संत के अपमान की परिणति

October 2002

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कौशाम्बी की श्री-समृद्धि नष्ट प्राय हो चली थी। महाराज बृहस्पतिमित्र तो जैसे अन्तःपुर में कैद होकर रह गए थे। हास-विलास, राग-रंग में डूबे हुए राजा को राज्य का ध्यान नहीं रह गया था। प्रजाजन विस्मृत हो चुके थे। कर्त्तव्य और दायित्व निभाने की उनमें थोड़ी सी भी सुध-बुध बाकी नहीं बची थी। वासनाओं की धधकती अग्नि में उनकी जीवनी शक्ति झुलस रही थी। लेकिन वह और भी उन्मत्त होते जा रहे थे। उन्मत्तता के इस उन्माद में प्राण शक्ति का कब कितना क्षय हुआ? कब उनमें क्षय रोग का घुन लग गया पता ही नहीं चला। उन पर किसी का कोई वश नहीं था। राजवैद्य भी राज हठ के सामने विवश थे। ‘भोगे रोग भयं’ के नीति वचनों से भी महाराज की मोहनिद्रा नहीं खुल पा रही थी।

उस दिन राज प्रासाद की वीथिका में विक्षुब्ध मंत्रीगण परस्पर वार्तालाप कर रहे थे..... बात के सूत्र को जोड़ते हुए एक मंत्री ने कहा- महाराज को तो अब अपने पूर्वजों की कीर्ति का भी भान नहीं रहा। दूसरे मंत्री ने गहरी साँस लेते हुए कहा- महासेनानी पुष्यमित्र ने कितने जतन से कौशाम्बी को संवारा था। उस महाविजेता ने पाटलिपुत्र के स्थान पर इस पुण्य क्षेत्र को अपनी राजधानी बनाया। बड़े अरमानों से सोचा था उन्होंने कि तीर्थराज प्रयाग के सान्निध्य में बसी हुई कौशाम्बी को शासन का केन्द्र बनाने से शासकों पर राजमद हावी नहीं होगा। वे तीर्थ की गरिमा का ध्यान रखते हुए आचरण करेंगे....पर। अपनी बात अधूरी छोड़कर वह चुप हो गया। इस चुप्पी में विषाद की कालिमा और घनी हो गयी।

वातावरण में व्याप्त हो चले सन्नाटे को तोड़ते हुए एक अन्य मंत्री ने कहा- महासेनानी ने अपने वंशजों के लिए यह मर्यादा भी तो स्थापित की थी कि जनहित में तप और शौर्य की साधना उनका आदर्श होगी। मर्यादा की इस अमिट रेख को वे कभी भी पार नहीं करेंगे। महासेनानी ने इस आदर्श को पूरी उम्र भर निभाया। तभी तो उनके तप और शौर्य के तेज से यवनों की आँखें भी चौंधिया गयीं। कौशाम्बी के प्रताप ने उसके श्री और बल का हरण कर लिया। वही कौशाम्बी आज स्वयं तेजहीन होती जा रही है। छोटे-छोटे जनपद भी उसकी ओर धृष्ट दृष्टि डालने लगे हैं। यह सब सहा नहीं जाता। समझ में नहीं आता कर्त्तव्य विमुख महाराज को कौन कर्त्तव्य पथ पर लाए? महर्षि प्रचेतस् ऐसा करने में समर्थ हैं। वे महर्षि पतंजलि की शिष्य परम्परा के अद्भुत योगी हैं। अपेक्षाकृत युवा वयस् के एक मंत्री ने उत्साहपूर्वक कहा।

लेकिन न जाने क्यों उसका यह उत्साहपूर्ण समाधान भी किसी भी उत्साह का संचार न कर सका। सभी मंत्रीगण वैसे ही निरुत्साहित हो चुप रहे। समाधान प्रस्तुत करने वाले से रहा न गया। उसने कहा- आप सब चुप क्यों हैं? क्या आप लोगों को महर्षि प्रचेतस् की ज्ञान शक्ति, तप शक्ति एवं योग शक्ति पर संदेह है? नहीं आयुष्मान् संकेत ऐसा नहीं है। हम सबको तो क्या कौशाम्बी के मूढ़ से मूढ़ नागरिक को भी महर्षि के ज्ञान वैभव और योग वैभव में जरा भी सन्देह नहीं होगा। वे तो हम सभी कौशाम्बी वासियों के आराध्य हैं। उन पूज्यवर के प्रति अश्रद्धा या अविश्वास का भाव हममें से किसी के भी मन में आए, ऐसा सम्भव नहीं है।

