बहिरंग नहीं, अंतरंग की सफाई

October 2002

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‘स्वच्छता मनुष्य जीवन का सार है।’ इसलिए हे भिक्षुओं! स्वच्छ रहो, साफ-सुथरे रहो। वर्षों पहले भगवान् तथागत ने जेतवन में भिक्षु संघ को यह उपदेश दिया था। अनेकों भिक्षुओं ने उनके इन वचनों को एक साथ सुना। लेकिन एक साथ सुनने पर भी उन सबके समझने के तरीके अलग-अलग थे। किसे ने समझा कि भगवान ने कहीं गन्दगी देखी होगी, किसी भिक्षु के चीवर को मैला-कुचैला देखा होगा, इसलिए उन्होंने स्वच्छता की बात समझाई है। किसी ने सोचा कि भगवान् अपने प्रवचन में नियमित रूप से कुछ अच्छी बातें बताते हैं, यह सूत्र भी उनके इसी उपक्रम का एक हिस्सा है। भिक्षुओं में कई ऐसे भी थे, जिन्होंने तथागत की बातों को सुनकर सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझी। वे पहले की भाँति अपने नियमित कार्यों में लगे रहे।

परन्तु दो भिक्षु ऐसे थे, जिनका समूचा जीवन अपने शास्ता की बातों को सुनकर आमूल-चूल बदल गया। हालाँकि इनमें से एक का बदलाव सभी को साफ-साफ नजर आया। दूसरे के बदलाव से सभी अनजान रहे। उनकी ओर किसी ने थोड़ा सा भी ध्यान देने की कोशिश नहीं की। बल्कि वह पहले से भी ज्यादा अपने साथी भिक्षुओं के लिए अनजान होते गए। धीरे-धीरे भिक्षु संघ के सदस्य उनका नाम भी भूलने लगे। इसके ठीक विपरीत पहले भिक्षु का नाम सभी की जिह्वा पर आ गया। सब ओर उनके नाम की चर्चा होने लगी। भिक्षु समंजनी सबकी चर्चा का विषय बन गए।

स्वच्छता उनकी सनक बन गयी। सफाई का उन्हें पागलपन चढ़ गया। साफ-सुथरे रहने की उन्हें धुन पकड़ गयी। चौबीसों घण्टे वह बस झाड़ू लिए घूमते रहते। इधर जाला दिखाई पड़ गया, उधर कचड़ा दिखाई पड़ गया, बस सफाई ही सफाई। जैसे-तैसे जिस किसी तरह यदि झाड़ू उनके हाथों से छूटी भी तो कपड़े धोने या नहाने के लिए बैठ जाते। दूसरे अन्य भिक्षु उनकी इस आदत पर हँसते-उनका मजाक बनाते, पर समंजनी पर उनमें से किसी बात का कोई असर नहीं था। वह हर हमेशा बस अपनी धुन में जुटे रहते।

संघ के अन्य भिक्षुओं ने उनका नाम भदन्त झाड़ू स्थविर रख दिया। उनको लेकर सभी ने अनेकों कटूक्तियाँ, व्यंग एवं उपहासपूर्ण शब्दावली रच डालीं। पर समंजनी इस सभी से बेअसर रहे। उन पर अपनी व्यंगोक्तियों का किसी भी तरह से कोई भी असर पड़ते न देखकर भिक्षुओं ने एक नया तरीका खोज निकाला। अब से उनसे अपने कक्षों एवं वस्त्रों की सफाई कराने लगे। सारे दिन वे सब उन्हें व्यंगपूर्ण ढंग से पुकारते हुए कहते, अरे भदन्त झाड़ू स्थविर! तनिक मेरे कक्ष की सफाई कर देना, अथवा फिर मेरे चीवर धुल देना। समंजनी बड़े ही निर्विकार भाव से अपने साथियों के सारे काम कर देते। किसी के भी कटु व्यवहार पर उन्हें कोई भी क्षोभ अथवा रोष न था।

अपनी इस दिनचर्या के साथ जीते हुए उन्हें दस वर्ष बीत गए। हाथों में झाड़ू और मन में सफाई की धुन बस यही उनके जीवन का पर्याय बन गयी। सबकी नजरों से उपेक्षित और ओझल हो चले भिक्षु रेवत भी पिछले दस वर्षों से अपनी धुन में लगे थे। सफाई उनका भी ध्येय था, पर बाहरी नहीं आन्तरिक। जब से भगवान् बुद्ध ने स्वच्छता को मनुष्य जीवन का सार बताया था, वह भी जुट गए थे। उनके जीवन का हर पल मन-अन्तःकरण को निर्मल-निर्विकार बनाने के लिए समर्पित हो गया था। इन दस सालों में उनकी इन्द्रियाँ ही नहीं चित्तवृत्तियाँ भी निर्मल हो गयी थीं। वह भगवान् के वचनों की सार्थकता से अवगत हो चले थे। स्वच्छता की शुभ्र ज्योति उनके मुख पर प्रकाशित हो चली थी। एक अवर्णनीय आभा से उनका आनन दीप्त हो चला था।

