अमृतवाणी - नारी अपनी गरिमा को जाने और आगे बढ़े

October 2002

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(परमवंदनीया माता जी का 1984 का एक महत्वपूर्ण उद्बोधन)

गायत्री मंत्र हमारे साथ−साथ−

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

प्रज्ञापुत्रों, बेटियों और प्रज्ञा परिजनों? शिवाजी के पिताजी मुस्लिम शासन के एक वेतनभोगी कर्मचारी थे। यह उनकी माता जीजाबाई के संस्कार ही थे, जिनने शिवाजी को महान बनाया । हमीरदेव के पिता में सभी सामंतवादी कुसंस्कार थे, पर उन्हें ऐतिहासिक व्यक्तित्व मिला, इसमें उनकी माँ की भूमिका प्रमुख थी। जगद्गुरु शंकराचार्य संन्यासी पीछे बने, पहले उनकी मनोभूमि के आध्यात्मीकरण की शिक्षा माता के अंक में ही पूरी हुई थी। विश्व विजेता नेपोलियन के पिता साधारण सिपाही थे। उनके अंतःकरण में अजेय संकल्प शक्ति का बीज उनकी माँ ने आरोपित किया था। यह तो माताओं की बात हुई।

पुरुष के निर्माण में नारी का योगदान सहधर्मिणी−धर्मपत्नी स्वरूप उससे कम गरिमायुक्त नहीं है। एक पुलिस कोतवाल के बिगड़े हुए बेटे मुँशीराम, जिन्हें छोटी उम्र से ही जुआ, शराब आदि दुर्गुण विरासत में मिले थे, किंतु अपने पवित्र साहचर्य से आर्य समाज के मूर्द्धन्य मनीषी के रूप में ढालने वाली उनकी पत्नी ही थी। सरदार चूड़ावत को कौन जानता, यदि उनकी सहधर्मिणी हाडारानी ने राष्ट्र, जाति एवं संस्कृति के लिए मर मिटने का प्राण न फूँ का होता। दुर्गा भाभी की पवित्र प्रेरणाओं ने सरदार भगतसिंह को इतिहासपुरुष बना दिया और वीर बहन उत्तरा ने शंख जैसे कायर भाई को महान योद्धा बनने का पथ प्रशस्त किया । ये उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि पारिवारिक जीवन में पुरुष और नारी दोनों की समानता होते हुए भी मुख्य भूमिका किसकी है? यह तय करना हो तो ध्यान स्त्री पर अपने आप केंद्रित हो जाता है, क्योंकि अंतरंग व्यवस्था से लेकर पारिवारिक जीवन में संवेदना, करुणा और ममता की मूलस्रोत वही है। इन्हीं गुणों के कारण परिवार का प्रत्येक सदस्य उसके निकट का हो जाता है और प्रभावित होता है।

नारी का स्थान गरिमापूर्ण

इससे स्पष्ट है कि यदि किसी परिवार की सुख−शाँति और समुन्नति का अनुमान लगाना हो तो सर्वप्रथम उस परिवार में स्त्रियों की स्थिति का मूल्याँकन करना अनिवार्य हो जाएगा। स्त्रियाँ अगर अनपढ़, अनगढ़ और असभ्य हों तो उनके बालकों से कोई भी शिष्ट−सुसंस्कृत व्यवहार करने की आशा नहीं कर सकता। इसीलिए प्राचीनकाल से ही हमारे देश में नारी को सद्गृहिणी के रूप में प्रतिष्ठा मिल सकी थी और उसके स्वरूप को स्थिर बनाए रखने के लिए शिक्षा, सुसंस्कारिता और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वरिष्ठता प्रदान की गई थी। सीताराम, गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण, राधेश्याम आदि शब्द नारी जाति की सजीव गरिमा का ही उद्घोष करते हैं। प्रत्येक नाम से पहले देवियों का नाम जोड़कर ही देवता का नाम स्मरण किया जाता है। माता, पुत्री, बहन, भाभी, चाची, दादी आदि रिश्ते नारी की गरिमा का ही अर्थबोध कराते हैं। ये अपने−अपने स्तर से प्रभावित करते हैं। इसलिए एक का भी कुसंस्कारी, अशिक्षित−अनपढ़ और विग्रहप्रिय होना सारे कुटुँब की शाँति व्यवस्था को डुबो देता है।

