योग विज्ञान सुलझाएगा व्यक्तित्व-विघटन की गुत्थी को

April 2003

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वर्तमान युग में व्यक्तित्व विकास की प्रक्रिया अवरुद्ध सी पड़ गयी है, जिसके कारण मानवीय व्यक्तित्व युग की भोगवादी आँधी में छिन्न-भिन्न हो रहा है। उसके आन्तरिक विघटन की स्थिति बहुत गम्भीर बनी हुई है। समाज एवं वातावरण में व्याप्त आतंक, अराजकता एवं अशान्ति का साया, इसी आन्तरिक टूटन, सड़न, कुढ़न एवं आक्रोश की बाह्य अभिव्यक्ति मात्र है। युद्धोन्माद, आतंकवाद, जातीय एवं साम्प्रदायिक हिंसा, भ्रष्टाचार, नारी उत्पीड़न, बलात्कार, आत्महत्या जैसी गम्भीर सामाजिक समस्याएँ मानवीय व्यक्तित्व के आन्तरिक विखण्डन की ही बाह्य प्रतिकृतियाँ है।

बढ़ते मनोरोगों की आँधी एवं व्यक्तित्व विकारों की बाढ़ युग की गम्भीर समस्या बन गई है। वस्तुतः हम मानवीय चेतना के गम्भीर संकट से गुजर रहे हैं। न्यूरोसिस, साइकोसिस, सिजोफ्रेनिया जैसे बिखराव एवं विखण्डन के परिचायक शब्द आज प्रचलित मुहावरे बन गये हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार 80 से 90 प्रतिशत बीमारियां मानवीय चेतना की आन्तरिक टूटन एवं विघटन का परिणाम है। यही बाहर व्यक्तित्व के बिखराव एवं विघटन के रूप में प्रकट होता है। व्यक्तित्व का गठन आज के मानव के लिए एक केन्द्रीय आवश्यकता ही नहीं प्रमुख समस्या भी बन गई है। स्थिति की गम्भीरता पर प्रकाश डालते हुए मनोविद् इरा प्रोगोफ का कहना है कि “ आधुनिक व्यक्ति में आत्याँतिक रूपांतरण की प्रक्रिया द्वारा ही मानवीय सभ्यता के इस विनाश से हम बच सकते हैं, जो अन्यथा सुनिश्चित है।”

मानवीय चेतना के इस संकट और व्यक्तित्व विघटन के दौर में इनके उपचार के प्रयास न हो रहे हों, ऐसी बात नहीं है। दार्शनिक, धार्मिक एवं वैज्ञानिक हर स्तर पर कुछ न कुछ प्रयास चल रहे हैं, किन्तु इनकी परिसीमाएँ स्पष्ट हैं। दार्शनिक प्रयास प्रमुखतया बौद्धिक ऊहापोह तक सीमित है, इनकी व्यवहारिक उपयोगिता संदिग्ध ही बनी है। दूसरा धार्मिक प्रयासों की सीमा उनकी रूढ़िवादिता, हठधर्मिता, पूर्वाग्रहों एवं अवैज्ञानिकता के कारण एक छोटे दायरे में ही सिमट जाती है। वैज्ञानिक प्रयास जैविक हेर-फेर (जैसे जीन परिवर्तन, क्लोनिंग आदि) तक सीमित होने के कारण अभी सतहों में ही भटक रहे हैं। जबकि मानवीय व्यक्तित्व मात्र जैविक रसायनों का संगठन भर नहीं है, इसकी अपनी मनोवैज्ञानिक एवं उससे उच्चतर आध्यात्मिक सत्ता भी है।

मानसिक स्तर पर व्यक्तित्व के अध्ययन अन्वेषण एवं चिकित्सकीय प्रयासों में मनोविज्ञान की भूमिका निस्संदेह रूप से उल्लेखनीय है। इस संदर्भ में आधुनिक मनोविज्ञान के क्षेत्र में फ्रायड का उद्भव निस्संदेह रूप से एक युगान्तरीय घटना रही है।

