राजा के दरबार में एक वृद्ध पहुँचा और बोला, “भगवन्! मैं आपका मौसेरा भाई हूँ। कभी आपकी तरह मैं भी था। 32 नौकर थे, एक−एक करके चले गए। दो मित्र थे, वे भी साथ चलने से कतराने लगे। दो भाई हैं, सो बड़ी मुश्किल से थोड़ा−बहुत काम करते हैं। पत्नी भी उलटे−सीधे जवाब देती है। मेरी मुसीबत देखते हुए यदि आप कुछ सहायता कर सकें तो कर दें।”
राजा ने उसका आदर किया और रुपयों की एक थैली थमा दी। सभासदों ने साश्चर्य कहा, “यह दरिद्री आपका मौसेरा भाई कैसे हो सकता है!”
राजा ने कहा, “इसने मुझे मेरे कर्त्तव्यों का ज्ञान कराया है। इसके मुँह में मेरी ही तरह 32 दाँत थे, सो भी उखड़ गए। दो पैर मित्र थे, सो डगमगा गए। दो भाई हाथ हैं, जो अशक्त होने के कारण थोड़ा−बहुत ही काम करते हैं। बुद्धि इसकी पत्नी थी, सो वह भी अब सठिया गई है, कुछ−का−कुछ जवाब देती है। मेरी माँ अमीरी और उसकी गरीबी है। ये दोनों बहनें हैं, इसलिए हम दोनों मौसेरे भाई हैं। वृद्ध का कहना गलत नहीं है।”
इन संकेतों में राजा ने स्वयं के लिए एक संदेश पाया और अपना शेष समय सत्कार्यों में, प्रजाजनों के कल्याण हेतु नियोजित करने का संकल्प लिया।