एक दिन भिक्षु रेवत जब ध्यान से उठकर भगवान् को प्रणाम करने जा रहे थे, तब उन्होंने समंजनी को हाथों में झाड़ू लिए सफाई करते हुए देखा। साथ ही वे कटूक्तियां एवं व्यंगोक्तियाँ भी सुनी जो भिक्षुगण उनके लिए कह रहे थे। रेवत के मन में समंजनी के प्रति अपार करुणा का उद्रेक हो आया। वह सोचने लगे कि समंजनी की प्रज्ञा भले ही अभी प्रकाशित न हुई हो, पर उसकी निष्ठ अविचल है। तभी तो वह बिना किसी के व्यंग एवं कटूक्ति की परवाह किए शास्ता के वचनों का अक्षरशः पालन किए जा रहा है। यदि इसे भगवान् के वचनों का मर्म पता चल सके, तब तो इसका सम्पूर्ण जीवन ही बदल जाएगा।

यही सोचकर रेवत, हाथों में झाड़ू लिए समंजनी के पास जाकर खड़े हो गए और बड़े ही मृदु शब्दों में कहने लगे- आपुस, भिक्षु को सदा बाहर की सफाई ही नहीं करते रहना चाहिए। बाहर की सफाई ठीक है, तो सुबह कर ली, साँझ कर ली, बाकी चौबीस घण्टे यही काम। इस झाड़ू की सफाई से तुम निर्वाण नहीं प्राप्त कर सकोगे। कुछ ध्यान भी करो, कुछ भीतर की सफाई भी करो। कुछ भीतर की झाड़ू भी उठाओ। कभी ध्यान भी किया करो। कभी थोड़ी देर शान्त भी बैठा करो, कभी विश्राम के लिए अपने अन्तस् में जाया करो। अरे कभी अपने भीतर भी तो झांको। भीतर की सफाई ही असली सफाई है। यह कब करोगे? या फिर सारा जीवन ऐसे ही बिता देना है।

रेवत की बातें हृदय से निकली थीं। हृदय से निकली हुई बातें हृदय में चोट करती हैं। आज दस सालों बाद समंजनी के हृदय में चोट लगी। उसे बोध हुआ, होश आया। इतने वर्षों बाद उसे भी हास्यास्पद लगा कि मैं क्या करता रहा। अचानक जैसे नींद टूटी। तन्द्रा की जैसे मोटी पर्त आँखों से गिर गयी। बाहर नहीं जैसे भीतर की आँख अचानक खुल गयी। जैसे सुबह कोई रात का सोया हुआ जागे और सारे सपने खो जाएँ।

दूसरे दिन उन्हें झाड़ू न लगाते देखकर अन्य भिक्षु परेशानी में पड़ गए। किसी को समझ में ही न आ रहा था कि समंजनी और झाड़ू नहीं लगा रहे। थोड़ी बहुत देर तक तो सभी ने कारणों की खोज की। पर ज्यादा देर तक उनसे शान्त न रहा गया। वे सब उनके पास पहुँच गए और कहने लगे- समंजनी स्थविर, आज आपके हाथों में झाड़ू कहाँ गयी? अचानक आपके स्वभाव में यह परिवर्तन कैसा? आप होश में तो हैं, आपकी तबियत तो ठीक है न? कहीं आप कुछ बीमार तो नहीं हो गए। देखो तो आपके इस तरह बैठे रहने से जगह-जगह कितना कूड़ा इकट्ठा हो गया है, कितने सारे मकड़ी के जाले लग गए हैं।

भिक्षुओं के इन व्यंग वचनों पर समंजनी खिलखिलाकर हँस पड़े और बोले- भन्ते, सोते समय मैं ऐसा करता था, लेकिन अब मैं जाग गया हूँ। मेरा प्रमाद छंट गया है। अप्रमाद का अब मुझमें उदय हुआ है। मुझे यह बात समझ में आ गयी है कि बाहर की सफाई सुबह-साँझ करना ही काफी है। शेष समय भीतर की सफाई। ऐसा कहकर समंजनी फिर से ध्यान में लीन हो गए।

आश्चर्यचकित भिक्षुओं ने यह बात जाकर भगवान् बुद्ध को बतायी। बुद्ध ने मुस्कराते हुए कहा- हाँ भिक्षुओं, पहले मेरा वह पुत्र प्रमाद के समय ऐसा करता था। लेकिन अब वह जाग गया है। अब वह प्रमाद से छूटकर अपने व्यर्थ के विक्षिप्त व्यवहार से मुक्त हो गया है। भिक्षुओं को इस तरह समझाते हुए भगवान् ने यह धम्मगाथा कही-

पो च पुब्बे पमज्जित्वा पच्छा सो नप्पमज्जति। सो’ मं लोकं पमासेति अष्भामुत्तो व चंदिमा॥

‘जो पहले प्रमाद करके पीछे प्रमाद नहीं करता, वह मेघ से मुक्त चन्द्रमा की भाँति इस लोक को प्रकाशित करता है।’

भगवान् की इस धम्मगाथा का मर्म भिक्षुओं को शीघ्र ही समंजनी के जीवन में स्पष्ट होने लगा। अपने आन्तरिक जीवन की सफाई में जुटे समंजनी की निर्मल चेतना सचमुच ही मेघों से मुक्त चन्द्रमा की भाँति समूचे भिक्षु संघ को प्रकाशित करने लगी थी।


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