चैत्र नवरात्रि संकल्प साधना का श्रेष्ठ व सर्वोत्तम मुहूर्त है। यह साधना का महापर्व है, संकल्पित साधना के लिए दिव्य पुकार है। साधना हेतु यह समय असामान्य और असाधारण है। यूँ तो साधना कभी भी और किसी भी समय की जा सकती है परन्तु श्रेष्ठतम मुहूर्त में विशेष विधि-विधान तथा उचित रीति-नीति से सम्पन्न की जाने वाली साधना के प्रभाव परिणाम अत्यन्त व्यापक और अद्भुत होते हैं। ऐसी साधना से हठीली वृत्तियों एवं चट्टानी प्रारब्ध के असह्य ताप घटते-मिटते हैं और जीवन में पवित्रता-दिव्यता का नवोदय होता है, उत्साह और उमंग का अवतरण होता है। यह साधना विज्ञान के तत्त्वज्ञ महान साधकों-महर्षियों का अनुभूत सत्य है। यह शास्त्र सम्मत भी है, जिसके प्रभाव तीव्र एवं त्वरित होते हैं। बशर्ते कि साधना के अनुशासनों एवं नियमों का उचित ढंग से पालन किया गया हो।
साधना विज्ञान के मर्मज्ञ महर्षियों-ऋषियों ने नवरात्रि के इस मुहूर्त को दिव्यता एवं देवत्व के अभिवर्धन के लिए अनुकूल माना है। वे कालचक्र की अनवरत गतिशीलता से भलीभाँति परिचित थे। उन्होंने ग्रहों, नक्षत्रों आदि के संयोग-वियोग से उत्पन्न होने वाले प्रभावों का गम्भीर व गहन अध्ययन-अनुसंधान किया था। और वे इस तथ्य को अच्छी तरह से जानते थे कि इनके अधिकतम शुभ प्रभावों से मानवीय अन्तर्चेतना को कैसे प्रेरित-रूपांतरित किया जा सकता है। इसी सूक्ष्म व गम्भीर विज्ञान को जानने वाले हमारे प्राचीन वैज्ञानिक ऋषियों ने वर्ष में चार बार नवरात्रि पर्वों की विधि-व्यवस्था बनाई थी। इनमें से दो नवरात्रि से हम परिचित एवं विदित हैं। और इन्हीं दो में से एक चैत्र नवरात्रि है जिसकी महत्ता और विशेषता से परम पूज्य गुरुदेव की सभी सन्तानें वाकिफ हैं।
हर वर्ष के समान इस वर्ष भी चैत्र नवरात्रि की यह शुभ व पावन घड़ी हमारे उपस्थित हुई है। सदा की तरह इस बार भी हम लोग इस साधना से संकल्पित होने जा रहे हैं। अपने जीवन में साधना की सुदीर्घ प्रक्रिया और परम्परा को प्रारम्भ करने जा रहे हैं। और इन पुण्य पावन दिनों में प्रयुक्त साधना के स्वरूप से भी हम सभी भलीभाँति परिचित हैं। परन्तु इस संकल्प साधना का प्रभाव हमारे जीवन में दिखता क्यों नहीं है? क्यों इसका दिव्य प्रभाव हमारे चिंतन, चरित्र और व्यवहार के लिए अनभिज्ञ और अनजान सा बनकर रह जाता है? क्यों यह हमारे मन में सृजनशील विचार और हृदय में भाव प्रवण-पुलकन नहीं प्रदान कर पाता? इन अनगिन और ज्वलन्त प्रश्नों का जवाब एक ही है कि हमने साधना के कलेवर को अपनाया परन्तु इसकी प्राण चेतना तपस्या को भुला दिया और प्राणहीन कलेवर में आकर्षण कितना ही क्यों न हो परन्तु प्रभाव कुछ भी नहीं होगा।
संकल्प साधना में तप संजीवनी औषधि के समान है। तप के महावज्र से ही जीवन के दुर्बोध रहस्य को जाना समझा जा सकता है। महातप की दुर्धर्ष एवं प्रचण्ड ऊर्जा से हम वैयक्तिक एवं वैश्विक दुर्योग को तहस-नहस कर सकते हैं। तप की इस सूर्य के सदृश्य सतेज सच्चाई को महातपस्वी अगस्त्य ने पहचाना था। नई सृष्टि के सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के जीवन का हर पल-हर क्षण महातप से तपा था। आज भी ठीक उसी तरह तापस तप का मुहूर्त तपोमूर्ति गुरुदेव की हम सन्तानों के समक्ष प्रस्तुत हुआ है। चैत्र नवरात्रि ने अपने तपस्वी परिजनों से कुछ नयी, अनोखी एवं विशेष उम्मीदें बाँधी हैं। उनके सम्मिलित तप के महास्त्रडडडड से ‘मनुष्य में देवत्व के उदय एवं धरती पर स्वर्ग के अवतरण’ की सम्भावना साकार होने वाली है।
