परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - मानव में देवत्व ऐसे उभरेगा

April 2003

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(कल्प साधना सत्र)

गायत्री मंत्र हमारे साथ−साथ,

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

मित्रो! कल आपको जीवनमुक्ति के बारे में बता रहा था कि आप जीवनमुक्त होकर जिएँ। बंधनों से छूट जाएँ। बच्चा माँ के पेट में बँधा रहता है, बाहर आ जाता है तो कितना खुश! कैदी जेलखाने से छूट जाता है तो कितना खुश हो जाता है और पक्षी पिंजरे में से छूट जाता है, तब कितना खुश होता है! मुक्ति का आनंद ऋषियों ने बताया है कि यह आदमी की जिंदगी का सबसे बड़ा आनंद है। व्यक्ति यदि मुक्ति का स्वच्छंद जीवन जी सकता हो, स्वाधीनता का अनुभव कर सकता हो तो क्या कहने का! पूर्व में मैंने आपको लोभ−मोह और अहंकार के बारे में ये कहा था कि आपके छाती से लगा रखा है, जिनको मित्र बना रखा है, जिनके सहारे आपने जिंदगी गुजारने का फैसला कर रखा है। आप इन तीनों का तिरस्कार कीजिए, इनके चंगुल से छूट जाइए।

मित्र! आज आपको एक नई बात बताते हैं कि आपको स्वर्ग का जीवन जीना चाहिए। आप निश्चित रूप से स्वर्ग का जीवन जी सकते हैं। स्वर्ग का जीवन जीने में आपको कोई दिक्कत नहीं है। मित्रो! स्वर्ग और नरक आपका बनाया हुआ है। स्वर्ग आप बना सकते और बिगाड़ भी सकते हैं। आपके एक हाथ में स्वर्ग है और एक हाथ में नरक है। आप चाहें तो स्वर्ग का द्वार खोल सकते हैं, सामने देख सकते हैं और मजा उड़ा सकते हैं। अगर आपकी इच्छा है कि नरक का जीवन जिएँगे तो आप इच्छा से या अनिच्छा से नरक का इस्तेमाल कीजिए और नरक में फँस जाइए। यह आपकी मरजी की बात है। भगवान ने हर आदमी को स्वाधीन बनाया है और इस योग्य बनाया है कि वह स्वर्ग और नरक में से जिस किसी को वरण करना चाहे तो खुशी से कर सकता है।

स्वर्ग का जीवन कैसे?

मित्रो! क्या करना चाहिए? आपको एक काम करना पड़ेगा। क्या? इस दुनिया में सबसे बड़ी दिक्कत यह पड़ती है कि आदमी बहुत सारी इच्छाएँ लिए हुए बैठा रहता है। अगर उसकी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं तब वह दुखी होता है। आदमी को जिंदगी में साठ फीसदी दुःख इस बात का है कि उसने तरह−तरह की कल्पनाएँ कर रखी हैं। तरह−तरह की कामनाएँ कर रखी हैं। इन कल्पनाओं और कामनाओं के पूरा न होने पर वह हैरान होता है, दुखी होता है। आदमी को शारीरिक दुःख तो कभी−कभी होते हैं, परंतु मानसिक दुःख बहुत हैं। खाने−पीने को नहीं मिले तो शारीरिक दुःख, हारी−बीमारी हो जाए तो शारीरिक दुःख—बस, और क्या दुःख है, बताइए? कोई दुःख नहीं है। खाने−पीने की कमी है क्या? कुछ कमी नहीं है। अगर आदमी भले आदमी के तरीके से रहे तो बीमारी भी नहीं आएँ। बीमारी आएगी तो वैसे कदाचित ही कभी आएगी, जिसमें आदमी बेचैन हो जाता है। कोई बवासीर हो गया, कोई खाँसी−जुकाम हो गया—ये सब तो चलते रहते हैं। ये सब इतने बड़े दुःख नहीं हैं।

आदमी का एक ही दुःख है कि उसने बड़ी−बड़ी कल्पनाएँ, बड़े−बड़े मनोरथ और बड़ी−बड़ी भौतिक महत्त्वाकाँक्षाएँ बनी रखी हैं और वे पूरी नहीं हो पातीं। क्या इनका पूरा होना जरूरी है? बिलकुल जरूरी नहीं है, क्योंकि ये दुनिया, ये परिस्थितियाँ केवल आपके लिए थोड़े ही बनी है! आप अनुकूल परिस्थितियों से ही तो मनोकामना पूरी कर सकेंगे। दूसरे आदमी सहयोग देंगे, तभी तो बात बनेगी। वातावरण आपके अनुकूल बने, यह कोई गारंटी नहीं है। परिस्थितियाँ आपके अनुकूल बन जाएँ, कोई गारंटी नहीं है। फिर आपकी मनोकामना पूरी हो जाए, कोई जरूरी है? मनोकामना पूरी नहीं हो पाती, इसलिए आदमी आमतौर से दुखी रहते हैं।

