युगगीता−36 - साँख्या (संन्यास) और कर्मयोग दोनों एक ही हैं, अलग−अलग नहीं

October 2002

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(कर्म−संन्यासयोग नामक गीता के पाँचवें अध्याय की द्वितीय किश्त)

विगत अगस्त अंक में पाँचवें अध्याय की भूमिका में प्रवेश के साथ−साथ अर्जुन की जिज्ञासा से शुभारंभ किया गया था, जिसमें वह पूछता है−कर्मों का त्याग यानि संन्यास एवं कर्मयोग दोनों की ही योगेश्वर प्रशंसा कर रहे हैं, परंतु भ्रमित अर्जुन नहीं समझ पा रहा कि कौन−सा मार्ग श्रेष्ठ है। वह दोनों को परस्पर विरोधी मान रहा है। भगवान का आशय है, कर्मों में अहंकार का त्याग, कर्मफल के उपभोग के प्रति चाह का त्याग, कर्त्ता के भाव का त्याग। यह मार्मिक तत्वदर्शन अर्जुन की समझ के बाहर का है, किंतु भगवान उसे अपने उत्तर से दुविधा से बाहर निकालते हैं। वे अपने उत्तर में कहते हैं कि कर्मों का त्याग (कर्मसंन्यास) और कर्मयोग (कर्मों का संपादन) दोनों ही मोक्ष की ओर ले जाते हैं, किंतु फिर भी सुगमता की दृष्टि से कर्मयोग अधिक व्यावहारिक है एवं सब इसे कर सकते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में परमपूज्य गुरुदेव के अखण्ड−ज्योति के अप्रैल 1983 के अंक का हवाला देकर पाठकों को आज के दूषित कर्मों से भरे युग में देवमानवों को−प्रज्ञा परिजनों के लिए करने योग्य कर्मों की चर्चा भी की गई थी। योगेश्वर की वाणी एवं गुरुसत्ता की लेखनी दोनों में एकरूपता दिखाई देती है। तमस से ऊपर उठकर आज की परिस्थितियों के अनुरूप कर्मयोग कैसे जीवन में उतरे, वैराग्य−संन्यास के नाम पर छाई विडंबना कैसे मिटे, इसी प्रसंग पर समापन कर दिया गया था। अब द्वितीय श्लोक की व्याख्या और विस्तार से व आगे का प्रसंग इस अंक में पढ़ें।

स्वं−स्वं आचरेण शिक्षरेण

दूसरे श्लोक का सार यह है कि कर्मयोग एवं कर्मसंन्यास, यद्यपि ये दोनों ही मोक्ष की ओर ही ले जाते हैं एवं दोनों ही श्रेष्ठ हैं, फिर भी इन दोनों में कर्मों का संपादन (कर्मयोग) अधिक महत्व वाला, व्यावहारिक एवं हम सबके लिए करने योग्य है। जब भी संन्यास की बात की जाती है, तो कर्मभाव से अर्थात् हमारे भीतर जड़ जमाकर बैठे अहंभाव के त्याग की अपेक्षा हमसे की जाती है। व्यावहारिक धरातल पर शिक्षण दे रहे योगेश्वर श्रीकृष्ण एक आदमी के लिए भी एवं विशिष्टता की पराकाष्ठा पर चलने वालों के लिए भी यही सूत्र देते हैं कि कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मों का संपादन श्रेष्ठ है तयोस्तु कर्मन्नया−सात्कर्मयोगो विशिष्यते। हम ऐसे दिव्यकर्मी बने कि हमारे कर्म ही औरों के लिए शिक्षण बन सकें। स्वामी तुरीयानंदजी (रामकृष्ण मिशन) कहा करते थे, लिव एन एक्जेम्पलरी लाइफ अपना जीवन उदाहरण की तरह जियो। अपने कर्मों से, आचरण से औरों को शिक्षण दे सको जो कि हमारी संस्कृति का आदि सत्य है, स्वं−स्वं चरित्रं शिक्षंते (स्वं−स्वं आचरेण शिक्षरेण) पृथिव्याँ सर्वमानवाः कुछ ऐसी बात इस श्लोक से हमें ज्ञात होती है। जो भगवा को पसंद हो वही हमें भी पसंद होना चाहिए। यदि भगवान कर्मयोगी बनाना चाहते हैं मानव मात्र को, तो वही हम सबकी नियति होनी चाहिए। आज का कर्मयोग युगधर्म है−मानव मात्र में छाए आस्था−संकट का निवारण, इसके लिए छाई दुर्मति को मिटाने के लिए एक विराट स्तर पर ज्ञानयज्ञ−विद्याविस्तार। हर व्यक्ति का चिंतन, सोचने का तरीका सही हो, अहर्निश यही हमारा पुरुषार्थ चले, चिंतन चले एवं कर्म भी उसी दिशा में नियोजित हों। युगधर्म की बात आती है, तो गोरखनाथ जी का एक दृष्टाँत बताने का मन करता है।