इनकी अचेतन मन की अवधारणा एक क्रान्तिकारी कदम थी, जिसने मानव चेतना की जटिल क्रियाओं एवं उनकी रुग्णता को समझने की एक नई दृष्टि दी। व्यक्तित्व के संदर्भ में इनकी इदम् (ढ्ढस्रद्व), अहम् (श्वद्दश) और परमअहं (स्ह्वश्चद्गह्-द्गद्दश) की अवधारणाओं ने मानवीय चेतना की अतल गहराइयों में प्रवेश करने और इसकी गुत्थियों को सुलझाने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया है। आधुनिक मनोविज्ञान के संदर्भ में मनोविश्लेषण को मनोविज्ञान से निकाल देने पर शेष बहुत कम महत्त्व की बातें रह जाती हैं, किन्तु अपनी नैदानिक भूमिका के बावजूद फ्रायड के सिद्धान्त गम्भीर त्रुटियों से ग्रस्त हैं। लारेंस हाइड के शब्दों में -”इसकी मौलिक त्रुटि तब प्रकट होती है जब विकार ग्रसित व्यक्ति को रुग्णता से सामान्यता की ओर बजाय, उसे और उच्चतर स्तरों तक ले जाना होता है।” मानव व्यक्तित्व के समग्र विकास के संदर्भ में यह एक गम्भीर दोष है कि फ्रायडवादी मनोविज्ञान मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों का दास ठहराता है और उसके आत्म विकास की सम्भावनाओं को अवरुद्ध करता है। यौन स्वच्छन्दता, नियतिवाद और अनैतिकता को प्रश्रय देने के कारण फ्रेंकल इस मत को भ्रामक ही नहीं बल्कि खतरनाक भी मानते हैं।

यहाँ युँग द्वारा प्रतिपादित वैयक्तिकता (Individuation) की धारणा अधिक गम्भीर एवं व्यापक है और व्यक्तित्व को एक सार्थक उद्देश्य की ओर ले जाती है साथ ही यह भारतीय चिंतन के बहुत समीप है, किन्तु मानवीय चेतना की समग्र समझ के प्रति युँग भ्रमित से जान पड़ते हैं। जब वे मानवीय चेतना के विवेक संगत एवं अविवेकी, उच्चतर एवं निम्नतर तत्त्वों को अचेतन में विद्यमान मानते हैं। वे अतिचेतन को अचेतन से अलग चेतना के एक स्वतंत्र रूप में नहीं समझ पाते हैं। परिणामस्वरूप युँग का विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान एक सीमित और नियतिवादी दिशा की ओर बढ़ता प्रतीत होता है और उनके व्यक्तित्व गठन में भी अहं का स्थान केन्द्रित बना रहता है। इस संदर्भ में युँग के शोध का अन्तिम सार स्व (Self) की अवधारणा बहुत संकुचित, प्रतिबन्धित और सापेक्ष है, जिसे अन्तिम स्वीकृति नहीं दी जा सकती। इस तरह फ्रायड से भिन्न युँग व्यक्तित्व गठन के सम्बन्ध में जिस मूल्याधारित एवं नैतिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं उसे समग्र नहीं कहा जा सकता। फ्रायड की विचारधारा के संशोधन एवं परिवर्धन के क्रम में विकसित नव्य फ्रायडवादी धाराएँ (एरीकफ्राँम, एरिक्सन, करेनहाँर्नी, सुलीवान आदि) व्यक्तित्व का सामाजिक संदर्भ में विशेष महत्त्व देती हैं और अहं के इर्द-गिर्द केन्द्रित है। यही स्थिति आधुनिक में प्रचलित अन्य धाराओं की है।