इच्छाएँ पीछे रखिए

मित्रो! तब क्या करना चाहिए? आप स्वर्ग−सा जीवन जीने के लिए मनोकामना को पीछे हटा लीजिए और यह मत सोचिए कि क्या परिणाम मिलेगा। आप अपने मन को एक केंद्र पर केंद्रित कर लीजिए और फिर आप यह सोचिए कि हमारे फर्ज और कर्त्तव्य जो हैं, उन्हें हम पूरा करते हैं कि नहीं करते हैं। आप फर्ज और कर्त्तव्यों को गौर कीजिए कि इनका पालन किया कि नहीं किया। अपनी खुशी को आप इसी पर केंद्रित कर लीजिए। अगर हमने अपने कर्त्तव्यों का पालन किया तो खुश! अपने बच्चों को सुसंस्कारित करने के लिए प्रयत्न किया तो खुश! हमको अपने माँ−बाप के प्रति जो कर्त्तव्य पूरा करना चाहिए था, वह पूरा किया तो खुश। आप खुशी क्यों नहीं ले सकते? आप अपनी मुट्ठी में खुशी क्यों नहीं रखते, दूसरों के हाथ में क्यों बेच देते हैं? आपका बेटा यदि सुपात्र बनेगा और आपका आज्ञाकारी बनेगा, तब आप खुश होंगे। न हुआ तब? तब तो आपने अपनी खुशी दूसरों के हाथ में गिरवी रख दी न? आपकी बीबी हँसी−खुशी से रहेगी और आपकी आज्ञा का पालन करेगी, आपकी मरजी से चलेगी तो आप खुश! और नहीं चली तब? तब आपने बेच दी न अपनी खुशी! नाराजगी में फिर रहे हैं न तब? परिस्थितियों के गुलाम मत होइए। अपनी मनःस्थिति पर केंद्रित हो जाइए। केंद्रित हो करके सारे संसार भर में सिर्फ एक खुशी का अपना केंद्र बना लीजिए कि हमको अपने फर्ज और कर्त्तव्य पालन करने हैं।

मित्रो! फर्ज और कर्त्तव्य पालन करने का अगर आपका मन होगा, मरजी होगी, तब फिर क्या होगा? फिर आपको मजा आ जाएगा। और क्या होगा? बहुत कुछ हो जाएगा। फिर आपको अपने फर्ज से कोई रोक नहीं सकता। आप अपने मित्रों के प्रति कर्त्तव्य को निभाएँ। इसमें कोई रोकता है क्या? मित्र आपके प्रति बदला चुकाएँगे कि नहीं, यह बात सोचेंगे तो गड़बड़ हो जाएगी। आप यह उम्मीद मत कीजिए कि आपके मित्र बदला चुकाएँगे। आप यह उम्मीद मत कीजिए कि बच्चे हमारा कहना मानेंगे। आप यह उम्मीद मत कीजिए कि हमारी स्त्री हमारे आज्ञानुसार चलेगी। आप यह उम्मीद मत कीजिए कि जैसे हमने ख्वाब सँजो रखे हैं, उसी तरीके से हमारे सपने पूरे हो जाएँगे। न, ऐसा मत कीजिए।

सच्चा कर्मयोग

तब क्या करें? आप सब ओर से अपने आप को समेटकर जा बात आपके हाथ में है, जो आपकी मुट्ठी में है, उस पर केंद्रित हो जाइए। परिस्थितियाँ आपके हाथ में नहीं है। दूसरे लोग आपके साथ में क्या सलूक करेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। अपनी खुशी को आप उन बातों में मत मयस्सर कीजिए, नहीं तो दुखी रहेंगे आप। सुखी होने का एक ही तरीका है कि हम अपने कर्त्तव्य और फर्ज कहाँ तक पूरा कर सकते हैं। ये हमने पूरे किए हैं कि नहीं। बस, इतने से ही बात खत्म हो गई। इसे ही ‘कर्मयोग‘ कहते हैं।

