गुरुकथामृत−36 - साधना की धुरी पर संगठन बनाने का शिक्षण

October 2002

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इस संगठन−सशक्तीकरण वर्ष में हम सारे भारत व विश्वभर में फैले अखिल विश्व गायत्री परिवार के सुगठन, सुव्यवस्थित कार्यपद्धति के निर्धारण पर चिंतन कर रहे हैं।

अपनी यात्रा के 75 वर्ष पूरे कर 76वें वर्ष के उत्तरार्द्ध में चल रहा यह संगठन जब भी कभी संगठनात्मक क्रिया−पद्धति के लिए मार्गदर्शन चाहेगा, तो उसे उन्हीं सूत्रों की ओर लौटना होगा, जो हमारी गुरुसत्ता ने निर्धारित किए थे। समय−समय पर उनका दिशाबोध याद आता है एवं स्मरण पटल पर आ जाते हैं वे पत्र, जो वे परमवंदनीय माताजी को अपने शक्तिपीठ उद्घाटन प्रवास पर प्रतिदिन, कभी−कभी तो एक दिन में 2 या 3 अपनी व्यस्त दिनचर्या के बीच लिखते थे। जो प्रवास पर चले हैं, बाहर के क्षेत्रों के कार्यक्रमों में गए हैं, वे जानते हैं कि कितनी अस्तव्यस्तताओं से भरा यह समय होता है। न सोने का निश्चित समय, न विश्राम की अवधि। प्रायः दो−तीन घंटे ही सोने को मिल पाता है व शेष गाड़ी में चलते−चलते किसी तरह थकान मिटाने का प्रयास किया जाता है। जहाँ साक्षात् गुरुसत्ता स्वयं साधना स्वर्ण जयंती वर्ष संपन्न कर चुके इस मिशन के सूत्रधार के रूप में प्रवास पर निकली हो, वहाँ तो भीड़ का उमड़ना स्वाभाविक ही था।

ऐसी ही कुछ प्रवास की घड़ियों में शाँतिकुँज के कार्यकर्त्ताओं को उनके माध्यम से किसी भी संगठन की कार्यकर्त्ता शक्ति को संबोधित ये पत्र एक प्रकार से एक प्रशिक्षण−पाठ्यक्रम की भूमिका निभाते हैं। कितनी चिंता परमपूज्य गुरुदेव को बाहर मीलों दूर रहते हुए भी केंद्र की, सक्रिय रचनात्मक गतिविधियों की एवं विभिन्न योजनाओं की रहती थी, उसके साक्षी हैं ये पत्र। इन दिनों शाँतिकुँज में ऊर्जा जागरण सत्र चल रहे हैं, जिनमें 5-5 दिन की मौन साधना की जाती है। ये यथार्थतः पाँच दिवसीय प्राण प्रत्यावर्तन साधना के ही संशोधित संस्करणों के रूप में हैं। फर्क इतना ही है, उस समय परमपूज्य गुरुदेव परमवंदनीय माताजी का प्रत्यक्ष मार्गदर्शन साधकों को उपलब्ध था, अब सूक्ष्म संरक्षण एवं दिशा निर्देश उपलब्ध होते हैं। जितनी गहराई से चिंतन करके पूज्यवर ने इन सत्रों का प्रावधान बनाया था, लगभग उसी स्तर पर 1980−81 में आरंभ किए गए चाँद्रायण साधना सत्रों के विषय में भी सोचा था। परमपूज्य गुरुदेव इसी विषय पर अपने गुजरात प्रवास में महुआ से 5-11-81 को एक पत्र में परमवंदनीया माताजी को लिखते हैं−

चि. भगवती आशीर्वाद

हर दिन चिट्ठी लिखने का सिलसिला अभी नहीं बैठा है। एक−दो दिन में बैठ जाएगा। हमारा भावनगर से लिखा प− मिला होगा। स्वास्थ्य ठीक है। कार्यक्रम सफलता पूर्वक चल रहे हैं।