समूह मन का जागरण

गुरु गोरखनाथ का जब उदय हुआ तो उनका नाम था अघोरवज्र। अघोर से गोरखनाथ पैदा हुए एवं चूँकि वे वज्रयानी संप्रदाय के थे, वे अघोरवज्र भी कहलाते थे। उनके एक साथी थे फेरुकवज्र। मुहम्मद गौरी की सेना ने आक्रमण किया एवं वह स्तर से दक्षिण तक सब कुछ तहस−नहस करती हुई, देवालयों को तोड़ती हुई सोमनाथ व उड़ीसा के कोणार्क मंदिर तक पहुँच गई । आक्रमण इस स्तर पर प्रचंड था एवं हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा पिछड़े वर्ग की उपेक्षा इतनी अधिक थी कि उसके विधर्मीकरण आँदोलन में कई व्यक्ति धर्म बदलकर मुस्लिम बनते चले गए। इसमें एक काला पहाड़ की कहानी सभी जानते हैं, जो कि घृणा से जन्मा था एवं जिसने हजारों हिंदुओं को मुस्लिम बनाकर बर्बरता से मारा। उस समय जब योग और तंत्र की शक्ति में महारत रखने वाले ढेरों वज्रयानी गोरक्षनाथ, फेरुकव्रज मौजूद थे, ये घटनाएँ घटीं। तत्कालीन राजा तंत्र के टोटकों से प्रभावित हो यही समझे बैठे थे कि यही लोग मोरचा ले लेंगे, हमें लड़ने की जरूरत भी नहीं होगी। सेनाओं की छुट्टी कर दी गई थी। यही मान लिया गया कि ताँत्रिकों के, योगियों के बल पर ही यवन−शक−हूणों से जूझ लिया जाएगा। जब गजनवी आकर रौंद कर चला गया, तो गोरखनाथ ने अपने से आयु व अनुभव में बड़े फेरुकवज्र से पूछा, आपका तप कहाँ चला गया? ज्ञान का क्या हुआ? क्यों नहीं जूझ पाए आप? तब फेरुकवज्र बोले, योग और तंत्र की अपनी सीमा है। ऐसे विपत्ति के समय में आवश्यकता आत्मबलसंपन्न व्यक्तियों की, विजय की कामना रखने वालों की एवं कर्मयोगियों की होती है। गजनी के सैनिकों में गजब का आत्म−विश्वास था, विजय की कामना थी। जब कर्मयोगी जिजीविषा संपन्न व्यक्ति एक साथ होते हैं, तो समूह मन का निर्माण करते हैं। इस समूह मन के सामने तंत्र और योग एक तरफ रखा रह गया और उनकी दुर्दांत इच्छाशक्ति काम करती चली गई। आगे जब भी जमाना बदलेगा, तो वह समूह मन के जागरण से ही बदलेगा॥

