समाधि का सत्य

October 2002

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साधक समाधि की अभीप्सा करते हैं। लेकिन यह समाधि है क्या? इस सत्य की अनुभूति विरले ही कर पाते हैं। कुछ कहते हैं- बूँद का सागर में मिल जाना समाधि है, तो कोई सागर के बूँद में उतर जाने को समाधि कहते हैं। पर जिन्हें समाधि के सत्य की अनुभूति हुई है, वे बताते हैं- बूँद और सागर दोनों का मिट जाना समाधि है। जहाँ न बूँद है, न सागर है, वहीं समाधि है। जहाँ न एक है, न अनेक है, वहीं समाधि है। जहाँ न सीमा है, न असीम है, वहीं समाधि है।

प्रभु के साथ घुल-मिलकर एक हो जाना समाधि है। सत्य, चैतन्य और शान्ति इसी के नाम हैं। ‘जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं’ महात्मा कबीर की इस अनुभूति में समाधि के इसी सत्य की अभिव्यक्ति है। ‘मैं’ समाधि में नहीं होता है, बल्कि यूँ कहें कि जब मैं नहीं होता, तब जो कुछ भी होता है, वही समाधि है। और शायद यह ‘मैं’ जो कि मैं नहीं है, वास्तविक मैं है।

दरअसल ‘मैं’ की दो सत्ताएँ हैं- अहं और ब्रह्म। अहं वह है, जो मैं नहीं हूँ, फिर भी हमेशा मैं जैसा प्रतीत होता है। ब्रह्म वह है, जो वास्तव में मैं है, लेकिन जो मैं जैसा एकदम नहीं भासता। आत्मचेतना, शुद्ध चैतन्य ब्रह्म यही अपना असली स्वरूप है। यही समाधि में अनुभव होने वाला सत्य है।

अपने वास्तविक स्वरूप में हम सभी शुद्ध साक्षी, चैतन्य हैं। पर विचारों के चक्रवात में उलझ जाने के कारण यह सच्चाई समझ में नहीं आती। यथार्थ में ‘विचार’ अपने आप में चेतना नहीं है, बल्कि जो विचार को जानता है, देखता है, वही चैतन्य है। विचार विषय है, चेतना विषयी है। जब चेतना अपने को भूल जाती है, अपने को विचारों में खो देती है, तो इसी को प्रसुप्त अवस्था या असमाधि कहते हैं।

इसके विपरीत जब चेतना अपने आप को विचारों के मकड़जाल से मुक्त कर लेती है, तब उसे समाधि का अनुभव होता है। संक्षेप में चेतना की निर्विचार अवस्था ही समाधि है। विचार शून्यता में आत्मचेतना का जागरण सत्य और सत्ता के द्वार खोल देता है। सत्ता अर्थात् विराट् भगवत् चेतना। इसमें जागरण ही तो समाधि सत्य का अनुभव है। इसी को पाने के लिए समस्त जाग्रत् आत्माएँ प्रेरित करती रहती हैं।


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