अध्यात्म विद्या के एक महाप्रयोग का यह अवसर गवाएँ नहीं।

October 2002

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शारदीय नवरात्रि गायत्री साधकों के लिए तप का महापर्व है। 7 अक्टूबर 2002 दिन सोमवार से हो रही इसकी शुरुआत में तप हेतु आह्वान है। संकल्पित साधना के लिए पुकार है। अपने गायत्री परिवार के परिजनों को इस महापर्व का महत्त्व सदा से सुविदित रहा है। ऐसे असंख्य लोग अपने देव परिवार में हैं, जिन्होंने वर्षों पहले अपनी किशोरावस्था या युवावस्था में गायत्री महामंत्र की साधना प्रारम्भ की थी। आज उनके बच्चे अथवा बच्चों के बच्चे बड़ी ही श्रद्धापूर्वक नवरात्रि के दिनों में अपने अनुष्ठान को पूरा करते हैं। परिजनों ने परम पूज्य गुरुदेव से पायी गयी इस अमूल्य साधनात्मक धरोहर को अपनी अगली पीढ़ी के सदस्यों को वसीयत और विरासत के रूप में सौंपा है। यही वह तथ्य है, जिसके कारण गायत्री परिवार का विशालकाय संगठन देश और विश्व के अन्य सभी संगठनों व आन्दोलनों से पूरी तरह भिन्न हैं। जहाँ अन्य संगठन अपनी पूँजी के रूप में धन-बल को अपना सब कुछ मानते हैं, वही गायत्री परिवार के लिए उसकी सम्पूर्ण पूँजी तप-बल है।

कभी पुरा-युग में देवों की तपशक्ति के एक-एक अंश के सम्मिलन से महाशक्ति आविर्भूत हुई थी। और उन्होंने महिषासुर के दमन और दलन का कार्य किया था। आज उसी तरह अपने देव परिवार के प्रत्येक सदस्य के तप-अंश के सम्मिलन से आदिमाता गायत्री युगशक्ति के रूप में अवतरित हुई हैं। माता के इस अवतरण का उद्देश्य ‘मनुष्य में देवत्व का उदय एवं धरती में स्वर्ग का अवतरण’ है। यह महत्कार्य साधन-साध्य नहीं, साधना-साध्य है। दैवी गुणों से सम्पन्न असंख्य तपस्वियों के सम्मिलित तप तेज को ही अपना ब्रह्मत्र बनाकर जगन्माता इस कार्य को पूर्ण करेंगी। परिजनों का तप तेज जिस तीव्रता से बढ़ेगा, विश्व-वसुधा में दैवी सम्भावनाएँ उसी तेजी से साकार होंगी। जो परिजन परम पूज्य गुरुदेव के संग-साथ में रहे हैं, जिन्होंने पूज्यवर का सान्निध्य पाया है, उन्हें यह सत्य भली-भाँति अवगत है कि नवरात्रि के दिनों का तप-साधना के लिए विशेष महत्त्व है।

परम पूज्य गुरुदेव अपनी निजी चर्चाओं और कार्यकर्त्ता संगोष्ठियों में यदा-कदा नवरात्रि के दिनों की महत्ता बताते थे। उनका कहना था कि अपनी धुरी में घूमने वाली धरती सूर्य के चारों ओर भी घूमती है। यही स्थिति अन्य ग्रहों की भी है, वे भी सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करते हैं। अपने-अपने परिक्रमा पथ पर चलते हुए ये सभी ग्रह किसी न किसी तरह से एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। इस प्रभाव में काल-क्रम में अनुसार विविधता रहती है। इसमें शुभ और अशुभ भावों का मिश्रण रहता है। पृथ्वी की सम्पूर्ण प्रकृति भी इन प्रभावों से अप्रभावित नहीं रह पाती। इन अन्तर्ग्रही प्रभावों के कारण अनेकों तरह की शुभ और अशुभ घटनाएँ धरती के दृश्य व अदृश्य वातावरण में घटित होती है। दिव्यद्रष्ट इस सच्चाई को भली प्रकार अनुभव करते हैं।

अविराम गतिशील कालचक्र और अपने परिक्रमा पथ पर गतिशील विभिन्न ग्रहों के संयोग से उत्पन्न होने वाले प्रभावों का प्राचीन ऋषियों ने बड़ा गहन अध्ययन-अनुसंधान किया था। इनके अधिकतम शुभ प्रभावों से मानवीय अन्तर्चेतना को प्रेरित, प्रभावित एवं रूपांतरित करने के लिए वर्ष में चार बार नवरात्रि पर्वों की विधि-व्यवस्था बनायी थी। इनमें से दो नवरात्रि पर्वों से अपने देश के लोग भली प्रकार सुपरिचित हैं, शेष दो से अब प्रायः अपरिचित हो चले हैं। इन चार नवरात्रियों की चर्चा बड़ी ही स्पष्ट रीति से देवी पुराण में की गयी है-

