कई बार व्यक्ति की ऐसी अवस्था हो जाती है, जिसमें काम में मन नहीं लगता, फलतः वह आधा−अधूरा बन पड़ता है। निश्चित कर्त्तव्यों और दायित्वों की उपेक्षा होने लगती है। व्यवहार असामान्य हो जाता है और जिस कार्य की सफलता सुनिश्चित मानी गई थी, उसमें असफलता हाथ लगती है। ऐसा क्यों हुआ? पूछने पर पता चलता है कि ‘मूड’ ठीक नहीं था।
आखिर यह मूड है क्या? मनोविज्ञानी जैजोंक के शब्दों में कहें तो वह मानसिक अवस्था, जिसके अच्छे या बुरे होने पर व्यवहार, क्रिया और परिणाम में तदनुरूप अंतर दिखलाई पड़ने लगे, सामान्य बोल−चाल की भाषा में ‘मूड’ कहलाती है। यों तो यह एक अस्थायी मनोदशा है, पर जब तक रहती है, आदमी को सक्रिय या निष्क्रिय बनाए रहती है। सक्रियता, उत्फुल्लता, स्फूर्ति, उत्साह, उमंग उस मनःस्थिति का नतीजा है, जिसमें वह सामान्य रूप से अच्छी होती है, जबकि बुरी मनःस्थिति में अंतरंग निष्क्रिय, निस्तेज, निराश और निरुत्साह युक्त अवस्था में पड़ा रहता है। इस प्रकार विनोदपूर्ण स्थिति में व्यक्ति यदि दिखाई पड़े तो कहा जा सकता है कि वह अच्छे ‘मूड’ में है, जबकि नैराश्यपूर्ण दशा उसके खराब ‘मूड’ की द्योतक है।
विलियम एन. मोरिस ने अपने ग्रंथ ‘मूड−दि फ्रेम ऑफ माइंड’ में मूड बनाने और बिगाड़ने वाली परिस्थितियों को चार वर्गों में विभाजित किया है। पहली श्रेणी में उन घटनाओं को रखा है, जो हलके विधेयात्मक या निषेधात्मक स्तर की है। दूसरी में संवेगात्मक प्रकरणों को सम्मिलित किया गया है। तीसरी कोटि भूतकालीन आवेगात्मक स्मृतियों की हैं, जबकि चौथे वर्ग में वह निरोध शामिल है, जो आवेग उत्पन्न करने वाले प्रसंगों की भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को रोकता है। मोरिस के अनुसार इन सभी स्थितियों में मनोभाव प्रभावित होता है और घटना के भले−बुरे स्वभाव के अनुसार उसका निर्माण होता है। यहाँ तक संपूर्ण मनोविज्ञान जगत एकमत है, पर मूड निर्माण संबंधी प्रक्रिया में विशेषज्ञों में परस्पर सहमति नहीं हो सकी है।
‘दि साइकोलॉजी ऑफ फीलिंग इमोशन’ नामक रचना में मनोविज्ञानी सी.ए. रुकमिक लिखते हैं कि उत्तेजना पैदा करने वाला उद्दीपन जब समाप्त हो जाता है तो आवेग भी धीरे−धीरे कमजोर पड़ने लगता है। इस निर्बल संवेग की अवस्था को ही वे ‘मूड’ की संज्ञा देते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो घनीभूत आवेश की तीव्रता जब समय के साथ छितराती है तो वही ‘मूड’ बन जाती है।
‘हैंडबुक ऑफ सोशल काँग्निशन’ नामक पुस्तक में एलीस एम. आइसेन कुछ भिन्न मत प्रकट करती हैं। उनका मानना है कि उत्तेजना और मूड साथ−साथ उत्पन्न होते और समानाँतर रहकर कार्य करते हैं। दोनों का प्रादुर्भाव एक ही घटना से होता है। वे किसी ऐसी प्रक्रिया से इनकार करती हैं, जो आवेग की निर्बलता के उपराँत ‘मूड’ जैसी स्थिति पैदा करती हो। मूड को वे एक अवशिष्ट अवस्था मानती हैं, एक ऐसी सूक्ष्म अवस्था, जो मनोवेग के आरंभ से पृष्ठभूमि में रहती तो है, पर जब तक स्वयं को अप्रकट स्तर का बनाए रहती है, जब तक आवेश एकदम क्षीण न हो जाए।
