कम्बोज के राजा विंगमिंग अपने राज्य के लिए किसी धर्म−पुरोहित की खोज में थे।
तीर्थाटन करते हुए एक विद्वान राजदरबार में पहुंचे और बोले,”मैं त्रिपिटकाचार्य हूँ। मैंने बौद्ध धर्म का गहन अवगाहन किया है। राज्य−पुरोहित के रिक्त स्थान को भरने की अपने में मैंने क्षमता देखी, सो उस पद को पाने के लिए आपकी सेवा में चला आया।”
राजा ने त्रिपिटकाचार्य का यथोचित सम्मान किया और कहा,”आपने जो पढ़ा है, कृपया उसे एक बार फिर पढ़ें और मनन करें, तब आपको वह पद सौंपने का प्रसंग बनेगा।”
आचार्य को बहुत क्रोध आया। यह उनकी विद्या का मखौल था। तो भी राजा से झगड़ने की अपेक्षा एक वर्ष का समय निकाल देने में उनने बुद्धिमानी समझी।
दूसरे वर्ष फिर वे पहुँचे। राजा ने एक वर्ष के लिए धर्म का और अधिक मनन−चिंतन करने की बात कहकर टाल दिया।
पुरोहित को बहुत खीज आई और वे दरबार में जाने की अपेक्षा तक नदी तट पर एकाँतसेवन की उपासना करने लगे।
राजा टोह लेते रहे। नई कार्यपद्धति की सूचना पाकर वे दरबारियों समेत उन्हें चलने का आग्रह करने पहुँचे।
अबकी बार पुरोहित ने कहा,”अप्प दीपो भव! अर्थात् अपने को दीपक बनाओ, ताकि उपदेश से नहीं, चरित्र से लोग प्रकाश ग्रहण कर सकें।”
राजा ने कहा,”इसी विशेषता वाले सच्चे धर्मोपदेशक होते हैं। आपको उस स्थिति तक पहुँचा देखकर हम सब निमंत्रित करने आए हैं।”