अगर आप कर्मयोगी बन जाएँ और ड्यूटी एवं फर्ज को पर्याप्त मान लें और यह देखें कि हमने अपनी ड्यूटी ठीक तरीके से अंजाम दी, इसलिए हमको खुश होने का हक है, हमको संतोष करने को हक है। अगर आप यह बात मान लें कि आप देखेंगे कि आपने खुशी का केंद्रबिंदु बदल दिया और तब आपको चौबीसों घंटे मुस्कराते रहने का, हँसते रहने और प्रसन्न रहने का पूरा अवसर मिल जाएगा। आपको कर्मयोगी होना ही चाहिए। आपको अच्छी−से−अच्छी उम्मीदें करनी चाहिए और बुरी−से−बुरी बात के लिए तैयार रहना चाहिए। यह कोई जरूरी नहीं है कि जो आप चाहते हैं, वही हो जाएगा। अगर उलटा हो गया तब? उलटा भी होता रहता है। आपको मालूम नहीं है पंजाबियों का, पाकिस्तान से जब पंजाब का बँटवारा हुआ था तो वहाँ बेचारे कितने मालदार आदमी थे। एक सप्ताह के भीतर ही परिस्थितियाँ उलट गई थीं। किसी का बच्चा मर गया, किसी का धन छिन गया, किसी का क्या हो गया! वे भागकर इधर आ गए। फिर ये परिस्थितियाँ आपके लिए नहीं आ सकतीं क्या? आपके लिए भी हो सकती हैं।

हर स्थिति के लिए रहें तैयार

इसलिए मित्रो! आप अच्छी−से−अच्छी उम्मीद कीजिए। अपने भविष्य के लिए सुनहले सपने देखिए कि हमको अच्छा भविष्य बनाना है। लेकिन साथ−साथ में आप इसके लिए भी तैयार रहिए कि ठीक इसके उलटा हो जाए, तब क्या होगा? तब हम उसके लिए भी तैयार हैं। आप अपनी लड़की की शादी अच्छे−से−अच्छे घर में कीजिए। अच्छा घर भी ढूँढ़िए और यह उम्मीद कीजिए कि आपकी लड़की का गृहस्थ−जीवन अब अच्छा व्यतीत होगा। लेकिन इसके लिए भी तैयार रहिए कि आपने जिस लड़की की शादी की है, लड़का नकारा निकल गया तब? चोर निकल गया तब? दुष्ट निकल गया तब? तब उसके लिए भी तैयार रहिए। लड़की को भी पहले से इस बात के लिए आगाह रखिए कि यह भी हो सकता है कि उस घर में तुम्हारा सम्मान न हो। तुम्हारी जिंदगी आसानी से कट जाए, ऐसे सपने भी दिखाइए, लेकिन यह तैयारी भी रखिए कि ऐसा भी हो सकता है कि उसी घर की परिस्थितियाँ ऐसी विकट हो जाएँ, ऐसे दकियानूस लोग हों, ऐसे चोर−चाँडाल हों कि सब हैरान कर डालें। अतः इसके लिए भी तैयार रहिए। मुकाबले के लिए तैयार रहिए। उस स्थिति में क्या करेंगे, यह भी कल्पना कीजिए। कहने का अर्थ यह है कि भविष्य के बारे में न केवल सुनहले सपने देखिए, वरन् बुरी−से−बुरी बात के लिए तैयार भी रहिए। आप अगर यह सब मान लेते हैं तो मैं आपको कर्मयोगी कहूँगा। तब आपको जीवन में मजा आ जाएगा। आपकी खुशी का यह हुआ प्वाइंट नंबर एक।

मित्रो! खुशी का एक और दूसरा वाला प्वाइंट है, जिसको हम स्वर्ग कहते हैं। कर्मयोगी को मैं स्वर्ग में निवास करने वाला कहता हूँ। जिसको अपने फर्ज की बात याद रहती है, मैं उसे स्वर्ग का निवासी देवता कहता हूँ। देवता का एक और लक्षण है। क्या लक्षण है? देवता अकेले नहीं खाते। वे मिल−बाँटकर खाते हैं। अगर आपके पास कोई चीज है तो आप मिल−बाँटकर खाइए। ज्ञान आपके पास है तो उसका फायदा औरों को मिलने दीजिए। आपके पास पैसा है तो मिल−बाँटकर खाइए। आपके पास स्वास्थ्य है तो दूसरों को लाभ पहुँचाइए। हर एक को फायदा उठाने दीजिए। अपनी संपदा को मिल−बाँटकर खाइए। दूसरों की मुसीबतों को बँटा लीजिए। देवता यही काम करते हैं। देवता देखे हैं ने आपने? देवता के अंदर यही गुण होता है। देवता को हम पुकारते हैं कि हे भगवान! हमारी सहायता कीजिए। गणेश जी! हमको बुद्धि दीजिए। लक्ष्मी जी! हमको पैसा दीजिए। उनका स्वभाव है कि वे देते रहते हैं।