परिवार संस्था को सर्वजनीन सुख−शाँति के शाश्वत आधार के रूप में खड़ा करना है, तो उसके प्रमुख घटक नारी को सभ्य, सुशिक्षित और सुसंस्कारवान बनाने की प्रक्रिया का शुभारंभ करना सर्वोत्तम उपाय सूझ पड़ता है। इस प्रमुख तथ्य को हमारे ऋषि−मनीषियों ने सभ्यता के आरंभिक दिनों में जान लिया था। एक समय था जब नारी जाति की विशेषता को पूरी तरह समझा गया था। जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं, इस एक वाक्य से भारत के अतीत की झलक मिल जाती है। हमारे देश के तैंतीस कोटि नागरिकों को यदि देवता के सम्मानास्पद विशेषण से संबोधित किया गया, तो स्पष्ट है कि यहाँ नारी समाज को बहुत सम्मान मिला होगा। कौशल्या, सुमित्रा, सुनीति और सीता जैसी सुगृहिणियों, गार्गी मैत्रेयी, घोषा, इला, विश्ववारा, अपाला, अरुंधती जैसी ब्रह्मवादिनी ऋषिकाएँ और समराँगण में बैरियों के दाँत खट्टे करने वाली कैकेयी, सुभद्रा जैसी वीराँगनाएँ इन्हीं देवियों की देन हैं।

प्रगतिशील चिंतन वाली भारतीय नारी

बेटे, रूढ़िवादी एवं अंधविश्वासी हेय चिंतन प्राचीन भारत में कभी स्थान नहीं पर सका था। पारिवारिक उत्तरदायित्व से लेकर शिक्षा, संस्कृति, समाज तथा शासन कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं रहा जिसमें भारतीय नारी का योगदान पुरुषों से कम रहा हो। वाचस्पति ने व्याकरण शास्त्र लिखा। उसकी प्रमुख श्रेयाधिकारी उनकी पत्नी भामती थी। याज्ञवल्क्य जैसे प्रकाँड पंडित को विदुषी गार्गी के पाँडित्य का लोहा मानना पड़ा था। ब्रह्माजी ने एक बार बड़ा यज्ञ आयोजित किया था। उसके आचार्य का पद मनु महाराज को सँभालना था। मनु अस्वस्थ हो गए। प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि इस यज्ञ का संचालन कौन करें? उस समय सारे विद्वानों ने एक स्वर से मनु की पुत्री इला को प्रमुख आचार्य घोषित किया। उन्हीं ने इतना बड़ा यज्ञ संपन्न कराया।

ऋषि कण्व के आश्रम में पली और पढ़ी शकुंतला ने न केवल भरत जैसे प्रतापी बालक को जन्म दिया, अपितु कठिन समय में भी परावलंबन स्वीकार नहीं किया। जंगल में रही तब भी अपनी आजीविका और बालक भरत की शिक्षा−दीक्षा का भार स्वयं उठाया और वापस लौटी तो राजा दुष्यंत का सारा राजकाज वहीं सँभालती रही। एक ओर नारी यह वर्चस्य प्रधान जीवन तो दूसरी ओर आज की धार्मिक प्रतिगामिता, जिसने नारी जीवन को अछूत की श्रेणी में ला पटका। उसके आत्मविकास के सारे अधिकार छीन लिए। इस स्थिति से नारी को उबारे बिना अब भावी पीढ़ी का निर्माण संभव नहीं हैं