चाँद्रायण सत्र एकदम नए हैं। साथ ही अत्यधिक महत्वपूर्ण, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक एवं दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाले भी। इनका स्वरूप वैसा ही रहे जैसा कि सोचा और छाया गया है। सभी कार्यकर्त्ता उन्हें मिलजुलकर वैसा ही बनाएँ। संख्या थोड़ी हो तो हर्ज नहीं। स्तर उपेक्षा भरा एवं अस्त−व्यस्त नहीं रहना चाहिए। इस ओर अधिक ध्यान देने, अधिक कल्पना करने और अधिक तत्परता नियोजित करने की आवश्यकता है। सब लोग वैसा ही करेंगे भी, ऐसी आशा है। सब को आशीर्वाद − श्रीराम शर्मा

क्षेत्रीय दौरों पर होते हुए भी यह पत्र पूज्यवर की चांद्रायण साधना सत्रों के क्रियान्वयन संबंधी व्यग्रता को बताता है। वे वहाँ भी यही चिंतन कर रहे थे कि कैसे इनका स्तर ऊँचा हो, कैसे अधिकाधिक व्यक्ति गुणात्मक दृष्टि से अच्छे इसमें भागीदारी करें। वे कहते हैं कि यह सत्र दूरगामी परिणामों को जन्म देंगे। इनसे साधक स्तर के लोकसेवी कार्यकर्त्ता निकलेंगे। अगर अन्यमनस्कता के साथ वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं ने इस शिक्षण को लिया तो वह परिणाम नहीं मिलेंगे

जो अपेक्षित हैं। चैतन्यता−जागरुकता एवं दूरदर्शी विवेकशील के साथ दिया गया परामर्श इस पत्र को विशिष्ट बना देता है एवं हमें इस मिशन रूपी वटवृक्ष की धुरी साधना के बहुआयामी पक्षों पर चिंतन करने को विवश करता है। आज भी हम साधना की धुरी पर ही संगठन के सशक्त होने की बात कह रहे हैं। ऐसी स्थिति में आगे के पत्र भी हमारा इसी इसी प्रकार मार्गदर्शन करते दिखाई देते हैं। ये बताते हैं कि सूक्ष्म से जानने की सामर्थ्य होते हुए भी हमारी गुरुसत्ता प्रत्यक्ष में मात्र शिक्षण हेतु किस तरह अपनी भावनाएँ प्रेषित करती थी। अमरेली से लिखे 6-11-81 के (पिछले पत्र के मात्र एक दिन बाद) पत्र में वे लिखते हैं−

कार्यकर्त्ता सत्र में इन दिनों कितने छात्र हैं? चाँद्रायण में आने वालों के कितने आवेदन आए? कितने पहुँचे और दोनों सत्रों के नए निर्धारणों के अनुरूप ढालने में कितनी दिलचस्पी ली गई? कितनी तत्परता बरती गई? यही जानने को मन रहता है। आशा है कि कहीं−न−कहीं विवरण पत्र मिल ही जाएगा, सब लोग अपनी जिम्मेदारी समझेंगे और निबाहेंगे, तो एक भी काम अधूरा न रहेगा, ऐसा विश्वास है।

पत्र की भाषा, उसमें व्यक्त की गई जिज्ञासा एवं पूछे गए प्रश्न बताते हैं कि परमपूज्य गुरुदेव कितना अधिक व्यग्र थे स्तर बढ़ाने के लिए। वे चाहते थे कि हर कसौटी पर कसकर पूरी दिलचस्पी लेकर साधना सत्रों के नए निर्धारण लागू कर दिए जाएँ। सभी जिम्मेदारी से अपना−अपना कार्य (शिक्षण−व्यवस्था संबंधी) करते रहें तो वह उद्देश्य पूरा हो जाएगा जिसके लिए साधकों को बुलाया गया है। मिनी चाँद्रायण के छोटे सत्रों के साथ−साथ ये चाँद्रायण सत्र पूरे एक माह (28 दिन) के थे। इनमें दिनचर्या, आहार नियोजन से लेकर साधना की विशिष्टता सभी बड़े महत्वपूर्ण पक्ष थे। उन्हीं दिनों गुरुसत्ता के निर्देश पर एक पुस्तक भी लिखी गई थी, आँतरिक कायाकल्प का सुनिश्चित विधान। परमपूज्य गुरुदेव चाहते थे कि ये चाँद्रायण तप−साधना वाले सत्र साधकों को प्रायश्चित, क्षतिपूर्ति तथा आँतरिक परिशोधन द्वारा परिपूर्ण कायाकल्प का अवसर दें। इसीलिए वे अपने लंबे प्रवास पर समुचित मार्गदर्शन क्षेत्र से बैठकर कर रहे थे। प्रत्येक पत्र पर नंबर अंकित रहता था। उस प्रवास का यह कौन क्रमाँक है, यह भी उसमें होता था, ताकि सभी को स्मृति रहे कि कौन−कौन से पत्रों पर कितना अमल हो गया। उपर्युक्त दोनों पत्र क्रमशः 2 व 3 नंबर के थे।