कर्मयोग ही आज का युगधर्म

समूह मन का जागरण ही है, आज का युगधर्म। परमपूज्य गुरुदेव ने इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य का न केवल नारा दिया उसके लिए सुनियोजित कार्यक्रम भी दिया । उसके लिए सभी गायत्री परिजनों को कर्मयोगी भी बना दिया। कहा−परमार्थ में ही सच्चा स्वार्थ है। इस समय का युगधर्म विचारक्राँति, समाज−सेवा है। इसके साथ−साथ उनने सामूहिक साधना द्वारा समूह मन के जागरण की प्रक्रिया को जीवनभर गति दी। उनने कहा कि जो इसमें जुटेगा, वह भारत को महानायक होते देखेगा। गोरखनाथ से भी फेरुकवज्र ने यह बात इसी तरह कही, भारतवर्ष का उद्धार तंत्र साधना या संन्यास से नहीं, गुफा में बैठकर नहीं, समवेत मनों की शक्ति के जागरण से ही हो पाएगा। ऐसा समय निश्चित ही आएगा, तत्पश्चात् गोरक्षनाथ ने नाथ योगियों की एक सेना खड़ी की एवं उन्हें एक विशिष्ट कार्य सौंपा। जहाँ भी भवनों का आक्रमण होने की संभावना रहती थी, वहाँ यह सेना पहले से ही पहुँच जाती थी एवं बाकायदा मोर्चा लेती थी। वे जाकर सभी को एकत्र करते एवं बताते थे कि युगधर्म क्या है? इस समय तलवार हाथ में लेकर लड़ना एवं विधर्मियों को मार गिराना ही युगधर्म है। अमृताशन की परंपरा को भी गोरक्षनाथ ने ही सबसे पहले आरंभ किया था। कहा था कि यही इस जमाने का आहार है। इसी को खाकर, योग साधकर, संयमी जीवन अपनाकर सभी को सैनिक बनना चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव ने भी अमृताशन (खिचड़ी) को युग सैनिकों के लिए एकमात्र आहार बताया। भगवान भी यहाँ गीता के दूसरे श्लोक में यही कह रहे हैं कि संन्यास लेकर वैराग्य की स्थिति (जो कि अर्जुन के मन में आ रहा है) की तुलना में कर्मयोग ही सर्वश्रेष्ठ है।

योगेश्वर श्रीकृष्ण क्यों कहते हैं कि हमें कर्मयोगी ही होना चाहिए? वे हमें तीसरे श्लोक में संन्यासी की विशिष्टताओं एवं अहं के मिट जाने वाली प्रक्रिया की ओर संकेत करते हुए कहते हैं−

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति। निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बंधात्प्रमुच्यते॥ 3-5

हे अर्जुन उसी कर्मयोगी को संन्यासी जानो जो किसी से न द्वेष करता है और न राग ही रखता है, क्योंकि ऐसा राग−द्वेष करता है और राग ही रखता है, क्योंकि ऐसा राग−दोषों के द्वंद्वों से रहित व्यक्ति तो सहज रूप में ही संसार बंधनों से मुक्त हो जाता है।

