नरेंद्र संन्यास लेकर विवेकानंद बन चुके थे। परमहंस ने उन्हें उपासना−साधना कराई, पर समाधि तक ले जाकर रोक लिया, कहा, तुम्हें लोकसेवा का कार्य करना है।
विवेकानंद ने पूछा, लोकसेवा करानी ही थी, तो इतना समय व्यक्तिगत साधना में क्यों लगवा दिया? उत्तर मिला, आत्मसाधना के बिना लोकसाधना नहीं, जो बना नहीं वह बनाएगा क्या? और जो नया नहीं बनाया तो स्वयं बनने का क्या लाभ।