अगला पत्र आदित्याना (पोरबंदर) से 8-11-81 को लिखा गया, जिसका क्रमाँक 5 था, वे लिखते हैं।

चाँद्रायण में आदमी कम आएँ या अधिक उसका स्तर ऊँचा होना चाहिए। शिक्षण, संपर्क, व्यवस्था के अतिरिक्त हम लोगों की पूरी दिलचस्पी उसमें होनी चाहिए। छोटा सत्र होने से हम लोगों के अभ्यास की सुविधा रहेगी। इन्हें क्वालिटी का बना सकें, तो ही भविष्य में जनता आकर्षित होगी। लकीर पीटने से बेचारे चले तो जाएँगे, पर वे न स्वयं लाभ उठा सकेंगे, न हमारी योजना कल्पना पूरी करने में सहायता करेंगे। इस तथ्य को ध्यान में रखना।

उस पत्र में भी भाषा वही है। स्वयं समझा जा सकता है कि विशिष्ट सत्र शृंखला पर उनका कितना ध्यान था। वे एक बात लिखते हैं, जो कि ध्यान देने योग्य है दिलचस्पी। जब तक किसी कार्य में दिलचस्पी, अपनापन नहीं जोड़ा जाएगा, उसमें वह कौशल−सौंदर्य नहीं दिखाई देगा। दूसरा शब्द है लकीर पीटना। किसी तरह येन−केन−प्रकारेण सत्र निपटा दिया जैसा कि आम संगठनों में होता है, तो यही होगा कि साधकों का समय नष्ट होगा व आयोजकों की योजना टायँ−टायँ फिस्स हो जाएगी। साधना से जुड़े परिजनों के लिए एक सशक्त मार्गदर्शन है।

इसके पश्चात् हम पूज्यवर के क्रमाँक 9 के डीसा से लिखे 12-11-81 के पत्र पर परिजन−पाठकों का ध्यान केंद्रित करना चाहेंगे। वे प्रारंभिक जाँच−पड़ताल के बाद लिखते हैं−

हरिद्वार ही हर गतिविधि का स्तर अब हर दृष्टि से ऊँचा उठा देना चाहिए। वस्तुतः व्यवस्था, कार्यपद्धति एवं कार्यकर्त्ताओं की सतर्कता जैसी बातों का नए सिरे से पर्यवेक्षण और परिवर्तन करना पड़ेगा। हम इन दिनों इन्हीं बातों पर बारीकी से तथा विस्तार से विचार करते रहते हैं। जो सोचा है, उसे लौटने पर ही बताएँगे। संक्षिप्त पत्र में उतना लिख सकना संभव नहीं। तुम लोग अपने सोचने के क्रम में उपर्युक्त परिवर्तन के समावेश के लिए गुँजाइश बनाना अभी से आरंभ करना। घटिया स्वरूप बनाए रहने पर, घटिया लोगों के साथ, घटिया स्तर की सिरफोड़ी ही जीवनभर करनी होगी और अंततः हमारे सारे प्रयत्न घटिया होते−होते बेमौत मर जाएंगे, अस्तु परिवर्तन जरूरी है। वह कैसे हो, कितना हो, इस विषय पर लौटने पर ही चर्चा संभव हो सकेगी। बड़े कदम उठाने की तैयारी रखनी चाहिए। साथ ही बड़ी जिम्मेदारी उठाने की भी। इसके लिए हर जिम्मेदार कार्यकर्त्ता की मनोभूमि तैयार करनी चाहिए।

उपर्युक्त पंक्तियाँ अभी पाठकों के चिंतन−मनन हेतु प्रस्तुत कर दी गई हैं। अब इनकी समीक्षा व क्यों व किन परिस्थितियों में यह सब लिखा गया, इसके आगे का उनका मार्गदर्शन क्या रहा, यह अगले अंक में पढ़ सकेंगे। अभी इतना ही।

क्रमशः

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