मध्य युग : कलंक और पतन का युग

मध्य युग भारतीय नारी के अपमान और पतन का इतिहास है। अशिक्षा, बाल−विवाह, पर्दाप्रथा, दहेज आदि जैसे अंधविश्वासजनित बंधनों ने उसे इस तरह जकड़ा है कि इन दिनों उसकी स्थिति अर्द्धमूर्च्छित और मृतक जैसी हो रही है। स्वतंत्रता के सैंतीस वर्ष बाद भी नारी के स्तर में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। शिक्षा के क्षेत्र में थोड़ी प्रगति देखने को मिली तो अवश्य, पर उसी अनुपात से दहेज की माँग बढ़ जाने की समस्या ने उनके भविष्य पर जबरदस्त प्रश्नचिह्न लगा दिया कि बच्चियों को ऊँची शिक्षा दिलाई जाए अथवा नहीं? भारतीय समाज की प्रगति में यह प्रश्न अहं महत्व रखता है। उसे सुलझाया न गया तो परिवार नारकीय यंत्रणाओं के दिन गुजारते रहेंगे। विग्रह, कुसंस्कारिता, पराभव का अभिशाप आगे आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा। चिंतन और चरित्र की उत्कृष्ट धरोहरों से विमुख उद्दंड, आवारा और सब तरह से हेय कर्मों में लिप्त संतानें यहाँ के समुदाय में जन्में−पनपें, तो कोई आश्चर्य नहीं समझा जाना चाहिए।

भावनाओं की दृष्टि से भारतीय नारी का स्थान आज भी सारे संसार से ऊँचा है। इस संदर्भ में लाला लाजपत राय की आत्मकथा का वह अंश याद आ जाता है। घर की महिलाएँ मंगल करवाचौथ का व्रत कर रही थीं। उनके नन्हें नाती ने प्रश्न किया, बाबा आज दादी−मम्मी ने भोजन क्यों नहीं किया? लालाजी ने बताया कि वे व्रत कर रही हैं। बच्चे के मुँह से फिर आपने और पापा जी ने ऐसा क्यों नहीं किया? उत्तर में लालाजी ने सुदूर अतीत का स्मरण कराते हुए कहा, बेटा, भारतीय नारी में श्रेष्ठता के संस्कार जन्मजात होते हैं, इसलिए पुरुषों को आशंका नहीं रहती कि उन्हें खराब पत्नी मिलेगी। हर पुरुष चरित्रनिष्ठ और सदाचारी होगा, इसमें संदेह है। महिलाएँ इसीलिए व्रत−उपवास करती हैं, ताकि अच्छा ही घर मिले।

आज परिवार−निर्माण के महान उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए नारी की योग्यता, शारीरिक और मानसिक क्षमता विकसित करने की आवश्यकता है। परदे में रहने, चक्की−चूल्हे और बच्चे पैदा करने के अत्यधिक दबाव में रहने से महिलाओं का शारीरिक स्वास्थ्य तो चौपट हुआ ही है, साथ ही कुंठाग्रस्त मस्तिष्क भी किसी काम का नहीं रह गया।

फिर श्रेष्ठ संतति की आशा कैसे की जा सकती है? ऐसी स्थिति में शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन, सुसंस्कारिता के प्रबल समर्थन द्वारा ही अपंगता के इस कलंक को छुड़ाया जा सकता है। हमारी प्रत्येक भावनाशील बेटी जीवन की इन अभिन्न चार आवश्यकताओं की पूर्ति में जुट पड़े तो देखते−ही−देखते परिवार का एक अच्छा स्वरूप उभरकर सामने आएगा, फिर उससे समृद्धि भी सच्चे अर्थों में प्राप्त हो सकेगी।