देते रहने का क्या मतलब है? देते रहने का मतलब यह है कि अगर पास कोई चीज है तो वे लोगों को बाँटते रहते हैं और लोगों की मुसीबतों में हिस्सा बँटाते रहते हैं। हमको बुखार आ गया, हम बीमार हैं। हे हनुमान जी! हमारे बुखार को दूर कर दीजिए। करते हैं कि नहीं करते, यह बात अलग है, पर आपकी मान्यता तो यही है न कि वे आपके दुखों में हिस्सा बँटाएँगे। आपकी मुसीबतों को दूर करेंगे। आपकी कठिनाइयों को दूर कर देंगे। अगर उनके पास ज्ञान है, विद्या है, बुद्धि है तो वे आपको देंगे। देवता इन्हीं दो वजहों से तो देवता हैं कि वे आपकी मुसीबतों में हिस्सा बँटाते हैं और उनके पास कोई वैभव है तो वे आसानी से बाँट देते हैं।

देवता बनिए

मित्रो! उस आदमी का नाम देवता है, जो अपनी सुविधाओं और संपदाओं को मिल−बाँटकर खाता है। मिल−बाँटकर खाने का मजा देखा है आपने? इक्कड़....., जो अकेला ही खाता रहता है, पाप खाता रहता है। अकेला ही संचय करता रहता है, वह आदमी पाप संचय करता रहता है। जो अकेले की खुशी चाहता है, वह आदमी पाप संचय करता है। इसीलिए हमारे यहाँ ‘परिवार’ की , ‘लार्जर फैमिली’ की प्रणाली है, जिसमें सब मिल−बाँटकर खाएँगे। मिल−जुलकर रहेंगे, हिल−मिलकर खाएँगे। कमाने वाला स्वयं थोड़े ही खाता है। सब मिल−बाँटकर खाते हैं। कोई बच्चा है, कोई बीमार है, कोई बुड्ढा है, किंतु सब हिल−मिलकर रहते और मिल−बाँटकर खाते हैं। यह पारिवारिक वृत्ति है, जिसमें ‘वसुधैव कुटुँबकम्’ की मान्यता जुड़ी हुई है।

‘वसुधैव कुटुँबकम्’ की मान्यता क्या है? ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ क्या है? एक ही है—आप दूसरों की मुसीबतों में हिस्सेदार हो जाइए और अपनी सुविधाओं को बाँट दीजिए—हो गया ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ और हो गया ‘वसुधैव कुटुँबकम्।’ सारे सिद्धाँतों का निर्वाह इसी तरीके से होता है। इसलिए आपकी कार्यपद्धति और आपके चिंतन में ये बातें जुड़ी रहनी चाहिए कि हम किस तरीके से मिल−बाँटकर खाएँगे और दूसरों की मुसीबतों में किस तरीके से हाथ बँटाएँगे। इसीलिए आपको अपना संकीर्ण ‘स्व’—जो अभी आपने ‘कूपमंडूक’ के तरीके से सीमित कर रखा है, फिर आप उसको विशाल बना देंगे। आप सबके हो जाएँगे और सब आपके हो जाएँगे। तब आप देवता हो जाएँगे और आपको स्वर्ग में रहना आ जाएगा।

साथियो! अगर आप यह स्वर्ग नहीं खरीद सकते और आपने सीमा−बंधन बना रखा है—आप अपना ही खाना, अपना ही पहनना, अपना ही पैसा, अपना ही बेटा, अपना ही यश, अपना ही नाम चाहते रहेंगे और आपको, नरक में रहने वाले को जो यातनाएँ भुगतनी पड़ती हैं, मानसिक दृष्टि से वे सारी यातनाएँ भुगतनी पड़ेंगी। ठीक है कि शारीरिक दृष्टि से यह भी हो सकता है कि आप कुछ खाने−पीने का सामान इकट्ठा कर लें, कुछ पैसा इकट्ठा कर लें, लेकिन आप दुखी ही रहेंगे।

खिलाड़ी की जिंदगी

क्या करना चाहिए? तब आपको एक और काम करना चाहिए। कौन सा? आपको खिलाड़ी की जिंदगी जीनी चाहिए। आप खिलाड़ी की जिंदगी जिएँ। खिलाड़ी हारते भी रहते हैं, जीतते भी रहते हैं। वे टीम बनाकर खेलते हैं। हार गए तो क्या, जीत गए तो क्या! जिस तरह लोग ताश−पत्ता खेलते रहते हैं, बादशाह कट गया, बेगम कट गई, गुलाम कट गया—सब कट गए, परंतु खेलने वाले के चेहरे पर कोई शिकन ही नहीं। उसी तरह आप अपने चेहरे पर शिकन मत आने दें। चिंताओं की और मुसीबतों की कल्पनाएँ करके, संदेह करके, भविष्य की आशंकाएँ करके हर समय आपका दिल धड़कता रहता है। आप निश्चिंत रहिए, निर्द्वंद्व रहिए, मुस्कराते रहिए। आप हँसते और मुस्कराते रहेंगे और निश्चिंत रहेंगे, तब आप एक खिलाड़ी के तरीके से जिंदगी जिएँगे, तब फिर मैं आपको देवता कहूँगा।