यह सम्भावना तभी साकार होगी, जब तप-साधना प्रखर एवं प्रचण्ड होगी, जब उसमें सम्यक् उपासना के साथ साधना और आराधना के कठोर अनुशासन जुड़े हों। उपासना-साधना के इस क्रम का भक्तिभाव और पूर्ण श्रद्धा के साथ निर्वाह करना होता है। मंत्र तभी फलित होते हैं। इसके प्रभाव एवं परिणाम नियम-अनुशासन के अनुपालन में सन्निहित होते हैं। अतः चैत्र नवरात्रि के इस असाधारण समय में इन अनुशासनों का पालन करना चाहिए जिनसे मंत्र की सिद्धि होती है।
क्षीराहारी फलाशी वा शाकाशी वा हविष्यभुक्। भिक्षाशी वा जपेद्यत्तकृच्छ्र चान्द्रसमं भवेत्॥
अर्थात् दूध पीने वाला, फल खाने वाला, शाक खाने वाला, हविष्यान्न खाने वाला या भिक्षा खाने वाला यदि जप करे तो वह कृच्छ्र के समान होता है याने कि फिर उसे जप करने में पूर्ण कृच्छ्र करने की आवश्यकता नहीं होती है।
लवणं क्षारमम्लं गृञ्जनादि निषेधितम्। ताम्बूलं च द्विभुक्तिश्च दुष्टवासः प्रमत्तता॥
अर्थात् साधनावधि में नमक, खार, खटाई, प्याज आदि निषिद्ध भोजन, पान, दो बार का भोजन तथा कुसंग और प्रमाद आदि त्याग देना चाहिए।
इस पुण्य घड़ी में किसे अपनाना चाहिए कि साधना का प्रभाव परिलक्षित हो। इस संदर्भ में निम्न तथ्य ध्यान देने योग्य हैं-
भूशय्या ब्रह्मचारित्वं मौनचर्य्या तथैव च। नित्यं त्रिषवणं स्नानं क्षौरकर्म विवर्जनम्॥ नित्य पूजा नित्यदानमानन्द-स्तुति-कीर्त्तनम्। नैमित्तिकार्चनं चैव विश्वासो गुरुदेवयोः॥ जप-निष्ठ द्वादशैते धर्माः स्युर्मन्त्रसिद्धिदाः।
अर्थात् पृथ्वी शयन, ब्रह्मचर्य व्रत, मौन, त्रिकाल संध्या, स्नान, बाल न बनवाना, नित्य पूजन, दान, स्तुति, कीर्तन, नैमित्तिक अर्चन, गुरु एवं देवता का विश्वास तथा जप में निष्ठ-ये बारह मंत्र सिद्ध करने वाले के लिए आवश्यक एवं उपयोगी कार्य हैं।
आरम्भदिनमारभ्य समाप्तिदिवसावधि। नन्यूनं नातिरिक्तं च जपं कुर्याद् दिने-दिने॥ नरैन्तर्येण कुर्वीत न स्ववृत्तौ च लिंपमेत्। प्रातरारभ्य विधिवज्जपेन्मध्यंदिनावधि॥ मनः संहरणं शौचं ध्यानं मंत्रार्थचिंतनम्।
अर्थात् साधना के प्रारम्भिक दिन से लेकर अन्तिम दिन तक एक सा, एक ही संख्या में जप करें, न कम करें न अधिक। निरन्तर ऐसा करते ही रहें, क्रम एवं व्यवस्था बनाये रखे, अपनी वृत्तियों के फेर में लिप्त न हो जायँ। प्रातः से लेकर मध्याह्न तक विधिवत् जप करते रहें। मन से पवित्र रहें और साधना काल में सदा मंत्र के अर्थ का चिंतन करते रहें। साधना और तप के ये सभी सूत्र मिलकर साधक को उच्चस्तरीय चेतना की ओर आरोहित करते हैं।
नवरात्रि के साधनाकाल में इन्हें अपनाने धारण करने वालों को साधनात्मक उपलब्धियाँ है। साधना के अन्तिम दिन साधक को भावपूर्ण पूर्णाहुति के रूप में हवन की पुण्य प्रक्रिया को पूर्ण करना चाहिए। इसके साथ यह भाव भी सन्निहित होना चाहिए कि गायत्री परिवार के सभी तपस्वी परिजनों की सम्मिलित तपऊर्जा से वैयक्तिक एवं वैश्विक आपदा-विपदाएँ विनष्ट हो रही हैं और माँ गायत्री की कृपा से उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ मूर्त रूप ले रही हैं। चैत्र नवरात्रि के इस विशेष साधना और तप के सुविकसित तप प्रयोग से दिव्य व पावन परिणाम अवश्य ही उत्पन्न होंगे और इनकी परिणति सुखद व आश्चर्यकारी होगी।