मूड संबंधी यह सैद्धाँतिक विवेचन जान लेने के पश्चात हर एक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह सदा स्वस्थ मनोदशा में रहे। यदा−कदा कभी गड़बड़ा जाए तो उसे तुरंत पूर्व स्थिति में लाने की कोशिश करनी चाहिए। जिसका मानसिक धरातल जितना लोचपूर्ण होगा, वह उतनी ही जल्दी अपने इस प्रयास में सफल होता प्रतीत होगा। जो जितना शीघ्र सामान्य मनोदशा में लौट आता है, मनोविज्ञान की दृष्टि से उसे उतना ही स्वस्थ मन वाला व्यक्ति कहा जाएगा। महामानवों और महापुरुषों की मानसिक संरचना लगभग ऐसी ही होती है। वे क्रोधित नहीं होते, यह बात नहीं, गुस्सा वे भी करते हैं, पर जिस तीव्रता से वह प्रकट होता है, उसी गति से विलुप्त भी हो जाता है। सामान्य लोगों में यह विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती, इसी कारण से लंबे समय तक वे उससे प्रभावित बने रहते हैं। लगातार खराब मूड में बने रहने के कारण मन फिर उसी का अभ्यस्त हो जाता है और व्यक्ति अवसाद का पुराना रोगी बन जाता है।
मूर्द्धन्य व्यवहारविज्ञानी एल. बुडजिया अपने ग्रंथ ‘डायमेन्शन्स ऑफ मूड’ में लिखते हैं कि आज के कठिन समय में जीवन की जटिलताएँ इतनी बढ़ गई हैं कि व्यक्ति अधिकाँश समय बुरी मनःस्थिति में बना रहता है। गाँवों की विरल आबादी से जैसे−जैसे वह शहरों के जनसंकुल वातावरण के निकट आता है, वैसे−ही−वैसे कठिनाइयाँ बढ़ती जाती हैं। इससे मानस पर उनका दबाव तदनुसार बढ़ता जाता है। प्रकाराँतर से यही दबाव खराब मनोदशा का कारण बनता है। उनका मानना है कि सभ्यता के विकास के साथ−साथ जीवन शनैः−शनैः जटिल होता चला गया। आज से सौ वर्ष पूर्व मानवीय जिंदगी जितनी सरल थी, अब वह वैसी नहीं रही। यही कारण है कि तब लोग खेल और मनोरंजन की तरह जितनी सहजता से तनाव रहित उन्मुक्त जीवन गुजार लेते थे, वैसा आज संभव नहीं। आदिमानवों का जीवन और भी सहज था। उन्हें न भोजन की चिंता थी, न भविष्य की फिक्र। जब भूख लगती, जंगली कंदमूलों एवं जंतुओं के शिकार से अपना पेट भर लेते, नींद आती तो पेड़ तले सो लेते, न घर बनाने की आकाँक्षा, न संपत्ति जोड़ने की अकुलाहट, आज यहाँ, तो कल वहाँ, यही उनकी दिनचर्या थी। जहाँ इतनी सीधी−सादी जिंदगी होगी, वहाँ अंतःकरण प्रफुल्ल क्यों न रहेगा। वे कहते थे कि जटिल जीवन से समस्याएँ बढ़ती हैं और उस बढ़ोत्तरी का असर मन की स्वाभाविकता पर पड़े बिना नहीं रहता।
अशाँत चित्त का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण गिनाते हुए वे लिखते हैं कि महत्त्वाकाँक्षा यों तो प्रगति के लिए अत्यंत आवश्यक है, पर यह अनियंत्रित होने पर दुःख−शोक का कारण बनती है। इन दिनों वह इस कदर बढ़ी−चढ़ी है कि मनुष्य अधिकाधिक दौलत जुटा लेने, यश कमा लेने और वाहवाही लूटने की ही उधेड़बुन में हर घड़ी उलझा दिखाई पड़ता है। जीवन इसके अतिरिक्त भी और कुछ है, उन्हें नहीं मालूम। बस, यही अज्ञानता विपन्न मनोदशा का निमित्त कारण बनती है।
