यह अपने वर्तमान में बीते कल एवं आने वाले कल दोनों को समाहित किये हुए है। यह घटनाओं को जन्म देता है तथा इसके परे एक पार भी है। यह गतिशील है और गतिहीनता का पर्याय भी है। भाग्य पुरुषार्थ और भविष्य इसी से जुड़े-बँधे हुए हैं। काल को बड़ा बलवान माना गया है।

प्राचीन मान्यता के अनुसार समय का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। अस्तित्वहीनता का यह स्तर औपनिषदिक ऋषियों के चिंतन से उभरा। कठोपनिषद् में उल्लेख मिलता है कि स्वयं को भिन्न एवं अलग समझना ही समय रूपी भ्रम को पैदा करना है। कालद्रष्ट भगवान् शंकराचार्य के अनुसार सत्य शाश्वत एवं सनातन होने के कारण अज्ञात है परन्तु समय ज्ञात होने के कारण असत्य एवं आभास मात्र है। श्रीमद्भगवद्गीता की भी यही मान्यता है कि जो आज है, वह कल भी या और आगे भी रहेगा। अर्थात् जब सब कुछ स्थिर है तो गति पर निर्भर समय कहाँ होगा?

पूर्व के सिद्धान्तों और मान्यताओं को कुछ पश्चिमी वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है। प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री डेविड ने गति को एक भ्रम माना है। अतः इन्होंने समय को भी भ्रम माना है। खगोलीय भौतिकशास्त्री जूलियन बारबारे ने भी इस मान्यता को मान्य किया है। इनके अनुसार दिक् (स्पेस) विराट् शून्य से अभिन्न है। इसी आधार पर वे समय को भी शून्य मानते हैं। विख्यात भौतिकविद् एन. मर्चदा के अनुसार अनादि और अनन्त के वलय पथ पर समय का अस्तित्व व आधार तथ्यहीन है।

समय निश्चित है या अनिश्चित? यह प्रश्न वैज्ञानिक जगत् में उथल-पुथल और ऊहापोह का कारण बन गया है। अपने-अपने शोध निष्कर्षों के आधार पर इनमें दो सिद्धान्त देखने को मिलते हैं। विख्यात वैज्ञानिक लाप्लास समय को निश्चित मानते हैं। इनको कहना है कि वेग और स्थिति दोनों ही हर स्थान पर मापे जा सकते हैं अतः समय निश्चित है। स्टीफन हाकिंग के सहयोगी रोजर पेनरोज का निष्कर्ष बताता है कि समय अनिश्चितता को नहीं मानता। अनिश्चितता तो केवल दिक् (स्थान) की स्थिति के कारण है, जो मात्र आभासित होता है। परन्तु एक स्थान पर समय निश्चित है। ज्योतिष विशारद प्रभुदयाल शास्त्री भी इनके स्वर में स्वर देते हुए कहते हैं कि समय निश्चित है और इसी कारण भविष्य कथन, अंक, गणना आदि सम्भव हो पाता है।

समय को अनिश्चित मानने वालों में महान् वैज्ञानिक मनीषी आइंस्टीन हैं। उनके अनुसार समय सापेक्ष है। हाइज़ेनबर्ग ने माना है कि समय का मापन किसी एक पैमाने से नहीं किया जा सकता है। समय वेग और उसे धारण करने वाले कण पर निर्भर करता है। कण स्वयं में वेग का संचालक नियन्ता नहीं है। उसका वेग तो दिक् की स्थिति पर आश्रित-आधारित है। यह निर्माता समय की अनिश्चितता को सिद्ध करता है। सुप्रसिद्ध खगोलीय कालौरोवेली ने समय को आभासी माना है। वह ब्रह्मांड के सापेक्ष गुजरता-बीतता है परन्तु आभास ऐसा होता है कि ब्रह्मांड बीत रहा है। इन दोनों को आपसी अंतर्संबंध दोनों की ही अनिश्चितता को जन्म देता है। इस संदर्भ में आज के विलक्षण खगोलीय भौतिकशास्त्री स्टीफन हाकिंग का सिद्धान्त है कि समय की अनिश्चितता स्वयं समय है। से कहते हैं वेग समय का सहयोगी है और समय वेग को सिद्ध करता है। वेग का अस्तित्व स्थिरता के कारण है। स्थिरता समय का अवरोधक है और इसलिए इन स्थितियों-परिस्थितियों के कारण ही समय अनिश्चित है।