योन द्वेष्टि न काँक्षति

संन्यासी राग−द्वेष से परे होता है। उसका अपना प्रिय कोई भी नहीं होता है, फिर भी सभी उसी के अपने आत्मीय होते हैं। वह व्यक्ति विशेष से जाति−धर्म−संबंध (रिश्तेदारी), लिंग आदि के आधार पर न प्रीति रखता है, न उनसे घृणा करता है। घोषणा करने की जरूरत नहीं है कि अब हमने गैरिक वस्त्र पहन लिए हैं, हमने संन्यास ले लिया है। संन्यास आचरण में दिखाई देना चाहिए। संन्यास अपने कुल−नाम−वंश को भूलकर गुरु की परंपरा से जुड़ जाता है और सारा समाज उसका कार्यक्षेत्र हो जाता है। जिसके हृदय से अहंभाव पूरी तरह दूर हो गया हो, उसे ही संन्यासी मानना चाहिए। (ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी), जिसे न राग है किसी से, न द्वेष ही (यो न द्वेष्टि न कांक्षति)। यदि किसी प्रकार की वासना होगी ही नहीं तो राग−द्वेष क्यों पनपेंगे। आगे भगवान कहते हैं कि जिसने द्वंद्वों से पीछा छुड़ा लिया, वह सहज भाव से ही बंधनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है (निर्द्वद्वो हि महाबाहो सुखं बंधात्प्रमुच्यते)। द्वंद्व ही तो हैं, जो हमें बंधनों में फँसाते रहते हैं, यह मेरा है, यह मेरा पद, मेरी उपलब्धि मेरे स्वयं के ही कारण है, यह घृणित है, मेरे कथनानुसार नहीं चलता, मेरे मार्ग में बाधक है, इस प्रकार का चिंतन व्यक्ति को द्वंद्वों में उलझाकर बंधनों में जकड़ लेता है। इन द्वंद्वों से मनोविकार एवं फिर प्रज्ञापराध पनपता है। व्यक्ति बाहर स्वस्थ, किंतु वस्तुतः रोगी बन जाता है। परमपूज्य गुरुदेव ने उसे वास्तविक रोगी एवं आस्था−संकट से ग्रस्त बताया है। यह भी उन्होंने कहा कि आज बहुसंख्य व्यक्ति इसी विडंबना में उलझे हैं, अधिक पाने की आकाँक्षा, राग की अधिकता, कामनाओं का महत्वाकाँक्षाओं में बदलना एवं बाधक तत्वों को हटाने के लिए द्वेष का जन्म लेना, फिर इन द्वंद्वों में उलझकर एक मायावी मृगतृष्णा में फँसकर जीवन गंवाते चलना यह नर समुदाय की एक नियति−सी बन गई है। समाधान वे भी एक ही बताते हैं, विचारों में परिवर्तन, राग−द्वेष से मुक्ति, द्वंद्वों से परे चलकर जीवनमुक्ति−बंधनमुक्ति। वासना, तृष्णा, अहंता के त्रिविध विकारों से छुटकारा संन्यासी की वास्तविक मनःस्थिति में जाए बिना होगा नहीं। इसके लिए संन्यासी वेश की नहीं, संन्यास की मनःस्थिति की जरूरत है।

श्रीअरविंद गीताप्रबंध में कहते हैं, अहंकारी समझता है कि मैं ही वास्तविक आत्मा हूँ और इस तरह कर्म करता है मानो कर्म का वास्तविक केंद्र वही है और सब कुछ मानो उसी के लिए है और यहीं वह दृष्टिकोण और नियोजन की भूल करता है। यह सोचना गलत नहीं है कि हमारे अंदर, हमारी प्रकृति के इस कर्म में कोई चीज या पुरुष ऐसा है, जो हमारी प्रकृति के कर्म का वास्तविक केंद्र है और सब कुछ उसी के लिए है, परंतु वह केंद्र अहंकार नहीं बल्कि हृदिदेश स्थित निगूढ़ ईश्वर (हृदिदेशे अर्जुन तिष्ठति 61-18 गीता) परमपिता परमात्मा है और वही वह दिव्य पुरुष है, जो अहंकार से पृथक् सत्ता का एक अंश है।

हम सबके भीतर वासनाओं द्वारा नियंत्रित, उसी के द्वारा निर्देशित ताल पर नृत्य करती हुई बुद्धि हमारे राग−द्वेष का भरण−पोषण करती है और फिर यही क्रिया रूप को भी जन्म देती है, किंतु जिसने बुद्धि को द्वंद्वों से मुक्त कर लिया, वह जीवन के बंधनों से मुक्त हो जाता है। फिर वह ऐषणाओं, उद्वेगों, कामुकता के ज्वारों से मुक्त हो जाता है। यह स्थिति अचानक नहीं आती। न ही प्रत्येक संन्यासी को सहज ही प्राप्त हो जाती है। इसीलिए श्रीकृष्ण का अग्रह है कि कर्म−संन्यास की तुलना में कर्मयोग करते−करते इसे प्राप्त करना और अधिक व्यावहारिक एवं सरल है। निष्ठा के साथ यज्ञीय भाव से कर्म करते रहने वाले दिव्यकर्मी (जैसा कि चौथे अध्याय में विस्तार से बताया गया) अपने जीवन की दैनंदिन वासनाओं का क्षय और अहंता पर विजय का महती कार्य संपन्न कर लेते हैं। अब कर्म−संन्यास और कर्मयोग को कोई पृथक् मानने की भूल न कर बैठे, इसके लिए भगवान चौथे श्लोक में एक सूत्र देते हैं−

सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदंति न पंडिताः। एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।

बालक की तरह आचरण करने वाले मूर्ख जन साँख्ययोग (ज्ञान द्वारा कर्म−संन्यास) और कर्मों के संपादन (कर्मयोग) को पृथक−पृथक फल देने वाला मानते हैं, किंतु पंडितजन (बुद्धिमान−समझदार) जानते हैं कि दोनों में से एक का भी पूरी तरह अनुसरण करने वाला दोनों के फल को प्राप्त कर परमात्मा से साक्षात्कार करने की स्थिति में आ जाता है।

बालबुद्धि बनाम पंडित बुद्धि

भगवान का मत है कि जो साँख्ययोग और कर्मयोग को अलग−अलग समझता है, वह बालक है। बालक के समान मूर्खतापूर्ण आचरण करने वाला है। पंडित अर्थात् विद्वत्जन जो समझदार हैं, जिन्होंने ज्ञान को भली भाँति आत्मसात कर लिया है, जानते हैं कि दोनों एक समान ही फल देने वाले हैं। इसलिए किसी एक को भलीभाँति जीवन में उतारकर आगे बढ़ते रहने में ही समझदारी है। यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण के शब्दों में तीखा व्यंग्य भी है एवं थोड़ा−सा रोष भी। श्रीकृष्ण दोनों योगों में विवाद पैदा करने वालों की हँसी उड़ाते हैं वह यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि ज्ञान द्वारा कर्म−संन्यास एवं कर्मों के संपादन दोनों में कोई अंतर नहीं है। ये अविभाज्य हैं, परस्पर विरोधी नहीं हैं। जैसे विज्ञान और अध्यात्म एक−दूसरे के पूरक हैं, ऐसे ही ये दोनों ही सिद्धाँत साथ चलने वाले हैं, अलग−अलग नहीं हैं।

पंडित शब्द का यहाँ गीताकार ने प्रयोग किया है, तो इन अर्थों में कि उसने न केवल शास्त्रों का गहन अध्ययन−मनन किया है, वह अहं के परित्याग (संन्यास) और कामनाओं के त्याग (सच्चा कर्मयोगी) में कोई भेद नहीं करता। पढ़ा−लिखा होते हुए भी, बाहर से पंडित समान वेश धारण किए, ढेरों डिग्री लिए व्यक्ति यदि दोनों योगों को अलग−अलग बताता है तो फिर उसे ज्ञानी नहीं बालक ही मानना चाहिए, बुद्धिमान नहीं, मूर्ख ही जानना चाहिए। ऐसी अपरिपक्व बुद्धि वाली जनता हम से अनजान नहीं है। हमारे चारों ओर ही ऐसे ढेरों व्यक्ति हमें मिल जाएँगे, जो संन्यास का न कोई मर्म जानते हैं, न निजी जीवन में उसे उतारते हैं, हाँ बाहर से मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, संन्यासी का चोला अवश्य पहने हुए हैं। स्वयं छलावे में जी रहे हैं, औरों को भी इसी मृगतृष्णा में उलझाने की कोशिश कर रहे हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण ने कहा सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पंडिताः। बालाः अर्थात् बालबुद्धि वाले पंडित अर्थात् विद्वान−ज्ञानी ‘एनलाइटण्ड मैन’।

कर्त्ताभाव−भोक्ताभाव

इसी बात को इस तरह भी समझा जा सकता है कि कर्ता के भाव का त्याग साँख्या मार्ग है एवं भोक्ता के भाव का त्याग कर्मयोग का मार्ग है। जो किसी एक को भी पूरी तरह जीवन में उतार लेता है वह इन दोनों का ही फल प्राप्त कर लेता है।

(एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोः विन्दते फलम्), यह कहकर श्रीकृष्ण अर्जुन को पूरी तरह से मौन कर देते हैं, जो अभी भी द्वंद्व की स्थिति से गुजर रहा है। उनका स्पष्ट मत है कि भोक्ताभाव का त्याग योगी को, साधना पथ के पथिक को लौकिक जीवन की वासनाओं का क्षय करने में मदद करता है। जैसे−जैसे वासनाएँ मिटती चली जाती हैं, मन शाँत होता चला जाता है। मन की शाँति किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जरूरी है। ऐसी मनःस्थिति में स्थित व्यक्ति अपने ध्यान द्वारा चैतन्य की आत्मानुभूति कर लेता है। जब अपने आप की कर्त्ताभाव मिट जाता है, तो संन्यास की स्थिति में जाकर मनुष्य परम आनंद को प्राप्त होता है।

कहाँ है वह आनंद, जो कर्त्ताभाव व भोक्ताभाव का त्याग करने वाले एक संन्यासी में होना चाहिए। कहीं दिखाई पड़ता है? परमपूज्य गुरुदेव इसी विडंबना पर अक्सर चर्चा करते हुए कहते थे कि धर्म के नाम पर पलायनवाद को जन्म देने वाले राष्ट्र के साठ लाख बाबाजी यदि कर्मयोगी बने होते तो राष्ट्र का उद्धार हो गया होता। धर्मतंत्र राजतंत्र पर निर्भर नहीं होता, उसका दिशादर्शक होता है। यदि एक−एक बाबाजी आठ−आठ व्यक्तियों को साक्षर व संस्कारवान बना देते तो स्वतंत्रता के बाद इन पचपन वर्षों में देश कहाँ−का−कहाँ पहुँच गया होता। इसीलिए परमपूज्य गुरुदेव ने नवसंन्यास, इस युग का आपार्द्धम परिव्रज्या सबसे अधिक महत्वपूर्ण बताया एवं परिपक्व, पर उत्तरदायित्वों से मुक्त वानप्रस्थियों से यह आवश्यकता पूरी करने को कहा। हम यह नहीं कहते कि 100 प्रतिशत संन्यासी ऐसे हैं। कुछ प्रतिशत तो वास्तव में प्राणवान−प्रज्ञावान−कर्मयोगी हैं, पर शेष मठाधीश बने भोग कर रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं हैं। कर्मयोग और साँख्या की यह चर्चा अगले अंक में और विस्तार से क्रमशः

जार्जिया के पिछड़े प्रदेश में हेरी कार्ल्डवेल को पादरी बनाकर भेजा गया। यों उन पर उत्तरदायित्व बाइबिल की शिक्षा का प्रचार और महाप्रभु ईसा के प्रति भक्तिभाव पैदा करना था, पर उन्होंने जार्जिया क्षेत्र का पर्यवेक्षण करके देखा कि वहाँ स्वार्थपरता और रूढ़िवादिता हद दर्जे की थी। उसे हटाए या घटाए बिना बाइबिल के मंत्र सुने या सुनाए भर जा सकते थे, पर उन्हें जीवन में उतारा नहीं जा सकता था।

कार्ल्डवेल ने अपनी विवेक−बुद्धि से काम लिया। बाइबिल प्रचार के साथ−साथ नागरिकता के प्राथमिक कर्तव्यों और विवेक की कसौटी हर प्रसंग में प्रयुक्त करने की बात कही। फलस्वरूप उस क्षेत्र में ईसाई धर्मानुयायी कहे जाने वाले लोग तो बहुत नहीं बने, पर मानवी कर्तव्य और उत्तरदायित्वों को जानने तथा अपनाने की मनोवृत्ति असंख्यों में पैदा हो गई। विचारशीलों ने उन्हें सच्चा धर्मोपदेशक कहा ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118