परंपराएँ बदलें, कुरीतियाँ मिटें

अब छोटी अल्पवयस्क बच्चियों के शादी−विवाह का समाज में औचित्य नहीं रहा। विदेशी आक्राँताओं से शील−धर्म की रक्षा हेतु कभी मध्यकाल में वह परंपरा पनपी थी। तब ग्यारह वर्ष की कन्याओं के विवाह को तत्कालीन धर्माचार्यों ने भी मान्यता प्रदान की थी। संकट की घड़ी में लिया गया निर्णय हमेशा के लिए पत्थर की लीक बन जाए, यह शोभनीय नहीं है और ने ऐसी अनुमति शास्त्र देते हैं बाल−विवाहों के दुष्परिणाम कितने घातक निकलते हैं, इसका खुला दस्तावेज मद्रास की लेडी डॉक्टर मिस मेयो की पुस्तक नरभक्षी बकासुर है। इसे पढ़ लेने से बात पूरी तरह से समझ में आ जाती है। भले ही यह परंपरा कभी श्रेष्ठ ठहराई गई हो , पर आज उसे त्याग देना ही धर्म के सर्वथा अनुकूल बात होगी। नारी जीवन की यह करुणाजनक स्थिति अपने ऋषि वंशजों से पूछती है कि क्या सचमुच हमारे पितामह इतने निर्भय रहे होंगे?

कन्या को करुणा और वात्सल्य की स्नेहमूर्ति समझने वाले भारतीय समाज ने समय−समय पर इन घातक कुप्रथाओं का स्वयं परिशोधन किया है। ऋषि दयानंद जैसे विचारकों ने बार−बार इस ओर ध्यान आकृष्ट किया, किंतु पोंगापंथी अंध श्रद्धालु, समाज को विवेकशीलता की देहरी तक पहुँचने दें, तब तो कुछ बात बने। इसका स्पष्ट निर्देश स्मृति में मनु महाराज ने किया था। हमें खेद है कि उसी बुद्धिजीवी मनीषी परंपरा के धर्माचार्य मध्ययुग की अंधचलन की ही लकीर पीट रहे हैं। इससे न देश का भला होगा, न राष्ट्र का, न जाति का और संस्कृति का। आज देश स्वाधीन है। जनसंख्या का अत्याधिक दबाव भी है, अतएव अल्पवयस्क बालकों के विवाह का कोई औचित्य नहीं बैठता।

एक बार दमयंती अकेली जंगल में भटक गई तब एक बहेलिये से आत्मरक्षा के लिए उन्हें शरीर बल का ही सहारा लेना पड़ा था। हमीर देव की माता तब अविवाहित थीं। एक राजकुमार उन्हें रस्सी फेंककर पटकना चाह रहा था। तब उनने रस्सी जोर से खींची तो राजकुमार धरती पर आ पड़ा और उसने अपनी हार मान ली और हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना करने लगा। हमारी बच्चियों का स्वस्थ, सुशिक्षित होना इस दृष्टि से आवश्यक है और स्वस्थ संतति की दृष्टि से भी। लड़कियों को सबल और समर्थ बनाने की दृष्टि से खेलकूद, व्यायाम आदि पर भी उतना ही महत्व दिया जाए जितना कि लड़कों पर। एक की भी उपेक्षा समूचे समाज की दुर्गति का कारण बनेगी।

वास्तविक सौंदर्य कौन−सा

सफाई भी स्वास्थ्य का ही अंग है। इस बात को तो हमारी बेटियाँ भी समझें। बनावटी फैशन−परस्ती, जेवरों और शृंगार प्रसाधनों में सिवाय बर्बादी की और कुछ भी नहीं। इन सबसे स्वास्थ्य तो चौपट होता ही है, घर की अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सौंदर्य के लिए स्वास्थ्य और स्वच्छता ये दो उपादान पर्याप्त हैं। वेषभूषा साधारण हो, पर स्वच्छ हो तो वह बनावटी शृंगार की अपेक्षा अधिक उत्तम होगी। इससे अनेक दुर्घटनाओं से बचाव का लाभ हो अनायास ही मिल जाता है, साथ ही गृहस्थ जीवन की गाड़ी सुभीते से आगे बढ़ती है। अश्लील आचरण की रोकथाम पुरुष करे अथवा न करे, पर इससे उत्पीड़ित नारी को अब विलंब नहीं करना चाहिए। वह स्वयं आगे बढ़ेगी, तो पुरुष भी प्रेरणा पाएँगे। सभ्यता एक सीढ़ी और ऊपर चढ़ेगी।