मित्रो! यह संसार एक नाटक है, आप इसके एक पात्र हैं। दुनिया में आपको एक नाटक अदा करना है। आप नाटक के तरीके से, एक नट के तरीके से तमाशा कीजिए। लोगों को मनोरंजन करने दीजिए, लेकिन आप निश्चिंत होकर राजा जनक के तरीके से अपनी मनः स्थिति को बनाए रखिए। फिर मैं आपको स्वर्ग में निवास करने वाला कहूँगा। भूत का चिंतन मत करिए। पिछली जो घटनाएँ हो गई, तो ठीक है, आपने कुछ अच्छे काम कर लिए, पर बार−बार उनकी प्रशंसा करने की जरूरत क्या है? अगर किसी ने आपके साथ कोई बुराई कर ली या किसी ने दुःख भुगत लिए तो बार−बार कहने की जरूरत क्या है? भूत सो भूत, गया सो गया। आप भूत पर विचार मत कीजिए। भूत से आप अनुभव तो इकट्ठा कर सकते हैं, लेकिन चिंता भविष्य की कीजिए कि हमको करना क्या है? अगर यह सोचते रहेंगे तो मजा आ जाएगा।

जवान आदमी बनिए

बुड्ढे आदमी भूतकाल का वर्णन करते हैं। बच्चे भविष्य की बात सोचते हैं, लेकिन जवान आदमी वर्तमान की बात सोचते रहते हैं। आपको वर्तमान याद करना चाहिए कि आज का दिन आप किस तरीके से बेहतरीन बना सकते हैं। अगर यह विचार आपके जी में आ जाए तो मैं आपसे यह कहूँगा कि आप स्वर्ग में निवास करने वाले आदमी हैं। भविष्य की क्यों अनावश्यक कल्पनाएँ आप करेंगे? योजनाएँ बना लीजिए, इसमें कोई हर्ज नहीं, लेकिन ‘महत्त्वाकाँक्षा’ बात अलग हैं, योजना की बात अलग है। आपको एम. ए. करना है तो आप स्कीम बनाइए। नहीं साहब! एम. ए. नहीं हुए तो मर जाएँगे, नाक कट जाएगी, बात बिगड़ जाएगी। क्या बात बिगड़ जाएगी? दुनिया में ऐसे भी हैं, ज्यादा पढ़े नहीं हैं। आप मैट्रिक पास रहेंगे तो क्या आफत आ जाएगी? नहीं साहब! हमारा ये हो जाएगा, हमारा वह हो जाएगा। आप अगर ऐसे ही विचार करते रहेंगे तो मैं आपको नरकगामी कहूँगा।

मित्रो! स्वर्ग में रहने वाले अपने वर्तमान का ध्यान करते हैं, भविष्य की तैयारी करते हैं। भूतकाल को भूल जाते हैं और खिलाड़ी की तरह जिंदगी जीते हैं। आप अपने जीवन के तौर−तरीके में ऐसा मौलिक परिवर्तन करके जाइए यहाँ से। और क्या काम करें? आप एक और काम कीजिए कि लोगों की कमियों को, बुराइयों को हटाने की बात सोचें। मित्रो! यह दुनिया बड़ी खराब है और बड़ी जलील है। इसमें अच्छाई भी हैं और भगवान का रूप भी है। यह तो मैं नहीं कहता कि इसमें भगवान का रूप नहीं है। पर इसमें कमियाँ कम हैं क्या? बुराइयाँ कम हैं क्या? एक−से−एक दुष्ट और एक−से−एक बेईमान दुनिया में भरे पड़े हैं। तो फिर क्या करें? दुष्टों के प्रति द्वेष? नहीं बेटे, द्वेष करके आप ही जल जाएँगे। तो फिर ईर्ष्या? ईर्ष्या से भी आप जल जाएँगे। प्रतिशोध? प्रतिशोध से भी आप जल जाएँगे। इससे आप सामने वाले का जितना नुकसान करेंगे, उससे ज्यादा अपना नुकसान कर लेंगे। एक तो दूसरे आदमी ने आपको नुकसान पहुँचाया—नुकसान नंबर एक और एक आपने फिर नई बीमारी और शुरू कर ली। डाह की, ईर्ष्या की, प्रतिशोध की, घृणा की—इन सारी चीजों को आप बनाए रखेंगे तो फिर आप कैसे जिएँगे, बताइए न? तब फिर आप बाहर से भी पिसेंगे और भीतर से भी पिसेंगे। तो फिर आप मरेंगे कि नहीं? आप ऐसा मत कीजिए।

