सुग्रीव का राज्याभिषेक हो चुका था। वे श्रीराम के बल की प्रशंसा करते हुए कहने लगे, उन्होंने बालि जैसे बलवान को एक ही बाण से धराशायी कर दिया।
राम बोले, देखने वालों को यही लगा, परंतु बालि के दोषों ने उसको छेद−छेद कर जर्जर बना दिया था, इसीलिए सिद्धाँत के एक ही आक्रमण से वह ढह गया।
धन्वंतरि के विद्यालय में वाग्भट्ट आयुर्वेद पढ़ रहे थे। उनकी पीठ में एक भयंकर फोड़ा निकला। उपचार के लिए एक जड़ी की आवश्यकता पड़ी। गुरुदेव ने उसका नाम बताया, आकृति समझाई और वनप्रदेश में उसे खोजकर लाने के लिए भेजा।
वाग्भट्ट तीन महीने तक ध्यानपूर्वक जड़ी−बूटियाँ खोजते रहे। अनेक प्रकार की देख−समझीं, पर अभीष्ट औषधि मिली नहीं, वे वापस लौट आए।
धन्वंतरि ने विवरण सुना तो ज्ञानवृद्धि और नई खोज पर प्रसन्नता व्यक्त की।
दूसरे दिन छात्र को लेकर वे पड़ोस के खेत में गए और अभीष्ट औषधि उखाड़ लाए। सेवन कराई तो छात्र कुछ ही दिन में अच्छा हो गया। अवसर पाकर वाग्भट्ट ने गुरुदेव से पूछा,”भगवन्! औषधि तो पास में ही खड़ी थी, फिर मुझे इतने कष्टसाध्य प्रयास के लिए क्यों भेजा?”
धन्वंतरि ने कहा, “वत्स! प्रयोजन−लाभ की तुलना में ज्ञान और अनुभव का संपादन अधिक महत्त्वपूर्ण है। तुम इस कारण इतना पुरुषार्थ कर सके, वह लाभ अनायास की उपलब्धि से कहाँ मिल पाता।”