हांकिंग समय के अस्तित्व को पूर्णरूपेण नकार नहीं पा रहे है और न स्वीकार पा रहे है। वे ब्लैक होल सिंगुलेरिटी में समय को निषिद्ध करने का प्रयास अवश्य करते हैं परन्तु उनका अनुसंधान-अन्वेषण अभी जारी है। वे किसी निश्चित सिद्धान्त पर नहीं पहुँच पाये हैं।वस्तुतः समय के ये दो वैज्ञानिक सिद्धान्त अपने-अपने प्रयोग-परीक्षणों पर आधारित हैं। यदि समय के अस्तित्व को स्वीकार किया जाय तो फिर हमें असीम सत्य को भी सीमित करना पड़ेगा। वैज्ञानिक विश्लेषण से प्रतिपादित होता है कि बिगबैंग से उत्पन्न समय निश्चित व शाश्वत कैसे हो सकता है। जो उत्पन्न हुआ है उसका विनाश भी निश्चित है। इसी कारण ऊर्जा का क्षरण एवं बिंगक्रन्च (ब्रह्मांड संकुचन) के सिद्धान्त को भी अपनाना पड़ा। परन्तु इसके ठीक विपरीत ब्लैकहोल की सिंगुलेरिटी में समय समाप्त हो जाता है, उसके अस्तित्व का लोप हो जाता है, जिसे हाकिंग ने माना है।

वैज्ञानिक समय ने ब्रह्मांड को नश्वर सिद्ध कर दिया। यही नहीं उसने यहाँ तक कहा कि हमारी सारी खोज भी नश्वरता को खोजने के लिए बँधी-सिमटी है। प्रश्न उठता है कि फिर अनश्वर क्या है? क्या है जो नाश नहीं होता है, सदा शाश्वत है? यदि इस संसार में जानने योग्य कुछ नहीं है तो विज्ञान को सत्य का अन्वेषी क्यों माना जाये? तो क्या समय ही ईश्वर है? सत्य है? परन्तु बिगबैंग से उत्पन्न समय शाश्वत कैसे हो सकता है? इसके जवाब में डॉ. जूलियन बारगी कहते हैं कि विज्ञान को समय के भ्रम से मुक्त होकर शाश्वत का अनुसंधान करना चाहिए। तभी उसकी खोज सत्य के पथ पर आरुढ़ हो सकती है। इनके अनुसार गति के साथ समय को जोड़ दिया गया है। इससे हमें ब्रह्मांड गतिमान दिखता है। और इसके आगे हम कुछ भी नहीं सोचना चाहते। जबकि ऐसा है नहीं। फिर सत्य क्या है?

इसे समझने व खोजने के लिए वैज्ञानिक नये-नये शोध में संलग्न हैं। वे समय को ब्रह्मांड की शाश्वत की कसौटी पर कसने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी मान्यता है कि ब्रह्मांड अनगिनत दृश्यों के निश्चित आकारों व आकृतियोँ का समूह तो है ही साथ ही वह अनादि भी है और अनन्त भी है। अर्थात् जो कुछ भी है उसके अन्दर है, भीतर है, बाहर कुछ भी नहीं है ब्रह्मांड स्थिर है। गति तो उसका भ्रम मात्र है। और इसी कारण समय जैसी अस्तित्वहीन धारणा जन्म लेने लगती है। जबकि ठीक इसके विपरीत वैज्ञानिक ‘परम समय’ का सिद्धान्त दे रहे हैं। परम समय अर्थात् ब्रह्मांड की प्रत्येक घटना का समय पर आधारित होना। इसके अनुसार समय ही शाश्वत है जो अन्तहीन अतीत से लेकर अनन्त भविष्य तक सहजता से चलता जायेगा। परन्तु यह सिद्धान्त जूलियन बारबारे को मान्य नहीं है। वे कहते हैं समय का कोई अस्तित्व ही नहीं है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि वर्तमान क्या है। वर्तमान का वह क्षण व घड़ी क्या है जो अगले ही पल अतीत के गर्भ में समा जाती है?

इसके प्रत्युत्तर में भौतिकशास्त्री कार्लो रोवेली कहते हैं कि वास्तव में ब्रह्मांड का अस्तित्व तो है। उसमें बहुत सारे वर्तमान क्षणों की स्थितियों के दृश्यों के रूप में शुरू से ही विद्यमान है। वह कहीं चला नहीं जाता है बल्कि अपने फ्रेम से मौजूद रहता है। जब हम अगले फ्रेम की स्थिति का हिस्सा होते हैं तो ब्रह्मांड में स्थिर पहली स्थिति के दृश्य को गुजरा हुआ अर्थात् अतीत समझने का भ्रम मान लेते हैं। इनका भी तर्क है कि समय को सत्य मान लेने से ब्रह्मांड की सच्चाई की शोध में कठिनाई आ गई है। इसी कारण क्वाण्टम मेकेनिक्स को समझना मुश्किल हो रहा है। क्योंकि समय के कारण ही क्वाण्टम मेकेनिक्स के सूक्ष्म आणविक जगत् को सामान्य आपेक्षिकता के विस्तृत सिद्धान्त पर विराट् ब्रह्मांड का अनुसंधान करने में रोड़े आ रहे हैं।

