अपनों से अपनी बात−1 - गायत्री तपोभूमि के स्वर्ण जयंती वर्ष की एक महत्वपूर्ण स्थापना

October 2002

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सारा भारत की तपोभूमि बने, यही एकमेव संकल्प

गायत्री तपोभूमि मथुरा के अखिल विश्व गायत्री परिवार रूपी विराट शरीर में वही स्थान है, जो हृदय का होता है। परमपूज्य गुरुदेव 1941 में मथुरा आए, 1952 में चौबीस महापुरश्चरणों की समाप्ति पर उन्होंने अपनी साधना स्थली का चयन इसी स्थान के रूप में गीता जयंती पर किया। 1953 की गायत्री जयंती पर गायत्री तपोभूमि के छोटे से परिसर में गायत्री जयंती पर गायत्री तपोभूमि के छोटे से परिसर में गायत्री महाशक्ति के विग्रह को स्थापना हुई। इसके साथ ही यहाँ एक 108 कुँडीय यज्ञ भी संपन्न हुआ, जिसमें परमपूज्य गुरुदेव ने अपने साधना गुरु श्री सर्वेश्वरानंद जी महाराज के निर्देशानुसार चौबीस महापुरश्चरणों (प्रत्येक चौबीस लक्ष के) की पूर्णाहुति भी संपन्न की। तीन वर्ष बाद यहीं पर नरमेध यज्ञ संपन्न हुआ तथा 1958 में 1008 कुँडी वाजपेय स्तर के गायत्री महायज्ञ के संपन्न होने के साथ गायत्री परिवार का एक विराट संगठन साधना की धुरी पर बनकर खड़ा हो गया।

साक्षी है अखण्ड अग्नि में भारत व विदेश के अनेकानेक साधकों के संकल्पों की, उनकी भावपरक आहुतियों की। यह अखण्ड अग्नि त्रियुनी नारायण (केदार क्षेत्र हिमालय) से लाई गई थी। शिव−पार्वती विवाह के समय से सतत प्रज्वलित यह दिव्याग्नि कितना महत्व रखती है, यह शब्दों में लिखा नहीं जा सकता।

1941 से 1971 तक, हिमालय के लिए विदाई लेने से पूर्व तीस वर्ष तक ही एक लंबी अवधि परमपूज्य गुरुदेव द्वारा पावन तीर्थनगरी मथुरा में एक कर्मभूमि के रूप में व्यतीत हुई है। इसमें भी 1952 से 1971 तक का प्रायः बीस वर्षों का समय गायत्री तपोभूमि के साथ उनकी हर श्वास के साथ बीता है। लगभग इतना ही समय (1971 से 1990) वे शाँतिकुँज हरिद्वार भी रहे। इस प्रकार उनकी जीवन यात्रा एक सुनियोजित क्रम में बँटी नजर आती है।

तपःस्थली का विशेष स्थान−परमवंदनीय माता जी ने इसी स्थान से एक साधिका, सर्वप्रथम शिष्या के रूप में इस संगठन का प्रथम सदस्य बनने का सौभाग्य अर्जित किया एवं बाद में उन्होंने अखण्ड ज्योति संस्थान में अखण्ड−ज्योति पत्रिका के संपादन के साथ−साथ इस विराट परिवार के सहसंरक्षक की भूमिका भी निबाही। यों तो ऋषियुग्म का निवास अखण्ड ज्योति संस्थान घीयामंडी, मथुरा (1941 से अब तक इस पत्रिका का प्रकाशन केंद्र) ही था, पर नित्य दोनों गायत्री तपोभूमि आते थे एवं नियमित चलने वाले सत्रों में साधकों का मार्गदर्शन करते थे। इस प्रकार गुरुसत्ता की चरणरज से यह सारा क्षेत्र, उसका कण−कण ऊर्जावान बना हुआ है। गायत्री महाविज्ञान से लेकर वेद−पुराण−उपनिषद्−स्मृति−योगवासिष्ठ−तंत्र महाविज्ञान आदि ग्रंथों का भाष्य−लेखन−मुद्रण यहीं पर हुआ है। यही वह पावन भूमि है, जहाँ युगनिर्माण योजना के शतसूत्री कार्यक्रमों तथा नवयुग के घोषणा पत्र के रूप में सत्संकल्प (18 सूत्री कार्यक्रम) का प्रचार−प्रचार पूज्यवर के हिमालय से लौटकर आने के बाद किया गया। गायत्री मंदिर के सामने स्थित यज्ञशाला