शिक्षा नारी जीवन के उत्कर्ष की दूसरी बड़ी आवश्यकता है। जरूरी नहीं कि वह स्कूली और आधुनिक ही हो। विचारशील होने के लिए जिस शिक्षा की आवश्यकता होती है, वह स्कूल की पुस्तकों से पूरी हो भी नहीं पाएगी। आजकल तो उसमें भ्रमित करने वाले अंश अधिक है। शिक्षा का अर्थ है−मानवीय गरिमा का बोध। प्रारंभिक ज्ञान तो विद्यालय में कराया जा सकता है, पर उच्चशिक्षा के लिए विद्यालय आवश्यक नहीं। उसके लिए जीवन को ऊँचा उठाने वाले साहित्य की नारियों को भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी किसी पुरुष को । इसके लिए उपयुक्त व्यवस्था अभिभावकों को करनी चाहिए। इसको पूरा करने के लिए सत्साहित्य की रचना की और प्रसार की ओर हमारा ध्यान हमेशा बना रहा है। अनपढ़ और प्रौढ़ महिलाओं की शिक्षा की देखभाल करना प्रत्येक गृहस्थ का आवश्यक कर्तव्य है। अपने साथी और सहयोगियों का बौद्धिक स्तर बढ़ाने में रुचि लेना नारी जीवन और समाज की बहुत बड़ी सेवा है। परिवार को ऊँचा उठाने, बालकों की अधिक अच्छी देखभाल−ये दो लाभ इस सेवा−साधना से हाथोंहाथ प्राप्त हो सकते हैं। इसमें महिलाएँ भी पीछे न रहें। शिक्षित महिलाएँ तो अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं। कमला हास्पेट, शिवदेवी शास्त्री जैसी समाजसेवी देवियाँ अपने प्रज्ञा परिवार के बीच से निकलें और अनपढ़ महिलाओं को साक्षर बनाने के लिए थोड़ा−सा समय निकालें, तो यह अपने तरीके की एक महान सेवा होगी। जन समर्थन जन सहयोगी की कमी उन्हें नहीं पड़ेगी

संस्कार सर्वोपरि

सुसंस्कारिता का महत्व शिक्षा से भी बढ़ा−चढ़ा है। माँ के संस्कार अच्छे हों और शैक्षणिक योग्यता कम भी हो तो काम आसानी से चल सकता है। प्राचीनकाल में भारतीय परिवारों में षोडश संस्कारों की, बलिवैश्व की तथा कथा−कहानियों की परंपरा पूरे उभार पर थी। पहली रोटी गो−ग्रास की बच्चों में परमार्थ भावना का बीजारोपण करती है। बलिवैश्व से देवत्व के प्रति समर्पण का पाठ पढ़ाया जाता है। षोडश संस्कार बाल मनोविज्ञान का अति उच्चस्तरीय निर्धारण कहा जा सकता है। सड़क के हर मोड़ पर, चौराहे पर दिशा−निर्देश के बोर्ड लगे होते हैं, ताकि यात्रियों और वाहनों को निर्धारित दिशा की राह पकड़ने में सुविधा हो। संस्कारों को भी इसी तरह का उच्चकोटि का मार्गदर्शक समझना चाहिए, बल्कि इससे अनेक गुना श्रेष्ठ।

मनुष्य जीवन के प्रत्येक नाजुक मोड़ पर विद्या का प्रकाश मिलता है। बालक का ध्यान विचारों की ओर मोड़ने के लिए चूड़ाकर्म, शिक्षा के महत्व को बतलाने के लिए समझ विकसित होते ही विद्यारंभ, किशोरावस्था के भटकावों से बचाने के लिए व्रतबंधन अर्थात् यज्ञोपवीत संस्कार, पारिवारिक वातावरण में कितने उपयोगी थे, इसे आज भी स्पष्ट देखा जा सकता है। यह कार्य घर की महिलाओं के जिम्मे ही रहे हैं। जीवन के मूल उद्देश्य की ओर सतत जागरुक रखने वाली इन श्रद्धासिक्त परंपराओं को पोषण देना ही चाहिए। परिवार का हर घटक चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, थोड़ी−सी भी सावधानी बरते तो आशा की किरणों को झलकते देर नहीं लगेगी।