यह सच है कि आदमी का रहन−सहन जितना निर्द्वंद्व एवं निश्छल होगा, उतनी ही अनुकूल उसकी आँतरिक स्थिति होगी। इसके विपरीत जहाँ बनावटीपन, दिखावा, झूठी शान, प्रतिस्पर्द्धा होगी, वहाँ लोगों की मनोदशा उतनी ही असामान्य होती है। एम.टी. मेडनिक और एस.मेहराबियन के सर्वेक्षण से यह बात स्पष्ट हो जाती है। सर्वेक्षणकर्त्ताओं ने आस्ट्रिया के कई शहरों में जाकर इस बात का अध्ययन किया कि शहरी वातावरण का मानवीय मनोभावों पर क्या प्रभाव पड़ता है? प्राप्त परिणाम इस बात का स्पष्ट संकेत था कि भोले−भाले ग्रामीणों की तुलना में स्वभाव से अधिक चतुर−चालाक और कृत्रिमता को अपनाने वाले शहरी लोगों का ‘मूड’ अपेक्षाकृत ज्यादा बदतर होता है। सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि नगर निवासियों में से 66 प्रतिशत लोग ऐसे थे, जिनकी सप्ताह में औसतन पाँच से लेकर छह दिन तक मनोभूमि न्यूनाधिक अच्छी नहीं रहती। 31 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे पाए गए, जो सप्ताह में तीन से चार दिन तक खराब मूड के शिकार बने रहते। शेष तीन प्रतिशत में एक प्रतिशत से भी कम लोग ऐसे निकले, जो उस अशाँत परिस्थिति में भी स्वयं को स्थिरचित्त रखने में सफल होते पाए गए, जबकि शेष ऐसे थे, जो बहुत कठिन परिस्थितियों में ही इस रुग्णावस्था की गिरफ्त में आए।
मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि जब कभी मनःस्थिति खराब हो जाए तो उसे स्वतः अपनी स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया द्वारा ठीक होने के लिए नहीं छोड़ देना चाहिए, वरन् उसको सामान्य स्थिति में लाने का प्रयत्न−प्रयास आरंभ कर देना चाहिए। इससे कम समय में ही मनःस्थिति को दुरुस्त किया जा सकता है। मनःशास्त्री कहते हैं कि खराब मूड की स्थिति में मन को किसी−न−किसी आश्रय से अवश्य बाँध देना चाहिए। यह अवलंबन विविध प्रकार के हो सकते हैं। स्वाध्याय, मनोरंजन, प्रकृति का सान्निध्य, एकाँत का परित्याग, बात−चीत, हँसी−मजाक जैसे कितने ही उपक्रम ऐसे हो सकते हैं, जिनमें मन खो जाता है। इससे खराब मूड की अवस्था बदल जाती है और उसका स्थान आनंद, उत्साह, उमंग, सक्रियता जैसे तत्त्व ले लेते हैं। यों गम गलत करने का एक आसान और प्रचलित तरीका आज नशा−सेवन भी है, पर यह तो वैसा ही हुआ, जैसे एक छोटे फोड़े को ठीक करने में क्रम में एक बड़ा और दुःसाध्य घाव पैदा कर लेना। इससे सदा परहेज करना चाहिए। गड्ढे को छलाँगने के प्रयास में कोई कुएँ में जा गिरे तो यह उसकी मूर्खता ही कही जाएगी।
अंतिम उपचार अध्यात्म का है। यदि व्यक्ति भौतिकता में आध्यात्मिकता का समावेश करता चले और जीवन में आवश्यक संयम−नियम का अनुपालन करे, आवश्यकता से अधिक की आकाँक्षा और स्तर से ज्यादा की चाह में प्रवृत्त न रहे तो मूड के खराब होने जैसी किसी भी कठिनाई से बचा जा सकता है। इस दृष्टि से अध्यात्मवादी अधिक लाभ में रहते हैं। वे जितनी निश्चिंततापूर्वक जीवनयापन करते हुए अपने सुनिश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ते चलते हैं, उतनी शाँति और संतुष्टि भौतिकता के चकाचौंध में जीने वालों में परिलक्षित नहीं होती। अतएव उत्तम यही है कि वैसा जीवनक्रम अपनाया जाए, जिसमें अवसाद भरी मनःस्थिति में पड़ने की समस्त संभावनाएँ ही निरस्त हो जाएँ। जीवनपद्धति वही अच्छी है, जो हमें शाँति और संतोष प्रदान करे और चरम लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ाती चले।