भय एक पाप है, इससे बचो

April 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भय मानव जीवन का एक आधारभूत भाव है। शरीर एवं अस्तित्त्व की रक्षा के रूप में इसकी अनिवार्यता एवं उपयोगिता स्पष्ट है, किन्तु अपने बढ़े हुए एवं अतिरंजित रूप में यह गम्भीर त्रास का कारण बनता है। सामान्य सा भय पलते-बढ़ते दुर्भीति (फोबिया) का रूप ले लेता है और व्यक्ति के सामान्य जीवन को दुभर बना देता है।

इससे ग्रसित व्यक्ति भय उत्पादक परिस्थिति की उपस्थिति की सम्भावना मात्र से ही अत्यन्त सशंकित एवं आतंकित हो उठता है और वह उस परिस्थिति से बचने की चेष्टा करता है तथा परिस्थिति के उपस्थित हो जाने पर असंगत रूप से भय व्यक्त करता है। ऐसी स्थिति में वह प्रायः दूसरों पर आश्रित रहने तथा असहायपन की भावना रखता है। इस तरह भय का दानव, मनुष्य को सशंकित, आतंकित, दीन-हीन और पराश्रित जीवन जीने के लिए बाध्य करता है।

यह भय न केवल जीवन की सामान्य क्रियाओं एवं कार्य करने की क्षमता में बाधा डालता है, बल्कि अपने उग्र रूप में व्यक्ति की सोचने विचारने की क्षमता को कुन्द कर देता है और व्यक्ति के व्यवहार को असामान्य रूप से प्रभावित कर जीवन व्यापार को विफल बना देता है। यह व्यक्ति को हताशा, निराशा एवं कुण्ठा में जीने के लिए विवश करता है।

मनोवैज्ञानिक कोमरेन के अनुसार - ‘भय अतर्किक होते हैं, किन्तु निराधार नहीं।’ वास्तव में रोगी के मन में कोई न कोई स्थिति, जिसकी जानकारी सामान्य तौर पर उसे नहीं होती, उसे अत्यन्त भयग्रस्त बनाये रखती है। व्यक्ति इनकी अतार्किकता को समझते हुए भी अपने व्यवहार को बदल नहीं पाता। किसी भी तरह का तर्क, सान्त्वना तथा प्रस्तुत किये गये अन्य प्रमाण, कि भय निराधार है, व्यक्ति को भय से मुक्ति नहीं दिला पाते। भयजन्य वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति, व्यक्ति में चिन्ता का कारण बनती है। चिन्ता का स्वरूप सामान्य बेचैनी से लेकर उग्र दौरे का रूप ले सकता है।

अतार्किक एवं अतिरंजित भय की कष्टप्रद अनुभूति के अतिरिक्त भय तरह-तरह के शारीरिक रोगों का भी कारण बनता है। सर दर्द, सर चकराना, पेट खराबी, पीठ दर्द आदि कष्ट सामान्यता इससे पैदा होते हैं। भय जहाँ असंख्य लोगों को जीवन के आनन्द व सुख से वंचित कर देता है, वहीं शरीर के प्रत्येक अंग की क्रिया पर अपना दुष्प्रभाव डालता है। यह रक्त को दूषित कर देता है। श्वाँस क्रिया में विकृति पैदा कर देता है। यह हमारे समस्त शरीर को विष पूर्ण बना देता है, हमारी शक्ति को घटाता है और हमारी सामर्थ्य को क्षीण कर देता है। वस्तुतः भय शरीर की क्रिया के लिए विष का काम करता है। यह कुछ अंगों की गति को मन्द कर देता है। इस तरह भय की उपस्थिति में शरीर के अंग अपनी क्रिया को भलीभाँति नहीं कर पाते और यदि भय तीव्र हो व दीर्घ काल तक बना रहे तो यह शरीर के अंगों को गम्भीर रूप से क्षति पहुँचा कर उन्हें बेकार कर सकता है। भीषण भय के अवाँछित प्रभाव से सभी परिचित हैं कि किस तरह यह हमारी तबीयत को खराब करता है और हम तुरन्त अस्वस्थ हो जाते हैं।

भय का अवाँछनीय प्रभाव शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को भी गम्भीर रूप से प्रभावित करता है और यह शारीरिक

निरोगिता का एक भारी शत्रु है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि भय से जितने लोग मरते हैं उतने रोगों या युद्ध से भी नहीं मरते। भय रोगों का सहायक एवं सक्रिय मित्र सिद्ध होता है। बहुत से रोगियों को इस कारण मृत्यु का शिकार होना पड़ा, क्योंकि उन्होंने निरोग होने की आशा छोड़ दी थी। भय और कार्य का पछतावा, ये दोनों बातें शरीर का घाव भरने की प्रक्रिया में बाधक होते है। सर्जन जानते हैं कि घावों को भरने में कितना समय लगता है, किन्तु जब रोगी भयग्रस्त होता है, तब वे यह बताने में असमर्थ हो जाते हैं कि घाव कितने दिनों में भरेगा।