स्थापना की स्वर्ण जयंती का वर्ष

अब इस प्राणवान स्थापना के, गायत्री तपोभूमि कि निर्माण के पचास वर्ष इस वर्ष पूरे होने को आ रहे हैं। यह एक महत्वपूर्ण स्थापना का स्वर्ण जयंती वर्ष हैं, जिसे गायत्री जयंती 2002 से गायत्री जयंती 2003 (10 जून) तक पूरे भारतवर्ष में सोल्लास मनाया जा रहा है। परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीया माताजी के बाद जिन गिने−चुने तपस्वियों का इस पावन तपोभूमि को विस्तार देने में योगदान रहा, उनमें श्रद्धेय पं. लीलापत शर्मा का नाम हमेशा याद किया जाएगा। 1912 में भरतपुर जिले में जन्में पंडित जी पूरी तरह 1967 में मथुरा आ गए थे एवं उन्हें वहाँ के व्यवस्थापक का कार्यभार पूज्यवर द्वारा सौंपा गया था। 1971 में ऋषियुग्म परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीय माता जी के हरिद्वार आगमन के साथ ही पंडित जी ने गुरुसत्ता की पादुकाएँ गायत्री माता के मंदिर के दोनों ओर रख, उनके चित्र स्थापित कर आज विगत 32 वर्षों में जो रूप व आकार तपोभूमि को दिया है, वह सभी को विदित है। जैसी कि भगवत् सत्ता की इच्छा थी, 2002 की मई तक 90 वर्ष की एक पुण्य−परमार्थ भरी जिंदगी जीकर पंडित जी को 14 मई को प्रातः गुरुसत्ता ने अपने पास बुला लिया। हर श्वास में गुरुसत्ता को ही जीने वाले पंडित जी का जीवन भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार की तरह एक समर्पित प्रभुभक्त का रहा। उनकी ही इच्छानुसार गायत्री तपोभूमि में गायत्री मंदिर के दोनों ओर उनकी आराध्य सत्ता की मूर्तियां स्थापित की जा रही हैं। अपने नवंबर 2001 के गुजरात प्रवास के पूर्व वे स्वयं, सतीश जी (श्री मृत्युँजय शर्मा) को लेकर जयपुर दो बार गए एवं मूर्तियों के निर्माण का मार्गदर्शन करके आए। समय−समय पर प्रतिनिधिगण कार्य की प्रगति देखते रहे। अब वे मूर्तियाँ बनकर तैयार हैं एवं जैसी कि श्रद्धेय पंडित जी की हार्दिक इच्छा थी, उनकी स्थापना इस स्वर्ण जयंती वर्ष में गायत्री तपोभूमि में की जा रही है। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी की साढ़े तीन फीट ऊँची बैठी प्रतिमा आद्यशक्ति गायत्री के दायीं ओर एवं परमवंदनीय माता भगवती देवी की तीन फीट बैठी प्रतिमा बायीं ओर प्रतिष्ठित होगी। एक छोटे−से समारोह व कर्मकाँड के साथ यह स्थापना शरदपूर्णिमा 21 अक्टूबर की प्रातः कर दी जाएगी। चूँकि सूक्ष्म व कारण में स्थित, माँ गायत्री में विलीन एवं निखिल ब्रह्माँड में संव्याप्त गुरुसत्ता हमारे आसपास ही विद्यमान है, इसलिए प्राण प्रतिष्ठा जैसा कोई कर्मकाँड नहीं किया जा रहा है।

मूर्ति स्थापना कार्यक्रम व महत्वपूर्ण निर्देश

परमपूज्य गुरुदेव के सदैव यही निर्देश रहे कि उनकी सत्ता सजल−श्रद्धा प्रखर−प्रज्ञा के रूप में, देवात्मा हिमालय व स्मृति उपवन के रूप में, अखण्ड दीपक की जाज्वल्यमान ज्योति के रूप में तथा उनके द्वारा लिखे गए विचारों के रूप में, उनके साहित्य में ही सदा मौजूद रहेगी। इसीलिए किसी को भी यह नहीं करना चाहिए कि अनुकरण कर हम भी ऐसी मूर्तियों की स्थापना अपने यहाँ करें। इससे गुरुसत्ता के निर्देशों की अवमानना होगी तथा उनके ज्ञानयज्ञ अभियान में बाधा पड़ेगी। जिस कार्य को प्राथमिकता पर किया जाना है एवं युगपरिवर्तन हेतु जिसकी सर्वोपरि आवश्यकता है, उसमें व्यवधान आएगा। इस स्वर्ण जयंती वर्ष में इसीलिए हर परिजन से यही कहा जा रहा है कि वे साधकों की संख्या बढ़ाएँ। मंत्र लेखन अभियान को गति दें, पत्रिकाओं के पाठकों की संख्या में अभिवृद्धि करें तथा मिशन की सप्त क्राँति योजना को पूर्णता तक पहुँचाएँ। गायत्री तपोभूमि मथुरा एवं शाँतिकुँज हरिद्वार द्वारा घोषित सातों आँदोलनों की एक सम्मिलित कार्य योजना संगठनात्मक स्तर पर सक्रिय करने के लिए एक संपादकीय में इसी अंक में अगले पृष्ठों पर दी गई है।

