संगठन की साधना (Kavita)

October 2002

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दृढ़ संगठन मिशन का, मिलकर सँवारना है, अभ्यास बस इसी का, नवरात्रि साधना है।

प्राचीर इस भवन की है ठोस नींव वाली, हर ईंट तप−तितिक्षा से है गई निकाली, फिर भी कहीं दिखें यदि दीवार में दरों, हम सावधान होकर पहले उसे सुधारें,

बिखराव दूर करके, सबको दुलारना है। अभ्यास बस इसी का, नवरात्रि−साधना है।

हर कार्य है सरल, जब अनुकूल हो हवाएँ, जो लक्ष्य चाहते हैं, आगे कदम बढ़ाएँ, जो इस समय जगेगा, सबको जगाएगा जो, अनुदान दिव्य अनगिन, स्वयमेव पाएगा वो,

अब स्वार्थ−क्षुद्रता को बिलकुल बिसारना है, अभ्यास बस इसी का, नवरात्रि−साधना है।

हम संगठित रहेंगे तो शक्तिवान होंगे, उज्ज्वल भविष्यत् के हम शाश्वत प्रमाण होंगे, दुर्जन न देख हमको साहस जुटा सकेंगे, आतंक−भय न अपने सिर भी उठा सकेंगे,

यह शाँतभाव होकर हमको विचारना है, अभ्यास बस इसी का, नवरात्रि−साधना है

व्यक्तित्व में स्वयं के हम आत्मबल जगाएँ दुर्भाव को मिटाकर, सद्भावना बढ़ाएँ, परिवार के लिए भी हम कुछ समय निकालें, दायित्व राष्ट्रहित के, कल के लिए न टालें,

यह भाव हर हृदय में हरदम उभारना है, अभ्यास बस इसी का, नवरात्रि−साधना है।

हर लक्ष्य प्राप्ति का दृढ़ आधार साधना है, उत्कृष्टता−नियंत्रित व्यवहार साधना है, नवरात्रि−साधना के साधक सभी बने हम, पल भर नहीं प्रगति में बाधक कभी बनें हम

उत्कृष्ट भाव−चिंतन ही धर्म−धारणा है। अभ्यास बस इसी का, नवरात्रि−साधना है।

−शचीन्द्र भटनागर

*समाप्त*


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