इस तरह भय का दानव, जीवन की समस्त सुख-शान्ति, स्वास्थ्य-निरोगिता एवं प्रगति-उन्नति को मनुष्य से छीन लेता है और मनुष्य को अनेक तरह से दुःख और त्रास देता है। भय के कारण हमें बाहर परिस्थितियों, व्यक्ति या वस्तु में दीखते हैं, किन्तु यथार्थ में कारण भीतर मन में होता है। मनोविशेषज्ञों के अनुसार भय, कमजोर मन की उपज होता है। भय कायर मन की प्रतिकृति होता है। भीरु मनुष्य की आन्तरिक दुर्बलता इस समाज संसार के दर्पण में विपत्ति बनकर प्रतिबिम्बित होती है। संकट का सामना करने की, उससे उलझने निपटने की क्षमता हममें नहीं है, ऐसा मान लेने के बाद ही भय आरम्भ होता है। हेलेन क्रेम के शब्दों में भय, व्यक्ति की अपनी अध्यात्मिक, चारित्रिक अथवा शारीरिक दुर्बलता की स्वीकृति है। दूसरे शब्दों में यह आत्मा, मन या शरीर की हार है। भय का अर्थ है-इच्छा के अनुसार कार्य करने की अशक्ति या असमर्थता। जब हम भय से ग्रस्त होते हैं, तब हम भय को अपने ऊपर अधिकार करने देते हैं।

वास्तव में भय की अपने में कुछ भी शक्ति नहीं होती, इसे हम अपनी शक्ति देकर बल देते हैं। यदि हम इसे अपने से प्रबल न मानते तो इसके पास अपनी तनिक भी शक्ति नहीं थी कि यह हमारे ऊपर भूत की तरह सवार हो जाता। हम जिन वस्तुओं, घटनाओं, बातों या व्यक्तियों से डरते हैं, उन्हें हम शक्ति देते हैं। हम जिस बात की चिन्ता करते हैं, उससे हमारी चिन्ता ही सबल होती है। हम किसी दुर्घटना की आशंका करके उसे प्रबल बनाते हैं। कुछ अनहोनी या दुर्भाग्यपूर्ण घटना का विश्वास ही हमारे लिए दुर्भाग्य लेकर आता है। यही कारण है कि जो लोग असफलता से भयभीत होते हैं, वे असफल ही हो जाते हैं। और यह प्रकृति का नियम है कि जिस वस्तु से हम डरते हैं, उसे हम अपनी ओर आकर्षित करते हैं। वस्तुतः भय का अतिरंजित रूप सामान्यता हमारे दीर्घकालीन प्रश्रय का परिणाम होता है, जिसके अंतर्गत हम भय जन्य परिस्थितियों से पलायन में अपनी सुरक्षा व शान्ति की खोज कर रहे होते हैं।

‘मेनेज यूअर माइण्ड’ के मनोविद् जी. बटलर एवं टी. होप के अनुसार जितनी बार हम भय से बचने का प्रयास करते हैं, उतनी ही बार यह और पुष्ट होता है और हमारे आत्मविश्वास की जड़ों को दुर्बल बनाता है। जीवन की विषम एवं चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों से बचाव का यह रुख क्रमशः पलायन का एक ऐसा मनोवैज्ञानिक कुचक्र तैयार करता है, जो कैंसर की तरह जीवन के हर क्षेत्र में प्रसारित होकर, व्यक्ति को शारीरिक एवं मानसिक रूप से कुण्ठित एवं पंगु बना देता है।

भय कारक स्थिति से बचाव के विविध तरीकों का जिक्र करते हुए ये मनोविशेषज्ञ कहते हैं-एक तो हम सामान्य रूप में प्रत्यक्षतः उस स्थिति से बचते हैं और हमें यह बोध रहता है कि हम भय से भाग रहे हैं। दूसरा अप्रत्यक्ष तरीका है जिसमें हमें अपने पलायन का बोध नहीं रहता। किन्तु भय के उपचार हेतु इन सूक्ष्म तरीकों का बोध होना जरूरी है। ये तरीके हैं- (1) काम को टालते जाने की दीर्घसूत्रता, (2) चुनौतीपूर्ण कार्य को स्वीकार न करना, (3) विश्वसनीय व्यक्ति के समक्ष भी अपने भय को व्यक्त न करना, (4) अन्य कार्यों में व्यस्त रहना ताकि भयजनक समस्या पर विचार का मौका ही न मिले, (5) दूसरों की आड़ में, सुरक्षा में या आश्रय में रहना आदि। इस तरह की विविध युक्तियाँ भय से बचाए रखती हैं, और तत्कालिक राहत देती हैं किन्तु भय का भूत और बलशाली होता जाता है।