चैत्रेऽश्विने तथाऽऽषाढ़े माघे कार्यों महोत्सवः। नवरात्रे महाराज पूजा कार्या विशेषतः॥ (देवी पुराण 324/21)

यह तथ्य देवी भागवत के माहात्म्य प्रकरण में भी वर्णित है-

आश्विने मधुमासे वा तपोमासे शुचौ यथा। चतुर्षु नवरात्रेषु विशेषफलदायकम्॥ (देवी भागवत, माहात्म्य 1/31)

सार रूप में उपरोक्त शास्त्र वचन चैत्र, आश्विन, अषाढ़ और माघ महीने में नवरात्रि होने की बात प्रमाणित करते हैं।

इन सभी चारों नवरात्रियों में भी शारदीय नवरात्रि का विशेष महत्त्व है। इन नौ दिनों में पृथ्वी पर जो अंतर्ग्रही प्रभाव पड़ते हैं, साधना की दृष्टि से वे बड़े ही अद्भुत और असाधारण होते हैं। बंगाल के महान् सन्त लोकनाथ ब्रह्मचारी तो इसके बारे में यहाँ तक कहते थे कि वर्ष भर किए जाने वाले गायत्री के चौबीस लक्ष के महापुरश्चरण का सुफल शारदीय नवरात्रि के नौ दिनों में मात्र 24 हजार के लघु अनुष्ठान से ही मिल जाता है। इन विशेष दिनों में किए जाने वाले इस लघु अनुष्ठान से बड़े ही दुष्कर-दुर्योग अनायास ही कट जाते हैं। और अनेकों शुभ-सुफलों की प्राप्ति होती है। यह सच अनेकों साधकों द्वारा बार-बार आजमाया हुआ है। शास्त्रों में भी इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं।

इनमें से कई प्रमाणों से तो यह भी पता चलता है कि शक्तिपूजा वाले इस पुण्य देश भारत में नव वर्ष का प्रारम्भ ही इसी समय होता था। अभी भी विद्वानों का मानना है कि चान्द्र वर्ष का हमारा महारम्भ शक्तिपूजा से ही होता है। उनका यह भी कहना है कि शरत् पूजा भी हमारी महत्त्वपूर्ण शक्तिपूजा ही है। हिमाचल में आज भी आश्विन के आरम्भ में शरद् वन्दना करते हुए लोग रात-रात भर जागते रहते हैं। देवी सप्तशती में इस पूजा का उल्लेख बड़ी स्पष्ट ढंग से मिलता है-

शरत् काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी। तस्याँ ममैतन्माहात्मयं पठितव्यं समाहितैः॥ (देवी सप्तशती 12/12)

शास्त्रकार हों या फिर सन्त-साधक सभी एक स्वर से यही बताते हैं कि शारदीय नवरात्रि विशेष ही नहीं अतिविशेष है। इसलिए अपने परिजनों में से किसी को भी इस सुअवसर से किसी भी स्थिति में चूकना नहीं चाहिए। अपनी सारी व्यस्तताओं और विवशताओं को एक किनारे रखकर इन नौ दिनों में बड़ी ही श्रद्धा भावना के साथ गायत्री महामंत्र का 24,000 का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए। विश्वास किया जाता है कि गायत्री अनुष्ठान के सभी विधि-नियमों से अपने परिजन परिचित होंगे। फिर भी यदि किसी को कोई शंका हो तो गायत्री महाविज्ञान के पृष्ठो से आवश्यक निर्देश प्राप्त किए जा सकते हैं। अखण्ड ज्योति के पुराने अंकों में भी इस तरह की नवरात्रि-साधना सम्बन्धी सामग्री प्रकाशित होती रही है, वहाँ से भी यह जानकारी पायी जा सकती है।

इस सम्बन्ध में सामान्य सत्य यही है कि नवरात्रि की पूर्व सन्ध्या पर अनुष्ठान का संकल्प करके 27 माला प्रति दिन जप किया जाना चाहिए। जप के साथ तप के विशेष अनुबन्ध ही सामान्य साधना को अनुष्ठान का स्वरूप प्रदान करते हैं। यह सत्य अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिए। तप के क्रम में 1. भूमि या तख्त पर शयन, 2.ब्रह्मचर्य पालन, 3. एक समय का आस्वाद भोजन, 4. वाणी पर अनिवार्य नियंत्रण, सम्भव हो सके तो मौन पालन, 5. किसी से भी अपनी सेवा न लेना सामान्य नियम है। इस विधान को कुछ विशेष ऊर्जावान बनाना हो तो गायत्री महाविज्ञान के प्रथम भाग में बताए गए बारह तप प्रयोगों में भी कुछ को अपनाया जा सकता है। शारदीय नवरात्रि में गायत्री अनुष्ठान का पालन अध्यात्म विद्या का महाप्रयोग है। इसकी सुपरिणति एवं सुपरिणाम सुनिश्चित है। अपने जीवन के इस महाअवसर को खोएँ नहीं। आदि शक्ति माता गायत्री की कृपा अवतरण के लिए यही सुपात्रता, सत्पात्रता की कसौटी है।


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