मानवीय चेतना एवं व्यक्तित्व के अध्ययन के संदर्भ में मैस्लो द्वारा प्रवर्तित मानवतावाद की विचारधारा यहाँ उल्लेखनीय है। इन्होंने आत्म सिद्धि (Self Actualization) और मेटानीडस (Meta needs) जैसी आवश्यकताओं को मानव प्रकृति से जोड़कर आधुनिक मनोविज्ञान को फ्रायडवादियों और व्यवहारवादियों के याँत्रिक और निराशावादी शिकंजे से उबारकर उच्चतर सम्भावनाओं की ओर प्रवृत्त किया है। मानव प्रकृति के आध्यात्मिक आयाम का रेखाँकन इनकी महत्त्वपूर्ण देन है। किन्तु मैस्लो की आत्मसिद्धि का आदर्श भी अहं की सत्ता पर आधारित है। साथ ही उनके द्वारा अन्तिम दिनों में प्रतिपादित स्व-अतिक्रमण (Self-Transcendence) की आवश्यकता (जिस पर आज का ट्राँस-पर्सनल मनोविज्ञान विकसित हो रहा है) मनुष्य की आध्यात्मिक परिपूर्णता की चाह की ओर संकेत करती है, किन्तु उनका यह मत युँग की तरह ठोस तत्त्वमीमाँसीय या दार्शनिक आधार के अभाव में अभी अधूरा ही है। अपनी तमाम उच्चतर सम्भावनाओं के बावजूद इनका आदर्श मनोजैविक प्रकृति की ही चरम विकसित अवस्था के इर्द-गिर्द परिचालित है। यहाँ साइकोसिन्थेसिस एवं ट्राँसपर्सनल मनोविज्ञान की धाराएँ इस सीमा का अतिक्रमण करती प्रतीत होती हैं, किन्तु अपनी तत्त्व मीमाँसीय त्रुटियों एवं सुस्पष्ट क्रिया पद्धति के अभाव में वे अभी समग्रता से दूर ही हैं।

वस्तुतः व्यक्तित्व विकास के महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर आधुनिक मनोविज्ञान की मौलिक त्रुटि मानवीय चेतना की अधूरी समझ है। इसी कारण व्यक्तित्व उपचार एवं संगठन सम्बन्धी इसके प्रयास एक सीमा तक ही आगे बढ़ पाते हैं और जहाँ प्रश्न इसके आत्याँतिक उपचार एवं समग्र विकास का हो तो वहाँ यह चुप्पी साध लेता है। वस्तुतः यह मानवीय चेतना की समग्र समझ के आधार पर ही सम्भव है। श्रीअरविन्द के शब्दों में- “चेतना को सामान्यतया मन का पर्याय मान लिया जाता है, जबकि मानव चेतना मात्र मानवीय परिसीमा है, जो चेतना के समस्त स्तरों का प्रतिनिधित्व नहीं करता।”

मानवीय चेतना जल में पड़ी बर्फ शिला की भाँति है। इसका जितना हिस्सा जागते समय वाले क्रियाकलापों के माध्यम से प्रकट होता है, उससे कई गुना अन्दर है। जिन थोड़े लोगों (मनोवैज्ञानिकों) ने आन्तरिक गहराइयों में झाँकने की कोशिश की, वे अन्तराल के किसी कोने की धुँधला और अस्पष्ट झलक ही पा सके। जबकि अन्तराल के किसी कोने को देखकर समूचे के बारे में कोई राय नहीं दी जा सकती। और वर्तमान मनोवैज्ञानिक अध्ययन में इस तरह की भूलें सामान्य बात है। इन्हें भूलें कहें या भ्रम कुछ इस तरह से हैं-