जबकि भय से मुक्ति का एक मात्र तरीका उसका साहसपूर्ण सामना है। प्रख्यात् हंगेरियन मनोवैज्ञानिक फेरेंज नैडेस्डी, अपनी पुस्तक ‘फीयर आर फ्रीडम’ में लिखते हैं कि वास्तविक शान्ति और भयमुक्ति तभी सम्भव है जब इसके निमित्त कारण अपने मन को बलवान बनाया जाय। वटलर एवं होप के अनुसार यह कार्य सुविचारित रणनीति एवं योजना के तहत क्रियान्वित किया जाये तो ही भय के अनिष्टकारी प्रभाव से हम सदैव के लिए निजात पा सकते हैं। जबकि सीधा-सीधा सामना, अवाँछनीय परिणाम ला सकता है। भय के दैत्य से सीधी टकराहट गम्भीर प्रतिक्रिया को जन्म दे सकती है जो हमारे मनोबल को तोड़कर हताशा-निराशा की स्थिति में पटक सकती है। अतः क्रमशः बढ़ती कठिनाई की सीढ़ी चढ़ते हुए ही इस भय का सफल सामना एवं समाधान वाँछनीय है।

इसकी शुरुआत हम भय की थोड़ी सी उद्विग्न करने वाली स्थिति से कर सकते हैं। तब तक इसमें रहने का अभ्यास करें, जब तक कि बेहतर अनुभव न करें। तदुपरांत भय उत्पन्न करने वाली और कठिन परिस्थिति में अपना अभ्यास दोहराएँ। इस तरह क्रमशः सफलता की नई सीढ़ियाँ चढ़ते हुए भय के भूत को काबू में किया जा सकता है। इसके लिए नियमित रूप से हर दिन का अभ्यास अनिवार्य है। नियमित अभ्यास के परिणाम स्वरूप ही सफलता सुनिश्चित होगी। यदि किसी कारण वश ऐसी परिस्थिति उपलब्ध न हो सके तो एकान्त में भी भय उत्पादक स्थिति की कल्पना द्वारा अनुभूति करते हुए, कल्पना में ही इसका अभ्यास कर सकते हैं। ‘विजुअलाइजेशन’ की यह तकनीक स्वयं में एक सबल साधन है। वास्तव में भय से मुक्ति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य इससे पलायन की दुरभिसंधि से उत्पन्न कुचक्र को तोड़ना है। इसके लिए बचाव के सामान्य एवं सूक्ष्म तौर तरीकों की समीक्षा करते रहना आवश्यक है।

इस दौरान नकारात्मक भावों से सावधान रहना बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि अवचेतन मन इनको सीधा ग्रहण करता है और भय को और बल देता है। मैं कर सकता हूँ का भाव यदि पुष्ट रूप से संप्रेषित हो सके तो मन में भय से मुक्ति का मार्ग बहुत सरल हो जायेगा। इस तरह के पुष्ट संकेतों के साथ छोटे-छोटे सफल प्रयास आत्मविश्वास को सबल बनायेंगे। मैं नहीं कर सकता हूँ , के पलायनवादी भाव की जगह मैं इसे कैसे कर सकता हूँ, का विचार भय को जड़ से उखाड़ फेंकने में कारगर सिद्ध होता है। इसी के साथ भय से मुक्ति पाने की बेहतर रणनीति एवं योजना अनुसरित होती है।

इस तरह भय का भूत जो हमारे स्वभाव में बैठा है, हमारे आत्मविश्वास की शक्ति को पंगु बनाये हुए है, हमारी तमाम शक्तियों, क्षमताओं एवं सम्भावनाओं को नकारा बनाए हुए है, इसका जड़मूलोच्छेदन जीवन की सार्थकता, सफलता एवं पूर्ण विकास के लिए तत्काल अपेक्षित है। यदि हम भय के भूत को पोषण करने वाली बचाव एवं पलायन की आन्तरिक दुरभिसंधियों को समझने के लिए व भय का सामना करने के लिए कृतसंकल्पित हो जायँ, तो समझ सकते हैं कि भय से मुक्ति की आधी लड़ाई हमने जीत ली। शेष कार्य अध्यवसायपूर्वक किये जाने वाले सतत् प्रयास-पुरुषार्थ द्वारा सुनिश्चित होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118