नारी जीवन का पतन यथार्थ में परावलंबन से हुआ। पुरुष कमाई करता है, इसलिए वह वरिष्ठ है और स्त्री उसकी आश्रिता। इस मान्यता ने नारी जाति का बहुत अहित किया है। स्त्री की भावनामूलक बनावट और कोमल काया के कारण किसी समय उपार्जन जैसा कठोर कार्य पुरुषों ने अपने कंधों पर उठाया था और गृह व्यवस्था नारी को सौंपी थी। पीछे मूल आदर्श तो तिरोहित हो गया और परंपरा ने नारी जीवन को लूला−लँगड़ा कर दिया। नारी को दासी मानने, उसे प्रताड़ित करने और दहेज जैसी विकृतियों की जड़ भी यहीं से फैली। पहले तो विधवा हो जाने या पति द्वारा परित्यक्त कर देने के बाद भी पिता−भाई अथवा परिवार का कोई समझदार व्यक्ति उन्हें पूरे सम्मान के साथ अपने साथ रखकर जीवन निर्वाह को कठिन होने से बचा लेता था, पर आज जब पारिवारिक परिवेश में स्वार्थपरायणता−संकीर्णता ने अड्डा जमा लिया है, तब स्त्रियों का स्वावलंबन की ओर झुकना बहुत आवश्यक हो गया है। जहाँ इससे नारी जीवन से आत्महीनता की ग्रंथियां टूटेंगी वहीं के संकट के समय अपनी गृहस्थी का बोझ सँभालने के लिए परमुखापेक्षी नहीं बनेंगी।

नारीशक्ति का चतुर्मुखी विकास हो

श्रेष्ठ स्वाभिमानी संतति और सुखी परिवार के लिए नारी जीवन का यह चतुर्मुखी विकास आज की सर्वोपरि आवश्यकता है। इसे प्रत्येक प्रज्ञा परिजन, प्रत्येक भारतीय को गंभीरतापूर्वक अनुभव करना चाहिए। इसके लिए आवश्यक कदम उठाने से किसी को भी हिचकिचाना नहीं चाहिए। इसमें किसी प्रकार की कोई भी धार्मिक मान्यता आड़े नहीं आएगी। जो लोग नारी को लाँछित करते हैं, उन्हें धार्मिक अधिकारों से प्रतिबंधित ठहराते हैं, उन्हें सर्वप्रथम अपने प्राचीनकाल के ग्रंथों को जलाना होगा, ताकि उनके इस अधिकार का समर्थन करने वाले साक्ष्य शेष न रहें। पति की उदासीनता सहन न करने पर अपाला ने उच्चस्तरीय साधनाएँ संपन्न की। तभी वे मंत्रद्रष्टा ऋषि हो पाई। रामवंश के यथार्थ इतिहास को बाल्मीकि ने अपनी रामायण में लिखा है। जब सीताजी का अपहरण हो गया, और भगवान राम उन्हें खोजने चले तो उन्होंने लक्ष्मण से कहा, सायंकाल हो रहा है। सीताजी को जलाशय के किनारे संध्यावंदन बहुत प्रिया है। चलो उन्हें नदी किनारे ढूंढ़ें। ये उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि नारी का आत्मिक स्तर पुरुष से कतई कम नहीं।

इस तथ्य की खोज हिंदू धर्म के प्राण महामना मदन मोहन मालवीय ने स्वयं कराई थी। उन्होंने विद्वानों की एक मोटी नियुक्त की थी। जिसने यह निष्कर्ष दिया था कि स्त्रियों को धार्मिक अधिकार पुरुषों से कम नहीं। तभी से बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में कन्याओं को वेद पढ़ाए जाने लगे। इतना होने पर भी यदि नारी जीवन के अपावन, आश्रित होने की मान्यता पनपती रही, तो इस देश की महानता को फिर से विकसित कर सकना कभी भी संभव न होगा। जो हमें प्राचीनकाल से प्राप्त हुई थी । ॐ शाँति


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118