आप क्या करें? बुराइयों को बरदाश्त करें? नहीं, यह तो मैं नहीं कहता कि आप बुराइयों को बरदाश्त करें। आप बुराइयों से संघर्ष कीजिए, लेकिन संघर्ष करने का दूसरा तरीका है। कौन सा? वह तरीका है, जो डॉक्टर अख़्तियार करता है। किसके लिए? मरीज के लिए। मरीज के रोगों को मार डालने के लिए वह हरचंद कोशिश करता है कि रोग बचने न पाए, विषाणु बचने न पाए। रक्त का प्रदूषण बचने न पाए, किंतु रोगी को नुकसान न होने पाए। आप रोगी को नुकसान पहुँचाए बिना उसकी बुराइयों को दूर करने के लिए बराबर जद्दोजहद कीजिए। जब आप किसी व्यक्ति विशेष को हानि पहुँचाने की बात सोचते हैं तो वह द्वेष हो जाता है और जब आप उसके दोषों को, दुर्गुणों को, कमियों को हटाने की बात सोचते हैं तब? तब फिर कोई दिक्कत नहीं पड़ती। आप ऐसा कीजिए न! ऐसा करेंगे, तब आप देखेंगे कि आप स्वर्ग में रहने वाले देवताओं की बिरादरी में शामिल हो गए।

अपने पर निर्भर हों :− साथियों! आपको एक और काम करना चाहिए, आपको आत्मनिर्भर होना चाहिए। आप अपने ऊपर डिपेंड कीजिए—अपने ऊपर निर्भर रहिए। क्या करें? बाहर के आदमियों से मत उम्मीदें कीजिए, मत विश्वास कीजिए और मत अविश्वास कीजिए। आप यह मानकर चलिए कि यह भी आदमी है। आदमी सो आदमी, अतः अपने ऊपर निर्भर रहिए। आप यह मानकर चलिए कि उन्नति करेंगे तो हमीं करेंगे। किसी आदमी से आप यह आशा लगाए बैठे हैं कि वह आपकी सहायता करेगा तो वह क्यों आपकी सहायता करेगा? ‘आस बिरानी जो करे, जीवत ही मर जाए।’ यह देहात की कहावत है। यह ठीक है कि वक्त मिल जाएगा तो सहायता मिल भी सकती है और नहीं भी मिल सकती है, पर जो भी आप कदम उठाएँ, अपने पैरों को मजबूत करके उठाएँ। उम्मीद यह करें कि यह काम हमको करना है और हम ही करेंगे। अगर आपका यह आत्मविश्वास है, तब? तब फिर आपको आत्मनिर्भर व्यक्ति कहा जाएगा और आपको देवता कहा जाएगा।

देवता आत्मविश्वासी होते हैं और आत्मनिर्भर होते हैं। वे किसी पर डिपेंड नहीं। सूरज किसी पर डिपेंड नहीं करता कि हमको कोई अर्घ चढ़ाएगा कि नहीं चढ़ाएगा। हवा किसी पर डिपेंड नहीं करती, किसी की अपेक्षा नहीं करती। चंद्रमा किसी की अपेक्षा नहीं करता। जमीन किसी की अपेक्षा नहीं करती। आप भी किसी की अपेक्षा मत कीजिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप सहयोगी जीवन न जिएँ। परस्पर मिलना−जुलना न करें, पर आप अगर यह उम्मीद बनाए रहेंगे कि अमुक आदमी यह करेगा तो फिर बड़ी मुश्किल हो जाएगी। जैसे आप परिस्थिति के बारे में यह अनुमान लगाए थे कि परिस्थिति हमारे अनुकूल हो जाएगी और नहीं हुई, तब? तब आप झल्लाते हैं, रोते और खीजते हैं। इसी तरह अगर किसी व्यक्ति ने आपके साथ में एहसान न किया हो, तब? बदला न चुकाया हो, तब? सहायता न की, तब? तब फिर आप झल्लाएँगे कि नहीं झल्लाएँगे? मत झल्लाइए, कोशिश कीजिए, शायद दूसरों को सहयोग मिल जाए। जिस सीमा तक सहयोग मिल जाए, उस सीमा तक ठीक है और अगर नहीं मिल पाता तो न सही। अगर आप यह मानकर चलेंगे तो आपकी खीझ, जो कि मनुष्य के जीवन का बहुत बड़ा दुःख है, बहुत बड़ा संकट है, उस खीझ से आप बच जाएँगे। आप खीझ से बचिए। खीझ से बचने में क्या दिक्कत है? आप अपना दृष्टिकोण बदल दीजिए न। अगर दृष्टिकोण बदल देते हैं तो मैं आपको स्वर्ग का रहने वाला कहूँगा।