तब क्या कारण है आर्य? वय से युवा मंत्री संकेत ने जिज्ञासा प्रकट की। कारण है वत्स! वृद्धवयस् के मंत्री त्रिवृष्ण ने बताना प्रारम्भ किया। सम्भवतः तब तुम काफी छोटे होगे। इसलिए तुम्हें इस कथा का स्मरण नहीं होगा। अन्यथा उन दिनों इस घटनाक्रम ने कौशाम्बी के जन-जन को उद्वेलित व आन्दोलित किया था। यह कहते हुए महामंत्री त्रिवृष्ण अपनी स्मृतियों में खोने लगे।

महाप्रतापी मित्र उपाधि वाले कुल के वंशज हैं अपने महाराज बृहस्पतिमित्र। उनके मन में अनेक महत्त्वाकाँक्षाएँ अपने पिता ब्रह्ममित्र के शासन काल में ही उभरने लगी थीं। वह प्रतीक्षातुर थे कि कब उनका राज्याभिषेक हो और कब वे अपने पराक्रम की पताका पूरे भूमण्डल पर फहराएँ। महत्त्वाकाँक्षा दिनों दिन बलवती होने लगी। पिता ब्रह्ममित्र वृद्ध हो चले थे। उनके जीवन काल में कौशाम्बी में सर्वत्र सुख-शान्ति का साम्राज्य रहा, प्राकृतिक आपदाएँ भी राज्य में उपद्रव न कर पाती थीं। कौशाम्बी की जीवन निरापद वैभव पूर्ण जीवन था। यथा समय अवसर पाकर महाराज ब्रह्ममित्र ने मंत्रियों को बुलाकर कहा- मेरे वानप्रस्थ जीवन का समय आ गया है, अब युवराज बृहस्पतिमित्र का राज्याभिषेक कर देना चाहिए।

महाराज के पुत्र को राजपद पर अभिषिक्त करने में भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी? सभी ने सहर्ष भाव से राजा के अभिमत का अनुमोदन किया। शुभ मुहूर्त देख कर युवराज का अभिषेक हुआ और महाराज वन को चले गए। महाराज ब्रह्ममित्र ने तप-साधना की ओर अपने पाँव बढ़ाए और युवराज को अपना अभीप्सित मिल गया। उन्हें तो इस अवसर की प्रतीक्षा थी ही। यह कथा सुनाते हुए वृद्ध मंत्री त्रिवृष्ण थोड़ा ठहरे। युवा वयस् के मंत्री संकेत की ओर इंगित करके बोले- पुत्र तुम शायद नहीं जानते होगे- कि महाराज बृहस्पतिमित्र एवं महर्षि प्रचेतस् दोनों ही बालसखा हैं। उन्होंने एक ही गुरुकुल में शिक्षा पायी थी। तब के युवराज और आज हमारे महाराज अपनी राजनीतिक आकाँक्षाओं में उलझे रहे। जबकि तपोनिष्ठ महर्षि प्रचेतस् महायोगी हो गए। पर उनकी मित्रता में कोई कसर नहीं थी। महाराज बृहस्पति मित्र ने राजपद पाते ही, महर्षि को अपना पुरोहित बना लिया। महर्षि को भी अपनी जन्मभूमि की सेवा में भारी प्रसन्नता थी।

महर्षि प्रचेतस् की प्रखर मेधा, उनकी नीति कुशलता और महाराज बृहस्पतिमित्र की रणकुशलता एवं अद्भुत शौर्य ने कौशाम्बी के गौरव को असंख्य गुणित कर दिया। इस मणिकाँचन के सुयोग से कौशाम्बी की ख्याति हिमगिरि शिखरों से लेकर समुद्र की अतल गहराइयों तक गूँजने लगी। उन्हीं दिनों मंत्रीगणों ने महाराज को दिग्विजय के लिए सम्मति दी। राजपुरोहित महर्षि प्रचेतस् ने कतिपय सावधानियाँ बताते हुए इसकी मौन स्वीकृति दे दी। महर्षि प्रचेतस् का कहना था कि दिग्विजय शासन को सुव्यवस्थित करने के लिए की जाय, यहाँ तक ठीक है। पर इसका उपयोग औरों की स्वतंत्रता को छीनने, कृषकों की फसलों को नष्ट करने, नागरिकों की सुरक्षा व समृद्धि को तहस-नहस करने में नहीं होना चाहिए। इस महायात्रा के लिए विदा करते हुए महर्षि ने कहा- राजन! दिग्विजय यात्रा के प्रत्येक पग पर आप यह स्मरण रखिएगा कि यह एक यज्ञ अभियान है। इसका उद्देश्य ‘परित्राणाय साधूनाँ-विनाशाय च दुष्कृताम्’ है। इस पुण्य प्रयोजन को कहीं भी किसी स्थिति में क्षति न हो।