इन सिद्धान्तों की भूल-भूलैयों में सारे वैज्ञानिक शोध प्रयास में भटक गये मालूम पड़ते हैं। क्योंकि कुछ सिद्धान्त ब्रह्मांड का सब कुछ समय के भीतर ही घटित होता मानते हैं। जबकि आइंस्टीन के अनुसार समय की घड़ी घटनाक्रम के बाहर चल रही है और पदार्थ के एक-दूसरे के सापेक्ष होने के कारण दिखाई देने वाले परिवर्तनों को माप-नाप रही है। ये दोनों ही तथ्य एवं सिद्धान्त न केवल विरोधाभासी हैं बल्कि उलझा देने वाले भी हैं। इस तरह खगोलीय विज्ञान एवं भौतिकशास्त्र में सापेक्षिता और क्वाण्टम के सिद्धान्त ने स्पष्ट रूप से प्रतिपादित कर दिया है इस समृद्ध ब्रह्मांड का विवेचन-विश्लेषण करने के लिए विज्ञान के पास कोई अन्तिम एवं उचित शब्द नहीं है। परेशानी से परेशान हाइज़ेनबर्ग ने कहा है कि सबसे कठिन समस्या है तो अभिव्यक्ति के लिए भाषा की समस्या। यहाँ शब्द शान्त हो जाते हैं, भाषाएँ मौन हो जाती हैं। फिर मुखर क्या है जो इसका समुचित एवं सर्वांगीण समाधान प्रस्तुत करे।

वैदिक द्रष्टाओं एवं ऋषियों के अनुसार दिक् (स्पेस) और काल (समय) विश्वगत चिंतन की आत्माभिव्यक्ति के दो पहलू हैं, पक्ष हैं। रूप और विषयों को इकट्ठा रखने के ब्रह्म का विस्तार दिक् है। समय (काल) भी रूप और विषयों को ले जाते हुए आत्मशक्ति की गति विस्तार के लिए आत्म विस्तृत ब्रह्म है। अतः हमारे वैदिक ऋषियों के इन सूत्रों में आधुनिक विज्ञान के सिद्धान्तों की अपूर्णता पूर्ण होती है। वे कहते हैं कि दिक् और काल (स्पेस एण्ड टाइम) ताने-बाने की तरह आपस में गूँथे हुए हैं। दोनों ही सापेक्ष सत्ताएँ हैं। देश की अवस्था के अनुरूप समय का स्वरूप निखरता है। एक की अवस्था बदलने का मतलब है दूसरे का स्वरूप बदल जाना। उदाहरण के लिए जाग्रत अवस्था में जिस दिक् में निवास करते हैं, समय का परिमाण भी उसी के अनुरूप रहता है। घटनाओं के आपसी सम्बन्धों का बोध भी वैसा ही रहता है। परन्तु स्वप्न में दिक् अपेक्षाकृत सूक्ष्म और विस्तृत हो जाता है और उसी के अनुसार समय की सूक्ष्मता और व्यापकता को पा जाता है। जो घटनाएँ जाग्रत अवस्था में दो दिनों में घटती है, वही स्वप्न में दो घण्टे में अनुभव हो जाता है। चेतना के बदलने, आयामों के अनुरूप यह सूक्ष्मता और विस्तार भी बढ़ता जाता है। अन्ततः दिक् और काल दोनों अनन्तता में स्वयं को विसर्जित और विलय कर देते हैं। फिर यही कहा जा सकता है परम सत्य चेतना के लिए समय एक नित्य वर्तमान है और दिक् एक अविभाज्य आगमन विस्तार।

इन वैदिक सत्य और सूत्रों में आधुनिक विज्ञान के अपूर्ण सिद्धान्तों को न केवल पूर्णता मिलती है बल्कि उनके अनुसंधान अन्वेषण को एक नयी दिशा भी मिलती है। इसमें मानव जीवन के आदर्श, मूल्य एवं सिद्धान्तों को भी नूतन आयाम मिलता है जिससे मानव व समाज दिक्-काल से परे व उस पार परम सत्य को पाने, समझने व साक्षात्कार करने के लिए तत्पर हो सके। इसी में जीवन की समस्त घटनाएँ, भाग्य और भविष्य की दिव्यता समाहित है। परम सत्य ही कालजयी है, शाश्वत है और अनादि अनन्त है। उसी के कारण में जाना ही सभी सिद्धान्तों एवं मान्यताओं का सार है।


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