दृष्टिकोण बदलिए

विधेयात्मक चिंतन क्या है? यह वह चिंतन है, जिससे कि आदमी देवता बन जाते हैं। हम क्या बनाएँगे, क्या बिगाड़ेंगे, यह विचार ही मत कीजिए। अमुक को क्या नुकसान पहुँचाएँगे, यह मत सोचिए। जो खराब आदमी है, उसको हम अच्छा बनाएँगे, सज्जन बनाएँगे, यह क्यों नहीं सोचते आप? यह आदमी खराब है, इसको हम मार डालेंगे, इसकी हत्या कर डालेंगे, यह क्यों सोचते हैं, यह मत सोचिए। आप अपना दृष्टिकोण बदलिए। आपको जो कुछ भी मिला हुआ है, वह कम नहीं है, बहुत मिला हुआ है। आपके प्रसन्न होने के लिए, हँसने और हँसाने के लिए—यह क्या कम है कि आपको इनसानी जिंदगी मिली हुई है। आप देखिए न, दूसरे जानवरों को देखिए न, दूसरे जानवरों को देखिए, कीड़े−मकोड़ों को देखिए, पशु−पक्षियों को देखिए—ये कैसी घिनौनी और कैसी जिंदगी व्यतीत करते हैं। फिर आप क्यों ऐसी जिंदगी जिएँगे?

मित्रो! भगवान ने तो आपको राजकुमार बनाया है न। आपको बुद्धि दी है न। आपको वाणी दी है न। आपको हाथ−पाँव दिए हैं न। आपकी शादी हो गई है न। आप तो घर में रहते हैं न। आपकी तो जीविका है और पहली तारीख को तनख्वाह मिल जाती है। आप रोटी खा लेते हैं न। लेकिन दूसरे जानवरों को देखिए। उन बेचारों की न कोई तनख्वाह है, न कोई नौकरी है, न कोई कपड़ा है, न कोई बोलने का ढंग है। इन सबकी तुलना में आपको कितना अधिक मिला हुआ है। आप उस पर खुशी नहीं मना सकते? आप प्रसन्न नहीं हो सकते? आपके चेहरे पर मुस्कराहट नहीं आ सकती कि जो हमारी वर्तमान परिस्थितियाँ है, उनमें हमको प्रसन्न रहने का हक है। आप तो हमेशा अभावों को सोचते रहते हैं। अभावों को सोचने को अर्थ है—नरक। अभावों को ध्यान में नहीं रखना चाहिए। उनको दूर नहीं करना चाहिए, यह तो मैं नहीं कहता हूँ। आप अगर अपने को हमेशा अभावग्रस्त, दरिद्र और कंगाल मानकर बैठे रहेंगे तो आप दरिद्र और कंगाल ही रह जाएँगे। आप अपने आप को मत दरिद्र मानिए और मत कंगाल मानिए।

दीजिए, दीजिए

मित्रो! आप यह मानकर चलिए कि आप देवता हैं। अगर आप देवता हो गए तो आप देने में समर्थ हैं। आपके पास देने को बहुत है। आपके पास अपने गुजारे के लिए भी बहुत है और देने के लिए भी बहुत है। नहीं साहब! हमारे पास पैसा बहुत कम है। तो पैसा कौन माँग रहा है आपसे? पैसा देकर आप आदमी का क्या भला करेंगे? आप दूसरों को प्यार दीजिए। लोगों की आत्माएँ किस कदर प्यार के बिना तड़पती रहती हैं। आप दूसरों को सम्मान दीजिए न। देखिए, सम्मान की कितनी प्यासी है दुनिया। आप लोगों को प्रोत्साहन दीजिए न। देखिए, आपका प्रोत्साहन पाकर छोटे −छोटे आदमी क्या से क्या बन सकते हैं! देने के लिए कुछ कम है क्या? आप अपना पसीना दे दीजिए, अपनी मेहनत दे दीजिए। आप लोगों के लिए सहानुभूति दे दीजिए। देने के लिए आपके पास कुछ भी कम नहीं है।