महाराज बृहस्पतिमित्र महर्षि के इन वचनों के साथ पुरवासियों की मंगलकामनाओं, पुराँगनाओं के मंजुल गीतों व वयोवृद्ध जनों के मंगल आशीषों को सुनते हुए अपनी यात्रा के लिए चल पड़े। महाराजा की जय-जयकार का स्वर सभी दिशाओं में फैल गया।

चतुरंगिणी सेना के साथ महाराजा ने दिग्विजय यात्रा के लिए प्रयाण किया। असंख्य रथों, घोड़ों हाथियों के साथ अनगिन पैदल सैनिक महाराज बृहस्पतिमित्र की जय-जयकार करते हुए चल रहे थे। सेना का पगध्वनि से धरती क्षण-क्षण काँप उठती थी। मार्ग जनसमूह से घिर जाने के कारण संकरे हो गए। महाराज बृहस्पतिमित्र और उनके पूर्वजों के प्रताप से अभिभूत सीमा पर स्थित राज्यों के अधिपति अनेक उपहार लेकर महाराज के रथ के पास पहुँच जाते थे। जिस-जिस प्रदेश में महाराज का रथ उनकी चतुरंगिणी सेना के साथ गया, वहाँ कौशाम्बी का प्रभुत्व व प्रभाव छाता गया। चतुर्दिक् सुख, शान्ति और सद्भावना की स्थापना के लिए यह दिग्विजय यात्रा है, ऐसा जानते ही राजागण उनकी आधीनता स्वीकार कर लेते। युद्ध करने की स्थिति कम ही स्थानों पर उत्पन्न हुई। जिन्होंने युद्ध किया, वे बुरी तरह से पराजित हुए। महाराज बृहस्पतिमित्र के आदेश से सेनापति ने ऐसे राज्यों व उनके सेनानायकों को युद्ध बन्दी बना लिया।

बृहस्पति मित्र ने अपने विजय रथ पर आरुढ़ होकर उत्तर से पूर्व, दक्षिण से पश्चिम सभी दिशाओं में सफलतापूर्वक यात्रा पूर्ण की। अपने राज्य को चारों ओर से सुरक्षित कर लिया। महाराज बृहस्पतिमित्र एवं महर्षि प्रचेतस् की प्रखर मेधा की सब तरफ सराहना हुई। दिग्विजय यात्रा समाप्त हुई। कौशाम्बी वापस लौटने की घड़ियाँ आ चुकीं। सभी का हर्ष सीमाओं के बन्धन तोड़ रहा था। महाराजा के इस दिग्विजय सन्देश को वायु ने पुष्पों की सुगन्धि की भाँति सर्वत्र फैला दिया। समूची भारत-धरा कौशाम्बी की अपरिमित कीर्ति से आपूरित हो उठी। यात्रा से लौटते समय महाराज ने राजधानी में सन्देश भिजवा दिया था कि वे लौटकर एक अद्भुत महायज्ञ करेंगे। मंत्रीगण यज्ञ की आवश्यक तैयारी करके रखें।

महाराज वापस लौटकर महायज्ञ करेंगे। यह सन्देश सुनते ही प्रजावर्ग में हर्ष की लहर दौड़ गयी। महर्षि प्रचेतस् के मार्गदर्शन में मंत्रियों ने यज्ञ की तैयारी पूर्ण कर ली। सजी-संवरी कौशाम्बी रूपगर्विता नायिका की भाँति उल्लसित हो उठी। राजमार्ग विशाल तोरण द्वारों से सुसज्जित था। मंगल वाद्यों और मंगल गानों से सारा प्राँतर आह्लादित हो गया। समूची कौशाम्बी अपने महाराज के वापस लौटने की प्रतीक्षा में उतावली हो रही थी। उत्साह से भरे मनुष्यों से राजमार्ग, वीथिकाएँ, गवाक्ष खचाखच भर गए थे। भीड़ की अधिकता से रथ की गति रुक-रुक जाती थी। प्रजाजनों के अभिवादन को स्वीकार करते हुए महाराज सीधे यज्ञ स्थल पहुँचे। उनके साथ युद्ध बन्दियों की कतार भी थी। महाराज के संकेत से उन्हें एक-एक करके यज्ञ यूप से बाँध दिया गया।