1. मन और आत्मा को एक ही चीज मान लेना,

2. मन को समस्त चेतना के रूप में मान्यता देना,

3. शरीर के चेतनात्मक (आध्यात्मिक) महत्त्व को अस्वीकृत कर देना।

व्यक्तित्व उपचार एवं विकास की समग्रता के संदर्भ में चेतना के आधार (आत्मा) को भुला देना ही आधुनिक मनोविज्ञान की सबसे बड़ी भूल है। इसी भूल के कारण वह अपने लक्ष्य से दूर अन्यत्र पहुँच गया है। अतः चेतना सत्ता (आत्मचेतना) का अध्ययन इसका प्रमुख विषय होना चाहिए। इसी कारण वह मानव प्रकृति का सार तत्त्व समझे बिना अपने अध्ययन, अन्वेषण में लगा है और वह एक ऐसी विषय-वस्तु का अध्ययन करता है, जिसकी सदाशयता से वह अपरिचित है। इस तरह अपनी मनोजैविक परिसीमाओं में सक्रिय आधुनिक मनोविज्ञान, व्यक्तित्व के विकास के सम्बन्ध में एक सीमा तक अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है किन्तु आँशिक रूप से ही सफल हो पाता है। युग के उत्कृष्ट चिंतक स्वामी प्रणवानन्द के शब्दों में - “मनोचिकित्सक अपने मरीजों का मनोकायिक स्तर पर संतुलन भर बिठा सकते हैं। पर इसके आगे उनकी पहुँच नहीं हो पाती।” प्रख्यात् मनोविद् लारेन्स हाइड के शब्दों में -मनोवैज्ञानिक विधियों की अपनी सीमाएँ हैं, जिनके द्वारा व्यक्तित्व के विकारों को एक सीमा तक ही ठीक किया जा सकता है, किन्तु इनका सर्वांगपूर्ण उपचार यहाँ सम्भव नहीं। उनके अनुसार जीवन को आत्म केन्द्रित (स्द्गद्यद्ध-ष्द्गठ्ठह्लह्द्गस्र) बनाये बिना किसी भी तरह व्यक्तित्व तथा जीवन के बिखराव की परिसमाप्ति नहीं हो सकती। वस्तुतः व्यक्तित्व को अखण्डित बना सकना मानसिक स्तर से गहरे जाने पर ही सम्भव है। जहाँ इसको सर्वांगपूर्ण बनाया और समस्त व्यथाओं से छुटकारा पाया जा सकता है, वह आत्मिक सत्ता ही है। जब तक समूचा व्यक्तित्व इस केन्द्र से संचालित नहीं होता, तब तक इसकी समस्याओं के समाधान के लिए किये गये प्रयास वृक्ष की जड़ों को छोड़कर पत्तों को सींचने जैसे ही होंगे। सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान आत्मिक क्षेत्र से ही सम्भव है।

इस तरह योग मनोविज्ञान, सुपरचेतन को व्यक्तित्व का आधार मानते हुए, व्यक्तित्व के समग्र संगठन एवं विकास की ठोस पृष्ठभूमि तैयार करता है। जीवन का उच्च ध्येय, सुस्पष्ट आचार पद्धति एवं अचेतन के परिष्कार की सुव्यवस्थित प्रक्रिया द्वारा यह उस कार्य की प्रभावी ढंग से आगे बढ़ाता है जो मनोचिकित्सा में अधूरा छूट जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान अहं के गठन के इर्द-गिर्द ही व्यक्तित्व विकास का प्रयास करता है; किन्तु व्यक्तित्व विकास की समग्र दृष्टि से इतना भर पर्याप्त नहीं है। यौगिक दृष्टि से व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए अहं का भी अतिक्रमण करना होगा और आत्मचेतना में प्रतिष्ठित होकर निम्न प्रकृति का रूपांतरण करना होगा। समग्र विकास की दृष्टि से यहाँ अहं ही प्रमुख बाधा है। अहं और स्वार्थ की क्षुद्रता का आत्मा या परमात्मा की विराट् सत्ता में विसर्जन से व्यक्तित्व का गहनतम स्तर पर संगठन होता है और आत्मिक स्तर पर सामंजस्य एवं समायोजन का द्वार खुलता है। स्वामी यतीश्वरानन्द के शब्दों में इस तरह संगठित व्यक्तित्व में अहं की व्यैक्तिक चेतना ब्रह्मांडीय चेतना से लयबद्ध रहती है। और यह संगठित चेतना मन और शरीर को सहज, सक्रिय एवं सामंजस्यपूर्ण ढंग से निर्देशित रखती है। अहं के समग्र गठन के अनुरूप यहाँ आधुनिक मनोविज्ञान एवं मनोविश्लेषण की मूल समस्या का भी समाधान हो जाता है; जो अहं के इर्द-गिर्द व्यक्तित्व के समायोजन पर विचार करती है।