साथियों! आपके पास अगर देने की मनोवृत्ति हो तो आप कुछ भी दे सकते हैं। रोटी है तो उसमें से भी रोटी काटकर दे सकते हैं। ठीक है, आप अगर चार रोटी खाते हैं तो तीन रोटी खाइए, एक रोटी गरीबों के लिए बचा दीजिए। उनका हिस्सा बाँटकर दे दीजिए, फिर देखिए, वह एक रोटी, जो आपने अपनी रोटी में से बचत कर ली थी, आपके लिए कितना देवत्व लेकर के आती है। कितनी खुशी लेकर के आती है और कितनी शाँति लेकर के आती है! आप कटौती कर लीजिए। कटौती करके आप दूसरों को देने की तैयारी कर लीजिए, आपको और अधिक जरूर मिल जाएगा। एक दिन उपवास कर लीजिए और उपवास करने के बाद में जो उस दिन का अनाज बच गया, उस दिन की जो दाल बच गई, उसको आप किसी ऐसे दुखियारे के घर पहुँचा दीजिए, जिसकी उसको जरूरत है। फिर आप देखेंगे कि किस कदर से आपको शाँति मिलती है और किस तरीके से आप प्रसन्नता के नजदीक चले जाते हैं! देवता के यही गुण हैं।

रसो वै सः

मित्रो! देवता उदार होते हैं, देवता विशाल हृदय होते हैं। देवता संकीर्ण नहीं होते। देवताओं के मन में हर समय देने की इच्छा बनी रहती है कि किसके लिए क्या दे पाएँ। प्यार देना सिखाता है। सेवा उसी का नाम है। इसका नाम प्यार है। भगवान का नाम प्यार है। रसो वै सः भगवान का नाम रस है। भगवान का नाम प्यार है। प्यार, आप अपने भीतर पैदा कीजिए न। जिस दिन आप अपने भीतर प्यार पैदा करेंगे, उस दिन आपके मन में ऐसी उमंग और एक ऐसी हिलोर उत्पन्न होगी कि हमको कैसे दूसरों की सहायता करनी चाहिए? कैसे हम दूसरों की मदद करें? जब आप दूसरों की सहायता करने के लिए अमादा होंगे तो आपको अपने में से कटौती करनी पड़ेगी। तब फिर आपको साधु और ब्राह्मण का जीवन जीना पड़ेगा।

साधु और ब्राह्मण किसे कहते हैं? किफायतदार को साधु−ब्राह्मण कहते हैं। मितव्ययी को, अपरिग्रही को एवं सर्वसंतोषी को साधु−ब्राह्मण कहते हैं। आप ब्राह्मण बनिए, साधु बनिए। आप भूदेव बनिए, पृथ्वी के देवताओं में अपने नाम को लगा लीजिए। आप संत बनिए। संतों को भी भगवान कहते हैं, देवता कहते हैं। संत किसे कहते हैं? परोपकारी को कहते हैं, लोकहित में लगे हुए आदमियों को कहते हैं। समाज के लिए विसर्जित और समर्पित लोगों को कहते हैं। सत्प्रवृत्तियों में अपने आप को खपा देने वालों को संत कहते हैं। आप संत और ब्राह्मण के रूप में अगर जिएँ तो मजा आ जाएगा।

यहाँ से देवता बनकर जाइए

मित्रो! आप कैसे देवता हो सकते हैं? इसके लिए आपको संघर्ष करना पड़ेगा। मछली उलटी दिशा में चलिए। जमाने का बहाव किधर है, इस पर आप ध्यान मत दीजिए। आप संकल्प और निश्चय कीजिए कि हम सिर्फ आदर्शों की तरफ चलेंगे, ऊँचाइयों की ओर चलेंगे। आप मस्ती में रहिए और दूसरों को मस्ती से रहने दीजिए। आप खुशी से रहिए और दूसरों को खुशी से रहने दीजिए। आप जिएँ और दूसरों को जीने दीजिए। मिल−जुलकर रहिए, मिल−बाँटकर खाइए। हँसते रहिए और हँसाते रहिए। अपने फर्ज और कर्त्तव्यों के प्रति जागरुक रहिए। अगर आप इतना कर सकते हों तो आप देख लेना, आप देवता हो जाएँगे और देवत्व का सारे का सारा उदय आपके इसी जीवन में हो जाएगा। जैसी कि हम अपेक्षा करते हैं। आप इस शिविर में आए हैं, बहुत अच्छा, पर आप यहाँ से देवता बन करके जाइए। अब देवता बनना और राक्षस बनना बिलकुल आपके हाथ की बात है। आप चाहें तो हम आपको देवता बना सकते हैं और आप देवता बन सकते हैं। उम्मीद यही है कि आप ऐसा ही करेंगे। आज की बात समाप्त।

॥ॐ शाँति॥


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