यज्ञ संचालन के सूत्रधार महर्षि प्रचेतस् महाराज से भावपूर्ण रीति से मिले। उन्हें दिग्विजय यात्रा में सफलता की बधाई दी। मार्ग का हाल-चाल पूछा। और यज्ञ की प्रत्येक तैयारी की उन्हें जानकारी दी। तभी महर्षि की दृष्टि यज्ञयूपों से बाँधे जा रहे युद्ध बंदियों की ओर गयी। उन्होंने पूछा इन्हें क्यों बाँधा जा रहा है महाराज? इनका बलिदान किया जाएगा। हम एक अपूर्व नरमेध करेंगे। बृहस्पतिमित्र ने दर्प के साथ कहा। उत्तर में महर्षि ने शान्त व संयत स्वर में उन्हें बताया कि नरमेध का अर्थ लोकसेवा के लिए उत्कृष्ट विभूतिवान मनुष्यों द्वारा जीवन का अर्पण है। किसी के वध को नरमेध नहीं कहा जाता। महर्षि ने महाराज को बताया कि राजकार्य में किसी भी हिंसा के लिए कोई भी स्थान नहीं है। परन्तु बृहस्पतिमित्र तो विजय दर्प में थे। उन्होंने कुछ भी सुनने, जानने व मानने में कोई रुचि न दिखाई।

लेकिन महर्षि उन्हें धैर्यपूर्वक समझाते हुए बोले- इस तरह निरीह मनुष्यों का वध करने से आपकी दिग्विजय यात्रा अभिशप्त हो जाएगी। दिग्विजय यात्रा को अभिशप्त कहने से महाराज बिफर पड़े, ‘मेरी दिग्विजय यात्रा को अभिशप्त बताने वाले क्षुद्र पुरोहित मैं अभी तुम्हें अपने राज्य से निष्कासित करता हूँ।’ महर्षि ने राजा के इस कथन पर एक पल तीक्ष्ण दृष्टि से देखा, लेकिन दूसरे ही पल वह बिना कुछ बोले चुपचाप वहाँ से चले गए। तब से आज तक वह कौशाम्बी की सीमाओं से बाहर अपनी तप-साधना में निमग्न हैं। इधर उनके नीति-निर्देशन के अभाव में कौशाम्बी श्रीहीन हो रही है और महाराज विलास में डूबे हैं। महामंत्री त्रिवृष्ण ने अपनी स्मृति कथा का उपसंहार किया।

दो पल सभी चुप रहे। इस चुप्पी को तोड़ते हुए युवावय के मंत्री संकेत ने कहा- सन्त के अपमान और अभाव में जो कुछ हो रहा है, उसके अलावा और हो भी क्या सकता है। राजप्रासाद से लेकर साधारण जनता तक में नीति-मर्यादाएँ मिट चुकी हैं। सुख-शान्ति का अवसान हो गया है। चारों ओर अव्यवस्था का बोल-बाला है। विनाश और विपत्ति की आशंकाएँ हर ओर अंकुरित हो रही हैं। बोलते-बोलते मंत्री संकेत थोड़ा रुके फिर कहने लगे- इन परिस्थितियों में हम चुप नहीं बैठ सकते। हम महाराज से बात करेंगे, उन्हें समझाएँगे। और महर्षि को वापस फिर से कौशाम्बी लाएँगे। भले ही इसके लिए हमें अपनी जान से ही हाथ क्यों न धोना पड़े।

उस युवक के उत्साह ने सभी को उत्साह दिया। सारे मंत्रीगण मिलकर महाराज बृहस्पतिमित्र को समझाने के लिए राजप्रासाद गए। विलास ने महाराज के यौवन को हर लिया था। राग-रंग के कुहासे में उनकी तेजस्विता विलीन हो चुकी थी। मंत्रियों ने उन्हें राज्य की जर्जर अवस्था बतायी। साथ ही महर्षि प्रचेतस् को वापस लाने का प्रस्ताव रखा। प्रचेतस् के स्मरण से महाराज भावुक हो गए। सजल भावनाओं में उनके विवेक पर चढ़ी धूल धुल गयी। वह कहने लगे- तुम सबके साथ मैं स्वयं भी चलूँगा। सन्त के अपमान के कारण ही मेरी यह दशा हुई है। मैं अपने अपराध का प्रायश्चित करूंगा। महाराज सहित सभी महर्षि को वापस लौटाने के लिए चल पड़े।

उस युवक के उत्साह ने सभी को उत्साह दिया। सारे मंत्रीगण मिलकर महाराज बृहस्पतिमित्र को समझाने के लिए राजप्रासाद गए। विलास ने महाराज के यौवन को हर लिया था। राग-रंग के कुहासे में उनकी तेजस्विता विलीन हो चुकी थी। मंत्रियों ने उन्हें राज्य की जर्जर अवस्था बतायी। साथ ही महर्षि प्रचेतस् को वापस लाने का प्रस्ताव रखा। प्रचेतस् के स्मरण से महाराज भावुक हो गए। सजल भावनाओं में उनके विवेक पर चढ़ी धूल धुल गयी। वह कहने लगे- तुम सबके साथ मैं स्वयं भी चलूँगा। सन्त के अपमान के कारण ही मेरी यह दशा हुई है। मैं अपने अपराध का प्रायश्चित करूंगा। महाराज सहित सभी महर्षि को वापस लौटाने के लिए चल पड़े।


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