इस तरह कहा जा सकता है कि जहाँ से आधुनिक मनोविज्ञान की परिसमाप्ति होती है वहीं से अध्यात्म (योग) मनोविज्ञान का प्रारम्भ होता है। और आधुनिक मनोविज्ञान द्वारा जो कार्य अधूरा छूट जाता है, योग मनोविज्ञान अपने आध्यात्मिक तथा परामानसिक आधार पर मनुष्य की समूची प्रकृति को अपने हाथ में लेते हुए उसे अपनी पूर्णता तक ले जाता है। युग के मूर्धन्य मनीषियों का भी यह मानना है कि व्यक्तित्व विघटन के वर्तमान संकट में भारत की यौगिक पद्धति अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। प्रख्यात् मनीषी पी. ए. सोरोकिन अपने गहन अध्ययन, अन्वेषण के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि योग की पद्धति एवं प्रक्रियाओं में आधुनिक मनोविश्लेषण एवं मनःचिकित्सा की लगभग सभी ठोस तकनीकों का समावेश है और इससे भी बढ़कर ये सब आधुनिक प्रक्रियाओं की तुलना में अधिक सूक्ष्म, कम याँत्रिक और विविधता में अधिक समृद्ध हैं। योग और आधुनिक विज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन करने वाली प्रख्यात् विदुषी साधिका गेराल्डाइन कोस्लर के शब्दों में - “योग पद्धति मानव जाति के लिए सार्वभौम रूप से सत्य है और इसमें उपलब्ध सामग्री का हम असीम लाभ के साथ जाँच और प्रयोग कर सकते हैं।” साथ ही वह लिखती हैं कि - मेरा दावा है कि योग मानसिक विकास की एक व्यावहारिक विधि है। मैं पूर्णतः आश्वस्त हूँ कि पतञ्जलि का योगसूत्र कुछ ऐसी सूचनाएँ रखता है, जो कि आजकल हमारे सबसे अधिक प्रगतिशील मनःचिकित्सकों में से कुछ खोज रहे हैं।

इस तरह मानवीय चेतना के संकट में विघटित हो रहे व्यक्तित्व के संगठन के लिए और इसमें निहित सम्भावनाओं के विकास हेतु यौगिक चिंतन एवं क्रिया पद्धति की दार्शनिक, वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक विवेचना युग की एक अनिवार्य आवश्यकता है। इस संदर्भ में भारतीय मनोविज्ञान को लेकर कुछ कार्य हुए हैं, जिनमें जदुनाथ सिन्हा का ‘इण्डियन साइकोलॉजी’, स्वामी अखिलानन्द का ‘मेण्टल हेल्थ एण्ड हिन्दु साइकोलॉजी’, रघुनाथ सफाया का ‘इण्डियन साइकोलॉजी’, डॉ. शान्तिप्रकाश आत्रेय का ‘योग मनोविज्ञान’ आदि कतिपय उदाहरण हैं, लेकिन आधुनिक मनोविज्ञान के समानान्तर इनकी तुलनात्मक, समीक्षात्मक एवं समन्वयात्मक विवेचना का इनमें सर्वथा अभाव ही दिखता है। मानवीय व्यक्तित्व विकास के संदर्भ में पूर्व एवं पश्चिम की मनोवैज्ञानिक धाराओं के समन्वयात्मक शोध अध्ययन की गहरी जरूरत है। देव संस्कृति विश्व विद्यालय के मनोविज्ञान विभाग में इस बिन्दु पर होने वाले शोध कार्य इस दिशा में सर्वथा अभिनव प्रयास है।


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