कार्यक्रम से जुड़े अनुबंध

शरदपूर्णिमा का कार्यक्रम 20, 21, 22 अक्टूबर की ढाई दिन की अवधि में संपन्न होगा, पर यह है उन्हीं के लिए जो न्यूनतम निम्नलिखित शर्तों को पूरा करते हों।

(1) जो गायत्री महामंत्र लेखन अभियान को तीव्र गति दे सकें। कम−से−कम सौ मंत्रलेखन पुस्तिकाएँ प्रतिमाह, इस प्रकार गायत्री जयंती 2003 एक हजार पुस्तिकाएँ विभिन्न परिजनों से लिखवा सकें, उन्हें विराट तप में भागीदार बना सकें। सभी भाषाओं में ये पुस्तिकाएँ उपलब्ध हैं।

(2) जो अपनी चारों पत्रिकाओं−मासिक अखण्ड−ज्योति हिंदी, बंगला व अँग्रेजी, युग निर्माण योजना, युगशक्ति गायत्री (गुजराती एवं विभिन्न भाषाओं में) तथा प्रज्ञा अभियान पाक्षिक के न्यूनतम पचास पाठक और बढ़ा सकने की स्थिति में हों। आज की स्थिति से यह और अधिक का संकल्प होना चाहिए।

(3) जो साधना, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन, कुरीति−उन्मूलन, नशा निवारण, पर्यावरण संवर्द्धन तथा नारी जागरण में से किन्हीं दो को पूर्ण गति दे सकें। सुनियोजित कार्यपद्धति अपनाकर उसे ऐसी गति दें कि उस क्षेत्र में वह एक ख्यातिप्राप्त आँदोलन बन जाए।

(4) जो न्यूनतम तीन माह का क्षेत्र या केंद्र में शाँतिकुँज में मार्गदर्शनानुसार समय दे सकते हों, उसका नियोजन शपथपूर्वक कर सकने की स्थिति में हों।

जो भी उपर्युक्त शर्तों का पालन कर सकते हों, ऐसे गिने−चुने शपथ लेने वाले प्राणवानों को स्वर्ण जयंती समारोह के मूर्ति स्थापना कार्यक्रम में आमंत्रित किया जा रहा है, उनकी कुछ संख्या 10 से 15 हजार की आँकी जा रही है, क्योंकि शर्तें बड़ी कड़ी हैं एवं उनका परिपालन अनिवार्य माना जा रहा है। कार्यक्रम 20 अक्टूबर की प्रातः अखण्ड जप से आरंभ होगा। मध्याह्न में शोभायात्रा निकलेगी, तत्पश्चात एक कार्यकर्त्ता गोष्ठी। अगले दिन प्रातः मूर्ति स्थापना के साथ यज्ञ चलता रहेगा, दर्शन सब कर सकेंगे। दिन में गोष्ठी के उपराँत शाम को एक विराट दीपयज्ञ में शपथ ली जाएगी कि आगामी आठ माह में क्या−क्या करना है। अगले दिन प्रातः पूर्णाहुति कर कार्यकर्त्ता क्षेत्र में लौट जाएँगे। जो नहीं आएँगे वे अपने स्थान पर शक्तिपीठों−प्रज्ञामंडलों में शरदपूर्णिमा का संकल्प दीपयज्ञ संपन्न करेंगे। स्वर्ण जयंती वर्ष सालभर चलने वाला अतः दर्शनार्थी वर्ष में कभी भी आकर दर्शन लाभ ले सकते हैं। ये तीन दिन तो उन्हीं के लिए हैं, जो शपथ लेने आ रहे हैं। आशा ही नहीं, पूरा विश्वास है कि इस एक वर्ष में हम गायत्री तपोभूमि की तप−ऊर्जा को समस्त भारत भूमि में बिखेरने में सफल हो सकेंगे।


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